कांग्रेस और भाजपा के बीच इस समय जो कुछ भी चल रहा है उसे लेकर लोगों के मन में दो-तीन तरह के सवाल हैं : क्या कांग्रेस (या कांग्रेसियों) की मूल आत्मा अभी भी वही बची है जिसे जनता आज़ादी के पहले से समझती आ रही है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि पार्टी की मूल विचारधारा और प्रतिबद्धताओं को लेकर मतदाताओं को धोखे में रखा जा रहा है? दूसरी ओर, क्या भाजपा मीटर गेज पर चल रही अपनी परम्परागत विचारधारा से उतरकर कांग्रेसवाद की बुलेट ट्रेन पर इसलिए तो सवार नहीं हो रही है कि उसे अब सभी राज्यों में भी अपना साम्राज्य तुरंत चाहिए?
पहले सवाल के जवाब हाल की कुछ घटनाओं में तलाश किए जा सकते हैं। बहुत पीछे केरल के इतिहास में नहीं जाना हो तब भी सचिन पायलट-सिंधिया प्रसंग में किसी भी बड़े कांग्रेसी नेता ने ऐसा आरोप खुलकर नहीं लगाया है कि ये युवा नेता साम्प्रदायिकता फैलाने वाली हिंदुत्ववादी ताक़तों के हाथों में खेल रहे हैं। वे इसे केवल भाजपा नाम की एक पार्टी का षड्यंत्र बता रहे हैं। कांग्रेस जानती है कि महाराष्ट्र में वह किस पार्टी के साथ सत्ता में भागीदार है। सचिन और सिंधिया यदि बसपा-सपा के साथ ‘षड्यंत्र’ में लगे होते तो किसी को भी इतनी शिकायत नहीं होती। तो क्या सचिन और सिंधिया की आत्माएं मूलतः भाजपाई ही रही हैं और वे केवल दुर्घटनावश कांग्रेस में वक्त काट रहे थे? पर कांग्रेस में अकेले ये दो ही तो नहीं हैं!
सचिन के पार्टी से विद्रोह पर शशि थरूर की तात्कालिक प्रतिक्रिया में भाजपा या साम्प्रदायिक शक्तियों जैसे किसी शब्द का कोई उल्लेख नहीं था। सचिन की प्रतिभा की भरपूर तारीफ़ करते हुए थरूर ने भावना व्यक्त की कि ऐसी स्थिति नहीं आनी थी। थरूर के ट्वीट की ख़ास बात यह थी कि सचिन को पार्टी में ही रहते हुए खुद के और बाक़ी लोगों के सपनों के लिए उसे बेहतर और प्रभावशाली बनाने की कोशिशों के साथ जुड़ना चाहिए था। किसी ने थरूर से तब सवाल भी किया था कि क्या सचिन ने पार्टी छोड़ दी है?
याद यह भी किया जा सकता है कि यूपीए सरकार में मंत्री रहे जयराम रमेश ने एक समारोह में यह कहते हुए सबको हैरत में डाल दिया था कि : 'अब समय है कांग्रेस मोदी द्वारा अपने पिछले कार्यकाल में किए गए उन कार्यों को मान्य करे, जिनके कारण वे सत्ता में वापस आने में सफल हुए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मोदी ऐसी भाषा बोलते हैं, जो उन्हें जनता के साथ सीधे जोड़ती है। देखते ही देखते थरूर और अभिषेक मनु सिंघवी भी जयराम रमेश के साथ ऐसे जुड़ गए मानों सब्र का कोई बांध किसी कमज़ोर कोने से दरकने की प्रतीक्षा कर रहा था। बीच में सिंघवी को लेकर भी अफ़वाहें चल पड़ी थीं।
और एक प्रसंग यह भी कि कांग्रेस की तब तेज-तर्रार प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी के पार्टी छोड़ने का कारण सिंधिया द्वारा कथित तौर पर उन लोगों का बचाव करना था, जिनकी गतिविधियों से वे नाराज़ थीं। सवाल यह नहीं है कि उन्हें जाने दिया गया बल्कि यह है कि कांग्रेस छोड़कर वे उसी शिवसेना में गईं जिसकी कट्टर हिंदुत्ववादी नीतियों की वे स्वयं घोर विरोधी थीं। बाद में तो कांग्रेस ने भी शिव सेना से हाथ मिला लिया। पूछा तो यह भी जा सकता है कि सलमान ख़ुर्शीद सहित पार्टी के तमाम मुस्लिम चेहरे इस समय कहां हैं! क्या हिंदू वोटों की चिंता में उन्हें ‘पर्दे के पीछे’ कर दिया गया है?
अब बात भाजपा की : कांग्रेस में तो युवा नेताओं को समझाया जा रहा है कि उम्र के मान से उन्हें काफ़ी दिया जा चुका है। अब उन्हें थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। भाजपा इन युवाओं से कह रही है कि आप कांग्रेस के बुजुर्गों के लिए दरियां बिछाने और भीड़ जुटाने का काम अब बंद करो और गांधी ‘परिवार’ को छोड़कर संघ ‘परिवार’ में आ जाओ। हमारे यहां अब कोई बुजुर्ग सत्ता में नहीं है। 'तुम हमें समर्थन दो, हम तुम्हें सत्ता देंगे।' अब धैर्य दिखाने की ज़िम्मेदारी भाजपा के युवकों की है जैसा कि वे सिंधिया समर्थकों के सामने मध्य प्रदेश में दिखा रहे हैं।
क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा को जिस तरह से राजनीतिक धर्म परिवर्तन कराने या अपनी पार्टी के अंदर ही पार्टियां बनने देने की मज़बूरी झेलनी पड़ रही है, उसका बड़ा कारण उसके स्वयं के पास उस नेतृत्व का अभाव है जो कि कांग्रेस के पास अभी भी क़ायम है? तो क्या उसके देश भर में फैले अठारह करोड़ सदस्य उन राज्यों में सत्ता नहीं दिलवा सकते, जहां अभी कांग्रेस और अन्य दलों की सरकारें हैं? भाजपा के पास लोकसभा में 303 सीटें (56 प्रतिशत) हैं पर राज्यों की विधान सभाओं में केवल 35 प्रतिशत सीटों पर ही उसका क़ब्ज़ा है। भाजपा का सपना तो सभी राज्यों में भी जल्द से जल्द भगवा झंडा फहराने का है।
भाजपा की गंगा में एक तरफ़ तो कांग्रेसी विचारधारा की नहरों का पानी मिल रहा है और दूसरी तरफ़ मंत्रालयों का काम राज नेताओं की जगह सेवा-निवृत नौकरशाहों के हवाले हो रहा है। यानी पार्टी का पारम्परिक नेतृत्व अपनी ‘किसी भी समझौते से परे ‘वाली विचारधारा को जान-बूझकर डायल्यूट कर रहा है। तो फिर इसे लेकर उन साधु-संतों, पुराने मंदिर-मार्गियों और कट्टर राष्ट्रवादी तबके की क्या प्रतिक्रिया है, जिसने बाबरी विध्वंस के लिए संघर्ष किया था और धर्म-ध्वजाओं के साथ रथ यात्राएं निकालीं थीं?
कांग्रेस का तो समझ में आता है पर भाजपा और संघ का नेतृत्व अपनी वैचारिक ज़मीन पर उसकी नज़र में अब तक ग़ैर-राजनीतिक जात के माने जाने वाले लोगों का अतिक्रमण कैसे बर्दाश्त कर रहा है? निश्चित ही किसी सोची-समझी दीर्घकालिक नीति के तहत ही सब कुछ हो रहा होगा। कुल मिलाकर हालात यही हैं कि कांग्रेस में ‘तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता’ और भाजपा में ‘ऑन द स्पॉट पेंटिंग कॉम्पीटीशन’ चल रही है। जनता की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है कि वह कान लगाकर सुने या फिर आंखें फाड़कर देखे! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)