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साहिर लुधियानवी : हम इंतजार करेंगे तेरा.... कयामत तक..। Sahir Ludhiyanvi

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स्मृति आदित्य

साहिर अर्थात जादूगर। शब्‍दों के जादूगर ही थे साहिर। उनकी लेखनी से झरे गीतों का जादू आज भी सुधी श्रोताओं को मदहोश करने के लिए काफी है। सीधे-सादे बोलों में छुपी साहिर फिलासफी झकझोर देती है। गम के नगमे साहिर ने इतनी शिद्दत से रचे हैं मानो अश्‍कों को स्‍याही बनाया हो। रोमांटिक गीतों में उनकी मधुर कल्‍पना इतनी गहरी और मखमली हो जाती है, सुनकर मन के पंछी बेकाबू हो जाते हैं। 
 
पांव छू लेने दो फूलों 
को इनायत होगी...! 
 
साहिर ने रचा 'औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया' तो रूह कांप उठती है और साहिर की लेखनी के प्रति हम सहज ही नतमस्‍तक हो जाते हैं। 
 
गुलजार ने कहा था- साहिर वो शख्सियत हैं, जिसे फिल्‍मों में लाया नहीं गया, वो खुद भी नहीं आए, बल्कि फिल्‍म जगत ने उन्‍हें ससम्‍मान स्‍वीकार किया है। 
 
लुधियाना (पंजाब) में जन्‍मे साहिर के पिता की कई पत्नियां थीं, लेकिन पुत्र सिर्फ एक था। साहिर का असली नाम अब्‍दुल हायी था। जब वे मात्र आठ माह के थे तब उनके पिता ने उनकी मां को त्‍याग दिया। पिता बालक अब्‍दुल को अपने पास रखना चाहते थे, सिर्फ इस बात के आधार पर अब्‍दुल का संरक्षण मां को मिला कि अय्‍याश पिता बच्‍चे को मार सकता है। बचपन से ही भावुक और विद्रोही तेवर के संगम थे साहिर। जाहिर है कि किसी न किसी कलागत विधा से जुड़ना ही था। लुधियाना के गवर्नमेंट कॉलेज में अपनी कविताओं से छा गए और अब्‍दुल से साहिर हो गए। 
 
कम उम्र और कवि हृदय होना प्‍यार करने के लिए आदर्श स्थिति होती है। सा‍हिर जिसके प्‍यार में पड़े उसने उन्‍हें ठुकरा दिया। खिन्‍न साहिर लाहौर चले गए। यहां कई उर्दू पत्रिकाओं में का लेखन-संपादन किया। 
 
1945 में पहली बार उपलब्धि कविता संग्रह 'तल्खियां' के रूप में मिली बंटवारे के बाद साहिर को लाहौर नहीं सुहाया और वे पहले दिल्‍ली और फिर मुंबई आकर बस गए। लाहौर के मित्र प्रेम धवन ने बड़ा सहारा दिया। चार माह तक उन्‍हीं के साथ रहे। प्रेम धवन जिन निर्देशकों को जानते थे उन तक साहिर की प्रकाशित कविताएं भिजवाईं। एक कार्यक्रम में साहिर की मुलाकात उस समय के मशहूर शायर अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्‍तानपुरी, कैफी आजमी, जांनिसार अख्‍तर, इस्‍मत चुगताई से हुई। 
 
पहला ब्रेक अनिल विश्‍वास ने फिल्‍म 'दो राह' में दिया। फिल्‍म देरी से तैयार हुई। इस बीच उनकी कविताओं के चर्चे फैल चुके थे। दो फिल्‍में और मिलीं। अप्रैल 1951 में 'बाजी' उनकी पहली प्रदर्शित फिल्‍म थी। 
 
अपनी पहली मोहब्‍बत कभी भूल नहीं सके साहिर ने उनके नाम गीत लिखा- 
 
मेरे ख्‍वाबों के झरोखों को सजाने वाली
तेरे ख्‍वाबों में कहीं मेरा गुजर है कि नहीं। 
 
फिल्‍म 'सोने की चिड़िया' का यह गीत साहिर के पसंदीदा नगमों में शा‍मिल था। अपने प्‍यार को पा न सके, तो आजीवन अविवाहित रहे। 25 अक्‍टूबर 1980 को हार्टअटैक में साहिर चल बसे। 
 
उन्‍हीं का शेर है- 
'अश्‍कों में जो पाया है, वो गीतों में दि‍या है 
इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है।'  
 
 
साहिर : व्‍यक्तिगत  
नाम : अब्‍दुल हायी 
लोकप्रिय नाम : साहिर लुधियानवी 
जन्‍म : 8 मार्च 1921 
शिक्षा : गवर्नमेंट कॉलेज, लुधियाना 
लेखन : तल्खियां (काव्‍य संग्रह), गाता जाए बंजारा (फिल्‍मी गीतों का संग्रह)  
संपादन : सबेरा/ शाहकार/ अदब-ए-लतीफ/ (उर्दू पत्रिकाएं) 
पहली उपलब्धि : 1945/ 'तल्खियां प्रकाशित 
पहला ब्रेक : दो राह (फिल्‍म)
पहली प्रदर्शित फिल्‍म : बाजी (अप्रैल 1951) 
पहला सुपर हिट गीत : तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर
वैवाहिक स्थिति : अविवाहित 
निधन : 25 अक्‍टूबर 1980  
 
 
लोकप्रिय गीत
* ठंडी हवाएं लहरा के आए (बाजी)
* ये रात ये चांदनी (जाल)
* जाएं तो जाएं कहां (टैक्‍सी ड्रायवर)
* जीवन के सफर में राही (मुनीमजी) 
* मांग के साथ तुम्‍हारा (नया दौर)
* जाने क्या तूने कही (प्‍यासा)
* प्‍यार पर बस तो नहीं (सोने की चिड़िया)
* तुम मुझे भूल भी जाओ तो (दीदी)
* मैंने शायद तुम्‍हें पहले भी (बरसात की रात)
* चलो एक बार फिर से (गुमराह) 
* अभी ना जाओ छोड़कर (हम दोनों)
* वो सुबह कभी तो आएगी (फिर सुबह होगी) 
* हम इंतजार करेंगे तेरा (बहू बेगम)

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