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समाजवादी पार्टी की कलह पारिवारिक या राजनीतिक

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डॉ. नीलम महेंद्र

उप्र की राजनीति इन दिनों पूरे देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। सत्ता की कुर्सी पर अखिलेश हैं लेकिन चाबी मुलायम सिंह के पास है। यह सत्ता की लड़ाई तो है ही पर विचारों की लड़ाई भी है। जहां एक तरफ अखिलेश को अपने काम और विकास पर पूरा भरोसा है, उप्र की जनता का सामना वे इसी आधार पर करना चाह रहे हैं वहीं दूसरी तरफ मुलायम सिंह अपने चुनावी अंक गणित एवं बाहुबल पर यकीन रखते हैं। वे जानते हैं इस देश में चुनाव कैसे जीते जाते हैं, केवल काम और विकास के आधार पर चुनाव जीतना तो उनके परिकल्पना से परे है। 
अखिलेश के काम से ज्यादा भरोसा उन्हें शिवपाल के जातीय गणित और मुख्‍तार अंसारी के बाहुबल पर है। जबकि अखिलेश अपने द्वारा चार साल तक प्रदेश में किए गए कार्यों को जनता के सामने रखकर वोटों की अपेक्षा कर  रहे हैं। वे कह भी चुके हैं कि इम्तिहान मेरा है टिकट बांटने का अधिकार मुझे ही मिलना चाहिए जो कि काफी हद तक सही भी है, लेकिन नेताजी का कहना है कि काम करने के लिए सत्ता में होना आवश्यक होता है, लेकिन सत्ता में रहने के लिए काम करना आवश्यक नहीं होता उसके लिए तो बिसात बिछानी पड़ती है शह और मात की। 
 
लेकिन एक पढ़ा-लिखा उदारवादी सोच का नौजवान जो उप्र के लोगों को पढ़ा-लिखा रहा है, उन्हें लैपटॉप दे रहा है, एक्सप्रेस हाईवे बना रहा है, सड़कें सुधार रहा है, अस्पताल और कॉलेज खुलवा रहा है, कानून व्यवस्था से लेकर प्रदेश के मूलभूत ढांचे को सुधारने में चार साल से लगा है, युद्ध स्तर पर काम करके मेट्रो बनवा रहा है, उसे बाहुबल का गणित कैसे समझ आ सकता है? दूसरी तरफ जिसने अपने जीवन का हर चुनाव केवल जाति, अल्पसंख्यक एवं दलितों के वोटों के प्रतिशत के आधार पर जीते हों, उनसे इस सोच से इससे ऊपर उठने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
 
दरअसल इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन चार सालों में अखिलेश ने उप्र में काम किया है। वहां का युवा वर्ग एवं मध्यम वर्ग अखिलेश के साथ है और हाल के घटनाक्रमों से प्रदेश के लोगों के मन में अखिलेश के लिए सहानुभूति भी है। वहां की जनता जानती है मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो अखिलेश हैं लेकिन फैसले नेताजी से बिना पूछे नहीं ले सकते। वहां के ब्यूरोक्रेट्स अखिलेश से ज्यादा मुलायम और शिवपाल की सुनते हैं। इन मुश्किल परिस्थितियों में भी अखिलेश सरकार ने इन चार सालों में जो काम किया है, वो वाकई काबिलेतारीफ है।
 
दूसरी तरफ इतने समय में अखिलेश भी काफी कुछ सीख व समझ चुके हैं और शायद इसीलिए अब वे अपनी छवि से किसी प्रकार का समझौता करने के मूड में नहीं हैं। जैसा कि होता है, दोनों की इस अलग-अलग सोच का फायदा कुछ लोगों द्वारा उठाया जा रहा है और अखिलेश विरोधी गुट सक्रिय हो गया। जिस प्रकार के फैसले आज पार्टी में लिए जा रहे हैं निश्चित ही वे आत्मघाती सिद्ध होंगे।
 
समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल का विलय अमर सिंह का प्रवेश और उनके युवा समर्थकों का पार्टी से निष्‍कासन अपने आप में बहुत कुछ कहता है। अभी ताजा घटनाक्रम में उनके स्कूल के मित्र एवं समाजवादी पार्टी के सदस्य उदयवीर का पार्टी से निष्कासन, शायद उनके सब्र की परीक्षा ली जा रही है या फिर पार्टी में उनके स्थान का उन्हें एहसास कराया जा रहा है। दरअसल अभी तक अखिलेश का पलड़ा भारी था, यह बात सही है कि हाल के लोकसभा चुनावों में उप्र में भाजपा ने 80 में से 71 सीटें हासिल करी थीं लेकिन वहां का जनमानस इस बात में बिलकुल भी दुविधा में नहीं था। 
 
भारत का वोटर शुरू से ही समझदार रहा है और वह अपनी व देश की भलाई बहुत ही बेहतर समझता है। वह इस विषय में स्पष्ट था कि केंद्र में मोदी और प्रदेश में अखिलेश लेकिन भारत सरकार द्वारा हाल में की गई लक्ष्‍यभेदी हमले (सर्जिकल स्ट्राइक) ने चुनावी सीन और राजनीतिक समीकरण सब कुछ बदल दिया है। यही वजह है कि मुलायम किसी भी प्रकार की चूक करना नहीं चाह रहे लेकिन अपनी पुरानी सोच को समय के साथ बदल भी नहीं पा रहे। अति महत्वाकांक्षा के रथ पर सवार अपने ही बेटे के खिलाफ सत्ता की लालसा में पार्टी और सत्ता बचाना चाह रहे हैं, परिवार भले ही टूट जाए।
 
दरअसल राजनीति होती ही ऐसी है। अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाकर स्वयं मुलायम सिंह ने एक तरह से अपने परिवार की राजनीतिक विरासत तय कर दी थी लेकिन समय के साथ वे अपने इस फैसले पर शायद पुनः सोचना चाहते हैं। यह अलग विषय है कि कारण पारिवारिक हैं या राजनीतिक।
कुल मिलाकर अखिलेश के लिए यह वाकई परीक्षा की घड़ी है जिसमें उप्र का युवा एवं मध्यम वर्ग तो उनके साथ है लेकिन उनका परिवार नहीं। शायद वे पढ़-लिखकर राजनीति में आने और अपने संस्कारों की कीमत चुका रहे हैं।


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