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रक्षाबंधन पर मार्मिक कहानी: बुआ की चिट्ठी

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सीमा व्यास

सीमा व्यास
आप समझ रहे होंगे कि यह कहानी मेरी बुआ की लिखी किसी चिट्ठी के बारे में होगी। पर नहीं, मेरी बुआ चिट्ठी कैसे लिखती ? वह तो निपट अनपढ़ थीं। स्कूल जाने की उम्र में तो उनकी शादी हो गई थी। शादी के बाद तो सब लड़कियां घर-गृहस्थी के काम में लग जाती हैं। बुआ भी लग गई होंगी। पढ़ाई तो पीछे ही छूट गई उनकी।
 
मुझे तो जिस बुआ की याद है वह नाटे कद की, गोरी चिट्ठी, गोल मटोल बुआ थीं। बुआ साल में एक बार, बस राखी पर मिलती थी और हम सब बच्चे सालभर बेसब्री से उनका इंतजार करते। कब राखी का त्यौहार आए और कब बुआ से मिलें।
 
राखी के कुछ दिनों पहले पापा या ताऊजी पोस्टकार्ड लिखकर बुआ को राखी का बुलावा भेजते और तभी से हम सभी बच्चे बेसब्री से बुआ के आने के दिन गिनने लगते। रोज स्कूल से आते ही बाहर चप्पल जूतों के ढेर में बुआ की चप्पलें ढूंढते। यहीं से पता चल जाता कि बुआ आई या नहीं।
 
हम कितना ही इंतजार क्यों न करें, बुआ राखी के एक या दो दिन पहले ही आती। तब तक हमारे सरकारी स्कूल में भी राखी की छुट्टियां लग चुकी होतीं। हमें पता था, धरमपुरी से आने वाली बुआ की बस दोपहर 11 बजे तक आती है। हम साढ़े दस बजे से ही नहा-धोकर, तैयार होकर अपने घर के बाहर सीढ़ियों पर बैठ जाते। वहीं से लंबी पसरी सड़क के कोने के मोड़ को एकटक ताकते रहते। जैसे ही दूर से कोई आकृति आती दिखती, हम सब खुशी से उछल पड़ते। बुआ आ गई, बुआ आ गई। पर जब आकृति पास आती तो पता लगता वो कोई और महिला है।
 
आखिर सीधे पल्ले की, हल्के रंग की साड़ी में दोनों हाथों में थैलियां लिए आती बुआ हमें दिख ही जाती। हम दौड़कर उन तक जाते और बुआ हममें से पहले पहुंचे दो बच्चों को हाथों में थैलियां पकड़े ही बाहों का घेरा बनाकर अपनी गुदगुदी पिंडलियों से सटा लेती। तब मुश्किल से उनके पैरों तक ही आते थे हम। दो थैलियों में से एक में बुआ के कपड़े होते और दूसरी में हमारे लिए खाने-पीने की चीजें होतीं। मूंगफली, सिंघाड़े, पेठे और सबसे ऊपर रखे होते केले। इतने कि उस दिन हमें गिनकर केले नहीं खाने होते थे, जिसे जितनी मरजी होती खा लेता।
 
बुआ के आने की खबर हम जंगल की आग की तरह पूरे मोहल्ले में फैला देते। अगले दिन से हममें आए बदलाव को पास पड़ोसी भी महसूस करते। पूछताछ शुरू हो जाती। आज तेरी चोटी किसने की ? ‘बुआ ने।‘ ‘ये चूड़ियां कहां से खरीदी ? ‘बुआ लाई है।‘ आज तो सब बच्चों ने काजल लगा लिया। ‘हमारी बुआ ने लगाया है।‘ दिनभर हर बात पर बुआ-बुआ की रट चलती। घर के छोटे-मोटे कामों की जिम्मेदारियों से हम पूरी तरह मुक्त हो जाते। हमारे हिस्से के सारे काम बुआ कर देती थीं। बुआ के कारण न कोई टोकता था न डांट-डपट होती थी। हमारे मजे ही मजे।
 
वैसे तो रोज हम सब अपने पंलगों या खाटों पर सोते। पर जब बुआ आती तो खाटें खड़ी हो जाती और नीचे लंबा चैड़ा बिस्तर बिछ जाता। हम सब बच्चे बुआ को बीच में सुलाते और हम गलबहियां डाले उनके आसपास पसर जाते। बुआ का कहानी-किस्सों का पिटारा खुल जाता। उनसे हम निमाड़ी की हंसते-हंसते पेट दुखाने वाली कहानियां सुनते हुए कब एक-एक कर उंघने लगते मालूम ही नहीं पड़ता। आखिर में बुआ हम सबको चादर ओढ़ाती और हमारे बीच ही सो जाती।
 
राखी के दिन सुबह पूजा करके ताऊजी, पापा, चाचा सब यज्ञोपवित (जनेऊ) बदलते। फिर बुआ टीका लगाकर सबको राखी बांधती। हम बच्चों के लिए एक से एक सुंदर राखी लाती। सबको राखी बांधने के बाद बुआ के साथ हम घर की सब चीजों को राखी बांधते। दरवाजे, पलंग, गाड़ी, अलमारी के साथ ही हमारे पालतू टॉमी को भी राखी बांधी जाती।
 
फिर मां और बुआ मिलकर ढेर सारे मुठिए के लड्डू बनाते, देसी घी और ढेर सारे सूखे मेवे डालकर। इतने कि हम खाते, मिलने वालों को खिलाते और जाते समय मां बुआ को भी डिब्बा भर के साथ बांध देती।
 
बुआ राखी के बाद 5-6 दिनों तक रहती। बुआ के जाने का दिन तय होता था, फूफाजी की चिट्ठी आने के बाद। बुआ का ससुराल धरमपुरी के पास एक गांव में था। थोड़ी सी बारिश हुई नहीं, कि नदी नाले पूर आ जाते और रास्ता बंद हो जाता था। राखी के बाद से ही बुआ जाने की तैयारी करके रखती। जल्दी नहाकर पीछे के आंगन की दो कीलों पर बांधकर साड़ी सुखा देती। फिर सूखते ही तह करके थैली में रख लेती। जैसे ही फूफाजी की चिट्ठी आती, बुआ उसी दिन बारह बजे की बस से वापस चली जाती।
 
फूफाजी चिट्ठी डाक से नहीं बल्कि बस के ड्रायवर शरीफ भैया के साथ भेजते थे, ताकि चिट्ठी जिस दिन मिले बुआ उसी दिन शाम तक उनके घर पहुंच जाए। राखी के बाद से ही हम सब बच्चे बस के समय पर बस स्टैंड जाकर सामने बने मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाते। बस के आते ही दौड़कर ड्रायवर शरीफ भैया के पास पहुंचते। पूछते बुआ की चिट्ठी लाए? उसे मना करने में थोड़ी निराशा होती, पर हम तो खुशी से झूमने लगते। चिट्ठी नहीं आई इसका मतलब बुआ एक दिन और हमारे साथ रह लेंगी। जिस दिन बुआ की चिट्ठी आती शरीफ भैया, हां चिट्ठी लाया हूं कह देते। पर चिट्ठी हमें नहीं देते। कहते -  तुम बच्चे हो। कहीं गिरा दी तो ? 
 
हम बच्चे ही नहीं घर के बड़े भी जानते थे, शरीफ भैया बुआ की चिट्ठी देने नहीं, लड्डू खाने हमारे घर आते थे। वे मां से कहते थे, ‘भाभी आपके हाथ के लड्डू खाने के लिए साल में दो बार राखी क्यों नहीं आती। मैं साल भर राखी का इंतजार करता हूं। कब राखी आए, कब जीजी आए और कब मैं इनकी चिट्ठी लाऊं।
 
मां खुश होकर शरीफ भैया को लड्डू खाने को देती। जाते समय 4-5 लड्डू थैली में बच्चों के लिए भी दे देती। शरीफ भैया बुआ का सामान उठाकर बस स्टैंड तक ले जाते। बुआ भरे मन से बिदा लेती। हम बच्चे उनकी साड़ी का पल्लू पकड़े, भारी कदमों से आगे वाली सीट पर खिड़की के पास बिठा देते। बस स्टार्ट होने से पहले बुआ हमारे हाथ में एक का सिक्का रखती। कपाल को चूमती और ढेर सारे आशीर्वाद देती और बुआ फिर साल भर बाद आने के लिए चली जाती।
 
सालों तक यह सिलसिला चलता रहा। एक बार राखी के बाद बहुत बारिश हुई। 5-6 दिनों तक पानी थमा ही नहीं। नदी नालों में बाढ़ आ गई। बुआ को उनके घर की चिंता होती रहती पर जाएं कैसे। सभी रास्ते बंद थे। हम बच्चे बहुत खुश थे। रोज सोचते कि पानी आए, ज्यादा झमाझम बरसे ताकि बुआ जा ही नहीं पाए।
 
8-10 दिनों बाद पानी थमा। नदी नालों का पानी उतरने लगा। बुआ बेसब्री से चिट्ठी का इंतजार करती थीं। रोज अपनी थैली तैयार कर शरीफ भैया का इंतजार करती। न आने पर उदास हो जाती। फिर पापा समझाते, ‘इधर पानी बंद हुआ है। हो सकता है, उधर बरस रहा हो। देर-सवेर चिट्ठी आ जाएगी। बुआ समझ जाती पर अनमनी-सी रहती। राखी के बाद इतने दिनों तक उनका पीहर में मन नहीं लग रहा था। एक दिन शरीफ भैया हमें घर की ओर आते दिखे। हम जोर-जोर से चिल्लाने लगे। ''बुआ की चिट्ठी आ गई, बुआ की चिट्ठी आ गई''। पर शरीफ भैया ने न जेब में हाथ डाला और न कोई चिट्ठी दी। बस बुआ को इतना ही कहा - जीजी जल्दी से तैयार हो जाओ। इतना कहकर पापा से बोले, ''भैया आप भी तैयारी कर लो। बाबूसाब (फूफाजी) को अटैक आया है। सबको जल्दी बुलाया है।'' उस दिन शरीफ भैया ने घर पर पानी भी नहीं पिया। हम बच्चों की जिम्मेदारी पड़ोसी को देकर मां, पापा, ताऊजी सभी बुआजी के साथ चले गए। अगले दिन शरीफ भैया ने आकर पड़ोस की चाची से कहा - तीन चार दिन बच्चों का ध्यान रख लेना। बाबूसाब नहीं रहे।
 
तीन चार दिन चाची हमें खाना खिलाती, स्कूल भेजती रही। फिर मां, पापा सब आ गए। कुछ दिन घर में बस बुआ की बातें चलती रही। किस तरह बच्चों को बड़ा करेगी। पढ़ी-लिखी होती तो कुछ काम कर पाती। अब सब मिलकर मदद करेंगे आदि-आदि। फिर सब सामान्य हो गया।
            
अगले साल राखी के 8-10 दिन पहले पापा बुआ को लेने गए। बुआ पापा के साथ नहीं आई। कहा राखी तक आ जाऊंगी। राखी के दिन हम इंतजार करते रहे। बुआ नहीं आई। शरीफ भैया आए। उनके हाथ में एक लिफाफा था। सब आगे के कमरे में आ गए। मैंने कहा ,‘भैया बुआ तो आई नहीं। उनके जाने की ये चिट्ठी क्यों ले आए।‘ ताऊजी ने मुझे चुप रहने का इशारा किया। फिर शरीफ भैया से पूछा जीजी क्यों नहीं आई ? शरीफ भैया ने कहा, ये राखी भेजी है। कहती है पीहर जाऊंगी तो अब बुलाने के लिए चिट्ठी कौन भेजेगा ?‘ चारों ओर सबके होते हुए सन्नाटा खिंच गया। उनके इतना कहते ही सबकी आंखें भर आई। मैं मुंह पर हाथ रख सुबकने लगी। अब कैसे करेंगे बुआ का इंतजार ?
 
उसके बाद हर राखी पर हम इंतजार करते। न बुआ आई न शरीफ भैया आए। हां, डाकिया एक लिफाफे में तीन चार राखियां दे जाता था। राखी के साथ कोई चिट्ठी नहीं होती। बुआ के बिना राखी सूनी-सूनी लगती। धीरे-धीरे हम बड़े हो गए। बुआ की यादें धुंधलाती गई। अब बड़े होने पर सोचती हूं, कि बुआ तो अनपढ़ थी, उन्होंने न कभी चिट्ठी लिखी न कभी पढ़ी। फिर भी फूफाजी की चिट्ठी से कितना मोह था उन्हें। सिर्फ अपने पति की चिट्ठी की खातिर उन्होंने पीहर की डगर ही छोड़ दी। कैसा अजीब था यह मोह!

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