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संजा उत्सव में रंग भरता "संजा-सोलही गीत" संकलन

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संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

संजा उत्सव समिति कानवन की 'संजा-सोलही' के गीत संकलन एक अनुपम संकलन है। लोक गीतों और कलाकृतियों को बचाने में संजा उत्सव समिति एक पुनीत और प्रेरणादायी कार्य कर रही है, जो कि प्रशंसनीय है। संकलन में तिथिवार कलाकृतियों के नाम क्रमशः पूनम का पाटला, एकम की छाबड़ी, बीज का बिजोरा, तीज का तीजों, चौथ का चोपड़, पंचम का पांच कटोरा, छट का छः पंखुड़ी का फूल, सातम का स्वस्तिक-सातिया, अष्टमी को आठ पंखुड़ी का फूल, नवमी का डोकरा-डोकरी ,दशमी का दीपक या निसरनी, ग्यारस का केल, बारस का पंखा, तेरस का घोड़ा, चौदस का कला कोट, पूनम का कला कोट, अमावस का कला कोट।  

 
 
श्राद्ध के 16 दिन कुंवारी कन्याओं द्वारा गोबर, फूल-पत्तियों आदि से संजा को संजोया जाता है। मधुर लोक गीतों की स्वरलहरियां घर-घर में गुंजायमान होती है। वर्तमान में संजा का रूप फूल-पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है। संजा का पर्व आते ही लड़कियां प्रसन्न हो जाती है। संजा को कैसे मनाना है, यह बातें छोटी लड़कियों को बड़ी लड़कियां बताती है। शहरों में सीमेंट की इमारते और दीवारों पर महंगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव, लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह, टी.वी, इंटरनेट का प्रभाव और पढ़ाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन खत्म सा हो गया है। लेकिन गांवों/देहातों में पेड़ों की पत्तियां, तरह-तरह के फूल, रंगीन कागज, गोबर आदि की सहज उपलब्धता से यह पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है।
 
परंपरा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पढ़ा है। "संजा-सोलही गीत संकलन में नए और पारंपरिक गीत समाहित हैं। "काजल टिकी लेव भाई काजल टिकी लेव/काजल टिकी लई न म्हारी संजा बाई के देव ", संजा तू थारा घरे जा/थारी मां मारेगा के कूटेगा"नानी सी गाड़ी लुढ़कती जाये" "संजा बाई का सासरे जावंगा-जावंगा "संजा जीम ले " आदि 32 लोक गीतों से सजी धजी में मालवी मि‍ठास लिए और लोक परंपराओं को समेटे लोक संस्कृति को विलुप्त होने से तो बचाती है, साथ ही लोककला के मायनों के दर्शन भी कराती है।
 
संजा की बिदाई मानों ऐसा माहौल बनाती है, जैसे बेटी की बिदाई हो रही हो। सब की आंखों में आंसूं की धारा फूट पड़ती है। यह माहौल बेटियों को एक लगाव और अपनेपन का अहसास कराता है। बस यह बचपन की यादें सखियों के बड़े हो जाने और विवाह उपरांत बहुत याद आती है। गीत संकलन में कहीं-कहीं अंग्रेजी एवं फि‍ल्मी गीतों की तर्ज की झलक भी गीतों में समाहित होने से एक नयापन झलकता है। रिश्तों के ताने बाने बुनती व हास्य रस को समेटे लोक गीत वाकई अपनी श्रेष्ठता को दर्शाते हैं। श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता बेटियां गाती हैं, उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और यह विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं। मालवा - निमाड़, राजस्थान, गुजरात राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, ब्रज के क्षेत्रों  की लोक परंपरा में इनको भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।
 
श्राद्ध पक्ष के दिनों में कुंवारी लड़किया मां पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन अर्चन करती हैं। विशेषकर गांवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है। संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गांव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम, एकता और सामंजस्य का सृजन करती हैं। संजा सीधे-सीधे हमें पर्यावरण से, अपने परिवेश से जोड़ती है, तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दें और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जाएं। वैसे उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है। साथ ही महाकालेश्वर में उमा साझी महोत्सव भी प्रति वर्ष मनाया जाता है । कुल मिलाकर संजा देती है, कला ज्ञान एवं मनोवांछित फल। संजा उत्सव समिति और मंडल सदस्य कानवन के आभारी हैं जिन्होंने अथक प्रयास से बेहतरीन आवरण पृष्ठ, संजा के रंगीन छाया चित्रों एवं तिथियों अनुसार व  "चलें गाय की ओर, चलें गांव की और, चलें प्रकृति की और के मूलमंत्रों के जरिए दिलों-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी है। समिति को बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

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