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स्कूल का दूर होना बढ़ा रहा था स्कूल से दूरी, पर अब नहीं...

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स्वरांगी साने

घर से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर स्कूल होना बड़े शहरों के लिए बड़ी बात नहीं है, लेकिन कस्बों, खासकर गांवों में यह दूरी बहुत मायने रखती है। इतने दूर स्कूल का होना, स्कूल से या कहें ज्ञान से दूरी तब और बढ़ा देता है, जब स्कूल पैदल जाना पड़ता हो। 
काश! कि उनके पास साइकलें होतीं, उनके समय और श्रम की बचत हो जाती और शिक्षा का फासला भी कम हो जाता। सुनंदन लेले के जेहन में यह 'काश!' उपजा और उन्होंने अपने 12 दोस्तों की मदद से उसे 'हकीकत' में तब्दील कर दिया।
 
बात मार्च 2016 की है। राजगढ़ किले की तलहटी में एक स्कूल है। क्रीड़ा पत्रकार होने के नाते सुनंदन किसी कार्यक्रम के सिलसिले में उस स्कूल गए, जहां तकरीबन 500 बच्चे पढ़ते हैं। चूंकि उस इलाके का वह एकमात्र स्कूल है इसलिए आसपास के गांवों के बच्चे लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर वहां पढ़ने आते हैं। 
 
घर लौटकर उन्होंने अपनी सोसायटी की पार्किंग में देखा कि कई साइकलें महीनों या शायद सालों से धूल खाती पड़ी थीं। तभी उनके मन में विचार आया कि यदि सोसायटी के लोग अपनी इन बेकार पड़ी साइकलों को दान कर दें तो उन बच्चों का रोज इतने दूर पैदल चलकर आना बच सकता है। उनका एक स्वयंसेवी समूह तैयार हुआ 'साइकल-रिसाइकल' नाम से।
 
जिस स्प्रिंगफील्ड हाउसिंग सोसायटी में यह समूह बना उसके एक सदस्य मिलिंद दातार ने बताया कि सोसायटी के नोटिस बोर्ड पर सूचना चस्पा की गई, पर जैसे लोगों ने उसे पढ़ा ही न हो। सोसायटी में 4 इमारतें हैं जिनमें 148 फ्लैट्स हैं। एक रविवार की सुबह 9.30 से 11.30 बजे तक समूह के साथी घर-घर गए, लोगों को अपनी बात समझाई और गुजारिश की कि लोग बेकार पड़ी साइकलें दान करें।
 
उन्होंने तय किया था कि साइकलों को भंगार की तरह ले जाकर नहीं देंगे। उनकी मरम्मत, ऑइलिंग, पहियों-ब्रेक्स की जांच आदि की जाएगी जिसमें धन लगना था। साइकल की मरम्मत के लिए 700 रुपए औसत लिए गए, क्योंकि कुछ में केवल सर्विसिंग की मांग थी जिसके 300 रुपए लगते और यदि टायर-ट्यूब बदलना पड़ता तो 1,100 रुपए तक खर्च होते। जिन घर-परिवारों के पास साइकलें नहीं थीं उन्होंने कुछ राशि दी। इस तरह 2 घंटे में 40 साइकलें और 50,000 रुपए इकट्ठा हो गए।
 
पुणे की वेल्हे तहसील के विंजार गांव में स्थित स्वामी विवेकानंद स्कूल के बच्चों को 11 मार्च को साइकलें दी गईं। केवल 40 साइकलें थीं लेकिन जिन्हें मिलीं उनके चेहरे की मुस्कान अनमोल थी। उसके बाद के रविवार उसी तहसील के दो अलग गांवों 'साखर' और 'मिली' के दो स्कूलों में 82 साइकलें पहुंच गई थीं। 
 
मिलिंद कहते हैं कि हम 35 से 40 आयु वर्ग के कामकाजी युवा हैं। हमने तय किया कि शनिवार-रविवार मॉल जाने या मूवी देखने की बजाए अपना समय समाज के इस काम को देना है। तब से हर रविवार यह काम किया जा रहा है।
 
पुणे के वनाज, कांचन वन, आकाशदीप, धायरी वुडलैंड, सहकार नगर आदि कई क्षेत्रों से इस तरह साइकलों को इकट्ठा किया जा रहा है। हम एक गाड़ी तय करते हैं, उसका मार्ग तय करते हैं और एक इलाके की आसपास की सोसायटी के लोग यदि साइकलें देने को तैयार हों तो निर्धारित दिन उस गाड़ी से जाकर साइकलें ले आते हैं। 
 
जिस सोसायटी के लोग जुड़ना चाहे वे जुड़ सकते हैं। हमारा एक कोर ग्रुप है और एक अन्य खुला ग्रुप। हमने अपनी सोसायटी की पार्किंग में इस तरह की 60 साइकलों को रखने की अनुमति ली है। एक बार 40 का सेट हुआ। उनकी मरम्मत की जाती है, एक गाड़ी तय होती है और एक स्कूल में जाकर उनका वितरण किया जाता है।
 
इसी तरह का काम विरार के दूरस्थ क्षेत्रों के बच्चों के लिए बर्फीस एक्शन ग्रुप भी कर रहा है। जिन्हें 10 किमी तक स्कूल के लिए पैदल आना-जाना पड़ता है, ऐसे बच्चों को साइकलें दी जाती है। परेल, कांदीवली, अंधेरी में इस एनजीओ के लोग साइकल इकट्ठा करते हैं और उन्हें दान करते हैं।


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