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उपराष्ट्रपति द्वारा महाभियोग नोटिस खारिज करना स्वाभाविक

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अवधेश कुमार

उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू द्वारा मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस खारिज किए जाने पर कांग्रेस ने जैसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और जो तेवर अपनाया है वह भयभीत करता है। महाभियोग मामले में कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व कर रहे कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति के फैसले को ही अवैध बताते हुए इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा कर दी है। सिब्बल कह रहे हैं कि वेंकैया नायडू के आदेश ने देश की न्याय प्रणाली को संकट में डाल दिया है। ये आदेश असंवैधानिक, बदनीयत भरा और जल्दबाजी में लिया गया है। बिना पूरी जांच के ही ये आदेश दे दिया गया है। उपराष्ट्रपति को प्रस्ताव खारिज करने का अधिकार ही नहीं है। इस तरह की प्रतिक्रिया दुर्भाग्यपूर्ण है और भयावह भी। यह सीधे-सीधे उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद की निष्पक्षता और क्षमता पर प्रश्न उठाना है। यह बात अलग है कि ज्यादातर संविधानविद् उपराष्ट्रपति के फैसले से सहमत हैं एव कांग्रेस के रवैये की आलोचना कर रहे हैं। कांग्रेस जो भी कहे लेकिन उपराष्ट्रपति ने नोटिस को खारिज करने के जो कारण गिनाए हैं निष्पक्षता से विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति उससे असहमत नहीं हो सकता। कांग्रेस जो भी कहे लेकिन उपराष्ट्रपति ने नोटिस को खारिज करने के जो कारण गिनाए हैं निष्पक्षता से विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति उससे असहमत नहीं हो सकता।

उपराष्ट्रपति द्वारा 10 पन्ने के खारिजनामा में साफ लिखा गया है कि चूंकि यह प्रस्ताव सीधे मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ था इसलिए उनसे कोई कानूनी राय नहीं ली जा सकती थी। सो मैंने कानून के विशेषज्ञों, संविधान विशेषज्ञों, राज्य सभा और लोकसभा के पूर्व महासचिवों, पूर्व विधि अधिकारियों, विधि आयोग के सदस्यों और मशहूर न्यायविदों से भी चर्चा की, पूर्व महाधिवक्ताओं, संविधान विशेषज्ञों और प्रमुख अखबारों के संपादकों के विचारों को भी पढ़ा, संविधान के प्रस्तावों और न्यायाधीशों को हटाने के मौजूदा प्रावधानों का भी अध्ययन किया, प्रस्ताव पर विस्तृत चर्चा की, उसके साथ लगे कागजातों का अध्ययन किया, हर आरोप पर निजी तौर पर विचार किया...। उसके बाद उपराष्ट्रपति कहते हैं कि पूरे विचार विमर्श के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

इन कागजातों के आधार पर मुख्य न्यायाधीश दुर्व्यवहार के दोषी नहीं करार दिए जा सकते हैं। क्यों? क्योंकि इन आरोपों के साथ सबूत नहीं हैं। उपराष्ट्रपति ने यह भी लिखा है कि उच्चतम न्यायालय के सर्वोच्च अधिकारी के खिलाफ इस तरह का फैसला लेने से पहले विपक्ष को इसपर बारीकी से सोचना चाहिए था। इस तरह के प्रस्ताव से आम लोगों का न्यायपालिका में भरोसा घटता है। उनका अगला तर्क भी आप अस्वीकार नहीं कर सकते। वास्तव में इस तरह के प्रस्ताव के लिए पूरी संसदीय परंपरा है। राज्य सभा के सदस्यों के हैंडबुक के पैराग्राफ 2.2 इस तरह के नोटिस को पब्लिक करने से रोकता है। इस मामले में उपराष्ट्रपति को यह नोटिस सौंपते ही 20 अप्रैल को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर सारी बातों को सार्वजनिक कर दिया। यह संसद की परंपरा के खिलाफ था।

उपराष्ट्रपति कहते हैं कि इस कारण मुझे तुरंत फैसला लेना पड़ा ताकि इस मामले में अटकलों पर रोक लगे। उपराष्ट्रपति का यह कहना बिल्कुल सही है कि महाभियोग के नोटिस में लगाए गए आरोपों में निश्चयात्मकता का अभाव था। ऐसा हो सकता है, शायद, ऐसा लगता है आदि शब्दों के आधार पर कोई सबूत नहीं माना जा सकता है। यानी प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ कोई सत्यापन योग्य आरोप नहीं है। दूसरे, आरोपों में दुर्व्यवहार या अक्षमता को लेकर कोई भी विश्वसनीय और सत्यापन योग्य चीजें नहीं बताई गई हैं।

संविधान कहता है कि महाभियोग कदाचार, दुर्व्यवहार या फिर अक्षमता साबित होने के आधार पर ही चलाया जा सकता है। विपक्षी दलों ने पांच पन्नों के अपने प्रस्ताव में पांच आरोप लगाए हैं। पहला, प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट मामले में उड़ीसा उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश और एक दलाल के बीच बातचीत के जो टेप है वे सीबीआई को मिले थे। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका की जांच की जरूरत है। दूसरा, एक मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के खिलाफ सीबीआई के पास सबूत थे, लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने सीबीआई को मामला दर्ज करने की मंजूरी नहीं दी। तीसरा, न्यायमूर्ति चेलमेश्वर जब 9 नवंबर 2017 को एक याचिका की सुनवाई करने को राजी हुए, तब अचानक उनके पास उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्री से पीछे की तिथि का एक नोट भेजा गया और कहा गया कि आप इस याचिका पर सुनवाई नहीं करें। चौथा, जब मुख्य न्यायाधीश वकालत कर रहे थे तब उन्होंने झूठा हलफनामा दायर कर जमीन हासिल की थी।

अतिरिक्त जिलाधिकारी ने हलफनामे को झूठा करार दिया था। 1985 में जमीन आवंटन रद्द हुआ, लेकिन 2012 में उन्होंने जमीन तब वापस की जब वे उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनाए गए। पांचवां, मुख्य न्यायाधीश ने संवेदनशील मुकदमों को मनमाने तरीके से कुछ विशेष पीठों में भेजा। जब आप विस्तार से पढ़ेगे तो साफ दिखेगा कि तीन मुख्य आरोप अगर-मगर पर आधारित हैं और उनकी भाषा ऐसा हो सकता है, ऐसा हुआ होगा या फिर ऐसा लगता है की है। 1968 के जज इन्क्वायरी कानून के अनुसार महाभियोग लाने के लिए आरोप निश्चित होने चाहिए ताकि उनके आधार पर जांच कराई जा सके। पहले आरोप में कहा गया है कि प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट के मामले में मुख्य न्यायाधीश भी फैसला पक्ष में देने की साजिश में शामिल रहे हैं।

दूसरा आरोप कहता है कि एक मामला दो न्यायाधीशों की पीठ के पास सुनवाई के लिए लंबित था, उसके बाद भी मुख्य न्यायाधीश ने मामले को संवैधानिक पीठ को स्थानांतरित कर दिया। तीसरे में कहा गया है कि ऐसा लगता है कि उन्होंने 6 नवंबर, 2017 की तारीख से जारी एक प्रशासनिक आदेश की तारीख बदली थी। चौथा मामला करीब 4 दशक पुराना है। पांचवां आरोप 12 जनवरी को 4 न्यायाधीशांे की पत्रकार वार्ता से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि मुख्य न्यायाधीश ने अपनी प्रशासनिक अथॉरिटी का बेजा इस्तेमाल करते हुए मनमाने तरीके से केसों का आवंटन किया। रोस्टर यानी कौन सा मामला किस न्यायपीठ को भेजना है इसके बारे में उपराष्ट्रपति का यह कहना सही है कि यह मुख्य न्यायाधीश का अधिकार है और वह मास्टर ऑफ रोस्टर होते हैं। यह न्यायालय का अंदरूनी मामला है और न्यायालय इसपर खुद ही फैसला कर सकती है। उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ही इस बारे में निर्णय दे चुका है।

साफ है कि ये सारे संदेह और शंका वाले आरोप है। इस आधार पर  महाभियोग लाया ही नहीं जा सकता। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को इसका आभास नहीं था लेकिन उन्होंने अपनी राजनीति को ध्यान में रखते हुए एक रणनीति के तहत महाभियोग का प्रस्ताव दिया। तो रणनीति क्या है? भाजपा पर कांग्रेस और विपक्षी दल सवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने का आरोप लगाते हैं। ये अब यह कह सकेंगे कि हमने संस्थाओं को बचाने के लिए ऐसा किया। यह मुख्य न्यायाधीश पर मनोवैज्ञानिक दबाव लाने की रणनीति भी हो सकती है। उदाहरण के लिए मुख्य न्यायाधीश अयोध्या मामले की सुनवाई करने वाले पीठ में है। कपिल सिब्बल न्यायालय में ही यह तर्क दे चुके हैं कि इसकी सुनवाई 2019 के बाद की जाए। इस पर न्यायालय से उनकी तीखी बहस भी हुई थी। तो क्या ये चाहते हैंं कि दबाव में आकर सुनवाई की गति धीमी कर दें या फैसला ऐसा दें जो किसी एक पक्ष में नहीं हो?

न्यायाधीश बीएच लोया मामले में स्वतंत्र जांच कराने की याचिकाओं को ठुकराने के बाद कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और उसके बाद महभियोग के लिए विपक्षी दलों की बैठक बुलाई गई किंतु आरोपों में उसका जिक्र ही नहीं है। राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद तथा कपिल सिब्ब्ल ने उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू से मुलाकात के बाद पत्रकार वार्ता की। कपिल सिब्बल ने कहा कि देश जरूर जानना चाहेगा कि हमने क्यों ये कदम उठाया? हम भी नहीं चाहते थे कि ये दिन देखना पड़े। न्यायपालिका से सर्वाेच्च स्तर की ईमानदारी की अपेक्षा होती है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के बीच अंदरूनी कलह है। कपिल सिब्बल ने चार न्यायाधीशों की पत्रकार वार्ता की चर्चा करते हुए प्रश्न उठाया था कि क्या देश को कुछ नहीं करना चाहिए? विचित्र तर्क है।

क्या इस तर्क के आधार पर महाभियोग का मामला बनता है? साफ है कि कांग्रेस जबरदस्ती अपने कदम को सही साबित करना चाहती है। चार न्यायाधीशों ने भी मुख्य न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार या अक्षम होने के आरोप नहीं लगाए। पत्रकार वार्ता में शामिल एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति चेलामेश्वर से बाद में एक कार्यक्रम में महाभियोग पर पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हमने महाभियोग की बात की ही नहीं। हमने तो केवल व्यवस्था ठीक करने की बात की थी।

कांग्रेस सहित विपक्षी दलों की महाभियोग की जिद न केवल अतार्किक है बल्कि भविष्य के लिए खतरनाक परंपरा की नींव डालने वाला है। आज एक पार्टी शासन में है कल दूसरी आ सकती है। संवैधानिक संस्थाओं को बने रहना है। उनकी गरिमा, साख और विश्वसनीयता को बट्टा लग गया तो देश में कुछ नहीं बचेगा। कांग्रेस के इस दुखद रवैये का अर्थ यही है कि अध्यक्ष राहुल गांधी के सलाहकारों में ऐसे लोगों का अभाव है जो संयत रुख अपनाने के पक्ष में खड़े हो सकें।

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