ब्राह्मण कुल के ऋषि विश्रवा एवं राक्षस कुल की कैकसी का पुत्र रावण हमारे पौराणिक साहित्य का एक ऐसा अनोखा और विरोधाभासी किरदार है, जो अपने पांडित्य और पराक्रम से विद्वानों को अचंभित करता है वहीं अपने दुष्कर्मों से धर्मप्राण जनता को क्षुब्ध भी करता है। दो विरोधी गुणों वाली प्रजातियों के मिलन से पैदा हुए रावण में संकर नस्ल का होने के कारण दोनों कुलों के आनुवांशिक गुण नैसर्गिक रूप से अवतरित होने ही थे।
सामान्यतौर पर वंशज में दो कुलों से आने वाले गुणों की तीव्रता मंद हो जाती है किंतु आश्चर्य की बात यह रही कि दोनों कुलों के गुण रावण में अपनी पूरी आभा, तेज और भव्यता के साथ उजागर हुए थे। एक ही शरीर में महात्मा और दुरात्मा का ऐसा संगम हुआ, जैसे किसी घट में शीतल और तप्त जल को एकसाथ संग्रह किया गया हो।
भगवान शिव को चुनौती देकर उन्हें कैलाश पर्वत से हटाने का प्रयास करने वाले इस दानव को सबक सिखाने के लिए जब शिवजी ने मात्र अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबाया तो पर्वत के नीचे फंसी अपनी हाथ और पांव की उंगलियों के दर्द से रावण चीत्कार कर उठा।
महादेव की शक्ति को पहचानकर तुरंत उसका ब्राह्मणत्व जागा। हजारों वर्षों तक डमरूधर की आराधना की और शिव तांडव स्तोत्रम् जैसे अलौकिक मंत्र की रचना कर डाली। अंत में शिवजी को उसे अपना भक्त स्वीकार करना ही पड़ा। उसे अनेक वरदान दिए। ब्राह्मण की खोल में रावण को वरदान मिले और असुर के खोल में उसने उन वरदानों का दुरुपयोग किया।
इस प्रकार एक ही आवरण में दुराचार और सदाचार का अद्भुत संगम था रावण। असुर वृत्ति उसे अशोक वाटिका में माता सीता के पास लेकर जाती और ब्राह्मण वृत्ति उसे लौटने पर विवश कर देती। निश्चित ही उसके मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता होगा, कभी असुर तत्व भारी तो कभी ब्राह्मणत्व भारी। एक ही खाल या खोल के भीतर सिंह और हिरण का निवास एकसाथ। इसी असुर तत्व और ब्राह्मण तत्व के संयोग ने ही शायद रावणत्व को जन्म दिया।
सच तो यह है कि रावण ने ज्ञान तो अर्जित किया किंतु बोध नहीं। वह ज्ञान की पराकाष्ठा था किंतु विवेक में शून्य। त्रिलोकीनाथ सामने खड़े हैं जानते हुए भी उसके विवेक ने उन्हें पहचानने से मना कर दिया। स्वयं महापराक्रमी था किंतु अहंकार ने उसके विवेक पर पर्दा डाल रखा था इसलिए शत्रु-शक्ति को पहचानने में असमर्थ था। यही कारण है कि प्रसिद्ध कथा के अनुसार वानरराज बालि की कांख में दबा वह महीनों तक घिसटता रहा।
दुनिया को ज्योतिष सिखाने वाले, मेघनाद के जन्म के समय ग्रहों को लाभ की स्थिति में स्थित रहने का आदेश देने वाले रावण ने अपनी कुंडली में बैठे ग्रहों की चाल को समझना अपनी शान के विरुद्ध समझा। मानव योनि को तुच्छ समझने वाले दशानन ने जब ब्रह्माजी से अमरत्व का वरदान प्राप्त किया तो उसमें गंधर्वों, देवताओं, असुरों और किन्नरों से ही अजेय रहने का वरदान प्राप्त किया। मानव योनि को अपनी सूची में समाविष्ट ही नहीं किया। अंत में श्रीहरि के मानव अवतार के हाथों ही वह मारा गया।
अन्य गुणों की बात करें तो रावण संगीत विशारद और अत्यधिक कुशल वीणावादक था। सुरों का ज्ञाता था। किंतु जब वह अट्टहास करता था तो बादलों की गर्जन प्रतीत हो, ऐसा अट्टहास होता था। यही उसके चरित्र का विरोधाभास है। एक ही छाल के भीतर आम और बबूल का पेड़ एकसाथ या कहें कि एक ही वाद्य के भीतर वीणा और नगाड़े जुगलबंदी करते नजर आ रहे हों।
अंत में असुर रावण, श्रीहरि के हाथों पराजित हुआ। महापंडित रावण ने लक्ष्मणजी को राजधर्म और कूटनीति की शिक्षा देकर ब्रह्मलोक को महाप्रयाण किया। समुद्र में से एक अंजुरी खारे पानी और दूसरी मीठे की निकलती कभी सुना है भला? यही रावण है। रावण चिरंजीवी हो गया। उसका यश और अपयश दोनों चिरस्थायी हो गए। रावण, नायक और खलनायक दोनों रूपों में अमर हो गया।
इतिहास में रावण के बाद अनेक दुर्दांत खलनायक आए, जो रावण से भी कहीं अधिक दुष्कर्मी थे किंतु उन्हें रावण की तरह सर्वोच्च खलनायक की मान्यता नहीं मिली। प्रत्येक वर्ष रावण का स्मरण कर उसे दहन किया जाता है किंतु इतिहास के अन्य खलनायक तो मानव सभ्यता पर एक कलंक थे और वे कभी याद नहीं किए जाएंगे।
इस लेखक का मन करता है कि रावण के पांडित्यपूर्ण उज्ज्वल व्यक्तित्व को सादर नमन किया जाए, जो कि उसका अधिकारी है। हम आज जो दहन करते हैं वह उसका कलुषित रूप है जिसका हमें भी अपनी आत्मा में दहन करना चाहिए तभी दशहरा पर्व की सार्थकता है।