आज से केवल छप्पन दिनों के बाद भारत सहित पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाली घटना के परिणामों को लेकर अब हमें भी प्रतीक्षा करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। इस बात पर दुःख व्यक्त किया जा सकता है कि मीडिया ने एक महत्वपूर्ण समय में जनता का पूरा ध्यान जान बूझकर ग़ैर ज़रूरी विषयों की तरफ़ लगा रखा है। इस बातचीत का सम्बंध अमेरिका में तीन नवम्बर को महामारी के बीच एक युद्ध की तरह सम्पन्न होने जा रहे राष्ट्रपति पद के चुनावों और जो कुछ चल रहा है उसके साथ नत्थी हमारे भी भविष्य से है।
पिछले सितम्बर की ही बात है। अपनी सात-दिवसीय अमेरिका यात्रा के दौरान ह्यूस्टन में आयोजित भव्य ‘हाउडी मोदी‘ रैली में वहां के सभी राज्यों से पहुंचे कोई 50 हज़ार लोगों की उपस्थिति से अभिभूत होकर प्रधानमंत्री मोदी ने 10 भारतीय भाषाओं में उस देश में बसने वाले भारतीय मूल के लगभग 50 लाख नागरिकों को आश्वस्त किया था कि वे क़तई चिंतित नहीं हों। भारत में सब कुछ ठीक चल रहा है। ‘ऑल इज वेल।’ (देश के एक सौ तीस करोड़ नागरिक ही अब अपने सीने पर हाथ रखकर इस ऑल इज़ वेल‘ की हक़ीक़त बता सकते हैं)। पर यहां हमारी बातचीत का सम्बंध किसी और विषय से है।
भारत के प्रधानमंत्री ने ह्यूस्टन की रैली में अमेरिकी राष्ट्रपति की उपस्थिति में जो एक और ज़बरदस्त बात कही वह यह थी कि 'अबकी बार ट्रम्प सरकार।’ रैली में उपस्थित लोगों ने ज़ोरदार ध्वनि के साथ मोदी के नारे का स्वागत किया था। मोदी और ट्रम्प दोनों ही ने तब नहीं सोचा होगा कि साल भर से कम वक्त में दोनों देशों की तस्वीरें इस तरह से बदल जाएंगी! अमेरिकियों के साथ-साथ ही भारतीय मूल के लाखों नागरिक अपने अब तक के सबसे बड़े धर्म संकट में हैं कि ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ होना चाहिए या नहीं!
बताने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय मूल के लोगों का फ़ैसला अमेरिकी चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में रहता है। ट्रम्प और उनके प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेट जो बायडन दोनों ही भारतीयों को रिझाने में लगे हुए हैं। बायडन ने तो भारतीय मूल की मां की अश्वेत संतान कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया है। उद्देश्य ट्रम्प से नाराज़ अश्वेत नागरिकों और भारतीय मूल के लोगों दोनों को ही अपने पक्ष में लेना है। मुद्दा यह है कि इस बार के अमेरिकी चुनावों में दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है और वहां भी परिस्थितियां लगभग वैसी ही हैं जैसी कि भारत में हैं।
इसे महज़ संयोग ही माना जा सकता है कि चुनावों के ठीक पहले सार्वजनिक हुए व्हाइट हाउस के टेप्स में पूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अत्यंत ज़हरीले अन्दाज़ में यह कहते हुए बताया गया है कि भारतीय महिलाएं दुनिया में सबसे अधिक अनाकर्षक हैं। भारतीय महिलाओं की सेक्स सम्बन्धी क्षमताओं पर भी उन्होंने घटिया टिप्पणी की है।
भारत के सपनों के अमेरिका को इस समय जिन कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है उसकी पूरी जानकारी हमें प्राप्त नहीं हो रही है। वहां अब संकट सिर्फ़ कोरोना संक्रमण के बढ़ते हुए आंकड़ों या मौतों तक सीमित नहीं रह गया है। वहां की सड़कों पर कई महीनों से हिंसा की घटनाएं हो रही हैं। सरकार के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त प्रदर्शन हो रहे हैं। पुलिस पर पक्षपातपूर्ण नस्लवादी हिंसा के आरोप लगाए जा रहे हैं (जैसा कि हमारे यहां भी होता है !)। आरोप हैं कि वहां नस्लवादी भेदभाव को सरकार का समर्थन प्राप्त है।
अमेरिकी समाज इस समय दो फाड़ नज़र आ रहा है। ख़राब आर्थिक स्थिति, बेरोज़गारी की समस्याएं अलग से हैं। चुनाव तय करने वाले हैं कि चमड़ी के रंग के आधार पर पनप रहे नस्लवाद और अल्पसंख्यकों (अश्वेतों) के समान अधिकारों को लेकर अमेरिकी समाज का क्या रुख़ है? ट्रम्प की पार्टी को सवर्णों (गोरी चमड़ी वालों) की समर्थक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि ट्रम्प की सत्ता में वापसी अमेरिका में लोकतंत्र को समाप्त कर देगी। यह भी आरोप है कि ट्रम्प अमेरिका को पुतिन के रूस की तरह चलना चाहते हैं। और यह भी कि पिछली बार की तरह ही रूस इस बार भी वहां हस्तक्षेप करेगा।
अमेरिका के चुनावी नतीजे न सिर्फ़ दुनिया में भविष्य के व्यापार की दिशा, सैन्य समझौते, लड़ाइयां और उनमें होने वाली मौतों, शांति वार्ताओं और समझौतों को तय करते हैं बल्कि उन हुकूमतों को भी प्रभावित करते हैं जहां किसी न किसी तरह का लोकतंत्र अभी क़ायम है। भारत की समस्याएं भी वे ही सब हैं जो अमेरिका में हैं। अमेरिकी सवर्णों के पक्षधर नस्लवाद को लेकर जो आरोप ट्रम्प के ख़िलाफ़ हैं वही हमारे यहां मुस्लिम अल्पसंख्यकों को लेकर भाजपा सरकार के विरुद्ध भी हैं। वहां जैसा ही विभाजन यहां भी है। यहां भी सरकार की मूल ताक़त बहुसंख्यक समुदाय ही है।
भारत के समझदार नागरिक कमला हैरिस की उम्मीदवारी को लेकर तो गर्व महसूस कर रहे हैं पर वहां के चुनाव परिणामों के भारत के लोकतंत्र पर पड़ सकने वाले प्रभावों से पूरी तरह बेख़बर हैं। ट्रम्प अगर दावा कर रहे हैं कि; 'मोदी मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं, भारतीय-अमेरिकी मेरे लिए वोट करेंगे’ तो हो सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति इस प्रतीक्षा में भी हों कि प्रधानमंत्री उनके पक्ष में ह्यूस्टन रैली जैसी कोई अपील एक बार फिर से कर देंगे।
ओपीनियन पोल्स में बताया जा रहा है कि जो बायडन राष्ट्रपति ट्रम्प से आगे हैं पर यह छलावा और भुलावा भी साबित हो सकता है। कोई चमत्कार ही ट्रम्प को हरा सकता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए अगर दो अवधि की संवैधानिक बाध्यता नहीं हो (जैसी कि स्थिति हमारे यहां है) तो ट्रम्प भी पुतिन की तरह ही राज करने की क्षमता रखते हैं। अमेरिकी सड़कों पर हिंसा जितनी बढ़ती जाएगी, मतदाता ट्रम्प की वापसी के पक्ष में बढ़ते जाएंगे।
शाहीन बाग का अनुभव हम याद कर सकते हैं कि किस तरह से धरने पर बैठी महिलाओं की लड़ाई से हमदर्दी रखने वाले मुस्लिम नेता बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे और यह आरोप भी लगे कि समूचा विरोध-प्रदर्शन सत्तारूढ़ दल द्वारा ही प्रायोजित था। यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिए कि सरकारें अपनी जनता को वास्तव में ही जागरूक देखना चाहती हैं। सरकारों की कल्पना के लोकतंत्रों की हिफ़ाज़त के लिए तो जनता को लम्बे समय तक मूर्ख बनाए रखना बेहद ज़रूरी है और यह काम वे उन्हीं तत्वों की मदद से कर सकती हैं जिनके ज़िम्मे नागरिकों को सही जानकारी देने का काम है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)