कहीं कव्वाली सुनने में आते ही या कभी कव्वाली का नाम जेहन में आते ही जो नाम सबसे पहले याद आता है वो नुसरत फतेह अली खान।
एक आलाप, एक दो शेर और फिर एक सूफी कलाम शुरू होता है तो वह मौसिकी की किसी इतनी गहरी जगह में ले जाता है कि मन करता है वहां से कभी बाहर न लौटें।
यह अक्सर तब होता है जब हम नुसरत को सुनते हैं। नुसरत का रूह को चिरता हुआ आलाप ऐसी गलियों में लेकर जाता है, जहां
बस नशा ही नशा है। एक सूफी अंदाज का नशा, भीतर होने की मदहोशी और अहसास। यह सिर्फ नुसरत को सुनते हुए ही संभव हो सकता है।
13 अक्टूबर 1948 को नुसरत फतेह अली का जन्म हुआ था। लेकिन वे ज्यादा नहीं जी सके, सिर्फ 49 साल की उम्र में उनका निधन हो गया, लेकिन इतने कम समय में कव्वाली की दुनिया को जो वे देकर गए हैं, दुनिया में शायद किसी ने नहीं दिया है। उस दौर से लेकर आज तक उनके कलाम और कव्वाली पूरी शिद्दत के साथ सुने जाते हैं।
नुसरत के परिवार में कव्वाली सदियों से गाई जा रही थी, लेकिन ऐसी कव्वाली किसी ने नहीं गाई कि उसे पूरी दुनिया ही जानने लगे। नुसरत को अपनी कव्वाली और अपने इसी अंदाज के लिए पूरी दुनिया में सराहा और जाना गया, चाहे वो कव्वाली को समझने वाला हो या न हो।
उनके संगीत ने दुनिया के तमाम दायरों को खत्म कर दिया। भाषा और जबान से परे वे अपनी मौसिकी को इतना ऊंचा लेकर गए कि जहां समझने और दिमाग लगाने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। सिर्फ इतना बचा रह गया कि नुसरत को सुनिए और मौज कीजिए। क्योंकि नुसरत बने ही कव्वाली के लिए थे।
नुसरत के पिता फतेह अली खां चाहते थे कि वो डॉक्टर या इंजीनियर बनें, लेकिन नुसरत तो गायक बनना था। पिता ने उनकी इच्छा का सम्मान किया। उन्हें सिखाना शुरू किया। 1964 में पिता की मौत हो गई। इसके बाद चाचा सलामत अली खां और मुबारक अली खां ने सिखाया। 16 की उम्र में उन्होंने पहली बार सार्वजनिक परफॉर्मेंस दी।
1971 में चाचा मुबारक अली खां की भी मौत हो गई। इसके बाद वो कव्वाली हमनवा के प्रमुख गायक बन गए। ग्रुप में मुबारक अली खां के बेटे मुजाहिद मुबारक भी शामिल थे। नुसरत के छोटे भाई फारूख भी आ गए, जो उनसे चार साल छोटे थे। ग्रुप का नाम रखा गया नुसरत फतेह अली खां- मुजाहिद मुबारक अली खां एंड पार्टी।
हालांकि बाद में यह ग्रुप टूट गया, उन्होंने अपना एक अलग ग्रुप बना लिया। लेकिन नुसरत जिस कदर लोकप्रिय हुए उसका कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता।
नुसरत ने 40 से भी ज्यादा मुल्कों में गाया। दिन रात शो हाने लगे। करीब आठ से ज्यादा लोगों का कोरस, तबला वादक, हारमोनियम। नुसरत का ऐसा जादू दुनिया पर छाया कि आज तक छाया हुआ है। उनके साथ रहकर कुनबे के राहत फतेह अली खान भी आज बुलंदियों पर हैं।
सिर्फ यही कहा जा सकता है कि नुसरत कव्वाली और कव्वाली नुसरत का पर्याय बन चुकी है। जब जब कव्वाली का नाम लिया जाएगा, नुसरत याद आएंगे, उनका जिक्र होगा।