भारतवर्ष में इस समय इंद्रदेव कहीं तो अपने पूरे रौद्र रूप में विप्लव कर रहे हैं, तो कहीं अमृत बरसा रहे हैं। कृषकों ने आसमानी बादलों को उड़ीकना बंद कर दिया है और पृथ्वी के गर्भ से अंकुरित कोपलों को देखकर विभोर हो रहे हैं। पृथ्वी, उर्वरा का रूप धारण कर चुकी है।
चित्रकार की कल्पना अपनी श्रेष्ठता के साथ धरती पर अवतरित हो चुकी है। भक्त सावन की रिमझिम में शिवजी को रिझाने में मगन हैं। गृहिणियां पकोड़ों और नाना प्रकार के व्यंजन बनाने में व्यस्त हैं। प्रेमी युगल प्रकृति की अनुपम छटा में गुम हैं।
ग्रीष्म की तपन में पानी की आस में लम्बी उड़ान लगाते पंछी अब अपने घोंसलों और उसके आस पास ही क्रीड़ामग्न हैं जैसे उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर देवेंद्र ने प्यासी धरा को शीतल जल से तृप्त कर दिया हो। जलाशय झील बन चुके हैं और झीलें नदियां। ग्रीष्म काल में मासूम सी दिखने वाली नदियां अब कहीं इठला रहीं हैं तो कहीं उन्मादी होकर किनारे तोड़ चुकी हैं।
निष्प्राण हुए तृण तृण हरीतिमा को ओढ़ चुके हैं। तिनका तिनका झूम रहा है। वृक्ष के पत्ते, पानी की हर बूँद को मोती बनाकर धरती का अभिषेक कर रहे हैं। दरख्तों की शाखाएँ नई ऊंचाइयां ढूंढ रहीं हैं। हवाओं में मद है और वादियों में स्वर्ग प्रतिबिंबित है।
सृष्टि के इस नवश्रृंगारित रूप को देखकर कवियों के ह्रदय भी अनायास उर्वर हो जाते हैं। इस मनोहारी छटा को देखकर कभी रोमांचित होते हैं तो कभी विषादग्रस्त भी हो जाते हैं। भ्रमित हो जाते हैं कि ऐसे मौसम में विरह वेदना के गीत लिखें या मिलन की बेला को नए सुर दें। आसमानी बूंदों में प्यार को खोजें या दामिनी की गर्जना से हुई सिहरन को शब्द दें।
महाकवि तुलसीदास जी का कवि ह्रदय भी कुछ अलग नहीं हैं। एक जगह भगवान राम के श्री मुख से कहलवा देते हैं - "बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए। वहीं दूसरी जगह मर्यादापुरुषोत्तम अपने मानव रूप का ध्यान रखते हुए कहते हैं "घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा। " घन का अर्थ यहाँ काले मेघों से है।
महाकवि कलिदासजी तो श्याम वर्ण मेघों को देखकर उन्हें अपना सन्देश वाहक बनाने को आतुर हो जाते हैं। अपनी प्रेयसी की विरह अग्नि में जलता हुआ, महाकवि कालिदास के महाकाव्य मेघदूत का अर्धमृत यक्ष जब वर्षा ऋतु में पर्वतों पर उमड़ते काले मेघों के भव्य दृश्य को देखता है तो उसमे पुनः जीवन का संचार होता है और अपनी प्रिया तक सन्देश पहुँचाने के लिए मेघों से विनय करता है। यक्ष द्वारा अनुनय एवं अपनी प्रियतमा तक पहुँचने के मार्ग का अप्रतिम चित्रण मेघदूत और कालिदास दोनों को अमरत्व प्रदान करते हैं।
कबीर जैसे उपदेशक, जिनके हर दोहे में जीवन का मर्म छुपा होता है, वे भी वर्षा के इन बादलों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। विभोर होकर अपने दोहे में उनकी उपमा दे ही डालते हैं। देखिये -
"कबिरा बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आइ। अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ|| "
इन रसमयी कविताओं से हिंदी साहित्य भरा पड़ा है। वर्षा ऋतु में हरित हुई भौम का अनेक कवियों ने अलंकारिक चित्रण किया है। जीवनदायी ऋतु तो वर्षा ऋतु ही है जहाँ बीज को पानी मिलने से जीवन का सूत्रपात होता है। सृजन आरम्भ होता है। आने वाली ऋतुएं तो उस जीवन को पल्लवित करती हैं।
वर्षा का पानी, अपने जीवन का चक्र एक वर्ष में पूरा कर लेता है। वह भाप (बादल) के रूप में समुद्र से निकलकर, वर्षा की जल धारा के रूप में पुनः समुद्र में समा जाता है। यही प्रारब्ध है। वैसे ही संसार के अनेक जीव हैं जो अपने जीवन चक्र में मात्र एक ही बार इस ऋतु का आनंद प्राप्त करते हैं। धन्य है मानव जीवन जिसे प्रकृति के ऐसे अनेक अनोखे चक्रों को कई बार देखने का सौभाग्य प्राप्त है।