26 जनवरी का उत्साह चरम पर है। छोटी-बड़ी परेड, राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत, झंडा वंदन, भाषणबाजी, देशभक्ति पूर्ण गीत, नृत्य के साथ 72 वां गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। जीवन पूर्ववत् चल रहा था और अब भी चलेगा। लेकिन ये सब तो बाहरी तामझाम हैं, भीतर से हम गणतंत्र को कितना जी पाए हैं, यह तौलना महत्वपूर्ण है।
गणतंत्र का अर्थ है- जनता द्वारा नियंत्रित शासन। निश्चित रूप से राजनीतिक रूप से हम गणतंत्र को जी रहे हैं- जनता से, जनता के लिए, जनता के द्वारा। लेकिन सामाजिक तौर पर गणतंत्र को जीने में अब भी काफी पिछड़ापन है। बात थोड़ी गहरी है, इसे जरा ध्यान से समझिए।
गणतंत्र अर्थात् जनता जिस तंत्र में सर्वेसर्वा मानी गई हो। अब जहां जनता की भूमिका को सर्वोपरि रखा गया हो, वहां की जनता को शासन सुचारू रूप से चलाने के लिए सुशिक्षित, समान अधिकारसंपन्न (स्त्री पुरुष के संदर्भ में),विवेकशील और अधिकारों व कर्तव्यों के ज्ञान से परिपूर्ण होना चाहिए।
यदि इस कसौटी पर हम स्वयं को कसकर देखें, तो पाएंगे कि परिदृश्य उतना बेहतर नहीं है, जितना एक गणतंत्र में होना चाहिए। भारतवर्ष के कई राज्यों में आज भी अशिक्षा एक प्रमुख समस्या है। विशेषकर गांवों में इस विषय में जनजागरण की बहुत आवश्यकता है। जब तक हमारे राष्ट्र का प्रत्येक घर सुशिक्षित ना होगा, तब तक कैसे वह चुनाव में अपने लिए सही नेता का चयन कर पाएगा?
हम सभी जानते हैं कि गांवों में तो आज भी घर का पुरुष मुखिया जिसे कह दे, उसे ही शेष सभी सदस्य (विशेषकर महिलाएं) वोट दे देते हैं। अशिक्षा के कारण ना उनकी स्वतंत्र सोच है और ना ही अपने नितांत मौलिक अधिकार का उपयोग वे कर पाते हैं।
तो ऐसे में गणतंत्र कहां सार्थक हुआ? यह दिन मनाना तो तब सार्थक होगा, जब संपूर्ण राष्ट्र शिक्षा के आलोक से जगमगा उठेगा।
इसके लिए सरकारी प्रयास तो चल ही रहे हैं, लेकिन हम शिक्षित लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी काफी कुछ कर सकते हैं। स्वयं और परिवार को देने के अतिरिक्त जो समय हम अपने मोबाइल या टीवी को देते हैं, उसका उपयोग किसी निर्धन के बच्चे को पढ़ाने में कर लें, तो न सिर्फ उसका जीवन निखरेगा बल्कि वह शिक्षित होकर अपने जैसे अन्य कई लोगों का जीवन संवार देगा।
जिस गर्व से हमने गणतंत्र दिवस पर सीना तान कर राष्ट्रभक्तिपूर्ण गीत गाए हैं, भाषण दिए हैं, तब अधिक गर्व महसूस कर पाएंगे, जब भारत को सच्चे अर्थों में गणतंत्र बनाने में अल्प ही सही लेकिन अपना योगदान अवश्य दे पाएंगे।
अब बात करें समान अधिकारसंपन्नता की।
हमारे समाज में महिलाएं लाख शिक्षा, नौकरी, उच्च पद पा लें, लेकिन व्यवहार अधिकांशतः उनसे दोयम दर्जे का ही होता है। खेद का विषय तो यह है कि ऐसे व्यवहार की शुरुआत घर से ही हो जाती है, जहां उन्हें भाई की तुलना में कम अधिकार व स्वतंत्रता दिए जाते हैं। 'तुम्हें ससुराल जाना है' का रूढ़िवादी व खोखला तर्क उनमें आगामी जीवन के लिए भय और हर जगह स्वयं को पीछे करके रखने की भावना बलवती कर देता है। लड़की भी तो लड़के के ही समान इंसान है।
ईश्वर ने उसे भी शारीरिक व मानसिक तौर पर समान रूप से सक्षम बनाया है। फिर उसे ससुराल के नाम पर बाल्यावस्था से ही लड़के से पृथक ढंग से तैयार करना सरासर अन्याय है।
मेरे विचार से तो उसे बेहतर व लड़के के समान शिक्षित बनाते हुए ससुराल अर्थात् 'दूसरा घर' के सकारात्मक विचार से निरंतर उत्साहित बनाना चाहिए और ससुराल पक्ष को भी बहू के प्रति बेटी वाला नज़रिया रखते हुए तत्संबंधी स्नेह व अपनत्व से भरा व्यवहार करना चाहिए।
लड़की चूंकि भविष्य की मां है, इसलिए संतानों की शिक्षा व सत्संस्कार का आधा भार उस पर भी है। यदि मां सुशिक्षित है तो वह स्वयं समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझकर तत्संबंधी निर्णयों में उचित भूमिका का निर्वाह करेगी।
इसके अतिरिक्त शिक्षित व नौकरीपेशा महिलाओं के प्रति जिस संकीर्ण सोच के चलते उन्हें घरेलू जिम्मेदारियों में जरा भी छूट न दी जाकर उनसे जानवर की भांति काम लिया जाता है अथवा उनकी पेशागत सफलताओं को प्रोत्साहन न दिया जाकर हतोत्साहन या उपेक्षा दी जाती है या फिर नौकरी अथवा घर में एक त्रुटि भी माफ न की जाकर उन्हें अपराधी के कटघरे में खड़ा कर ताने, उलाहने या दंड से नवाज़ा जाता है,यह सब बंद होना चाहिए।
गणतंत्र के गण अर्थात् जनता में वह भी बराबर की भागीदार हैं। उनके भी पुरुषों के समान अधिकार व कर्तव्य हैं। यदि उन्हें उनकी भूमिका के समुचित निर्वाह का अवसर न दिया गया तो अपना ही राष्ट्र कमजोर होगा क्योंकि तब देश का पचास प्रतिशत ही सक्रिय और शेष पचास निष्क्रिय होगा। बहरहाल, समान अधिकारसंपन्नता भी गणतंत्र को उसके उचित मायने प्रदान करने में सहायक है।
यह भी तय है कि सुशिक्षित व समान भागीदारी वाले राष्ट्र की जनता विवेकशील भी होगी और अपने अधिकारों व कर्तव्यों दोनों के प्रति जागरूक भी। तब निश्चित ही वह राष्ट्र संचालन के लिए उचित नेता का चुनाव करेगी और जब नेता उचित होगा तो देश भी सही दिशा की ओर अग्रसर होगा।
ऐसी स्थिति में गणतंत्र सही अर्थों में साकार होगा और गणतंत्र दिवस मनाना सार्थक होगा। इसलिए निवेदन यही कि बाह्य रूप से नहीं बल्कि आंतरिक रूप से गणतंत्र के अर्थ व महत्व को जज़्ब कीजिए और स्वयं से आरंभ कर इसका शेष समाज में उचित रूप से क्रियान्वयन संभव बनाइए। स्मरण रखिए, अपने तंत्र को सही अर्थों में सफल बनाना आपका कर्तव्य भी है और अधिकार भी।