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सिमी आतंकी एनकाउंटर पर सवाल का मतलब आतंकियों की हिमायत

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डॉ. प्रवीण तिवारी

, मंगलवार, 1 नवंबर 2016 (21:14 IST)
सिमी के आतंकियों की हिमायत करना ही ऐसे संगठनों को पनपाने के लिए जिम्मेदार है। भोपाल के नजदीक एनकाउंटर में मारे गए आतंकियों के लिए संवेदनाएं जताने वाले खुद को बेनकाब कर रहे हैं। ऐसे लोग छद्म रूप से सिमी जैसे खतरनाक संगठनों को बढ़ावा दे रहे हैं। खासतौर पर कांग्रेस की तरफ से एक बार फिर बयान सामने आ रहे हैं। इन बयानों में एनकाउंटर को फर्जी तक बताने की कोशिश की जा रही है लेकिन इस दोयम दर्जे की राजनीति में वोट परस्त नेता ये भूल जा रहे हैं कि वे इस तरह के बयान देकर सिर्फ नफरत ही नहीं फैला रहे बल्कि लोगों को गुमराह भी कर रहे हैं।
सिमी के प्रति कांग्रेस और अन्य दलों के नरम रवैए की ये कोई नई कहानी नहीं है। मालेगांव 2006 के धमाकों में भी सिमी के पूरे नेटवर्क का हाथ सामने आया था। बेंगलूरू में हुए नार्को टेस्ट के दौरान सिमी के आतंकियों ने समझौता और मालेगांव धमाकों की पूरी वारदात को सिलसिलेवार तरीके से बताया था। कहां से सूटकेस खरीदे गए और किस तरीके से धमाकों को अंजाम दिया गया ये तमाम बातें सामने आई थीं।
 
इस मामले को भगवा आतंक का रंग देने के चक्कर में यूपीए सरकार ने सिमी के आतंकियों के लिए नरम रवैया दिखाया था। देश के इतिहास में पहली बार किसी गृहमंत्री ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि वो सिमी के आतंकियों की जमानत का विरोध नहीं करेंगे। इस बात के लिए तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम की जमकर आलोचना भी हुई थी। हद तो तब हो गई जब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजयसिंह 26/11 के खतरनाक आतंकी हमले पर भी सियासी रोटिया सेंकने से बाज नहीं आए। इस आतंकी हमले को संघ की साजिश बताने वाली एक घटिया सियासी साजिश का हिस्सा दिग्विजयसिंह खुद बन गए। हांलाकि बाद में इस बात के लिए उन्होंने माफी भी मांगी लेकिन इस तरह की हरकतों से उनकी नीयत साफ हो जाती है।
 
सिमी के आतंकियों के लिए भी मानवाधिकारों के नाम पर पैरवी करने वाले पहले भी आतंकियों को इसी तरह से संरक्षण देते रहे हैं। कई लोग अब इस बहस में उतर आए हैं कि ये एनकाउंटर फर्जी है या नहीं? गौर करने वाली बात ये है कि जैसे ही ये दुर्दांत आतंकी एक जेलकर्मी की हत्या कर फरार होने में कामयाब हुए थे वैसे ही मध्यप्रदेश पुलिस और सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास शुरू कर दिया गया था। 8 घंटे के भीतर इन 8 आतंकियों को ढेर करने वाली पुलिस पर सवाल खड़े करने वाले लोग अपने घरों में बैठकर जमीनी हकीकत की चाहे जो तस्वीर पेश कर देते हैं। 
 
राजनीति के मूल में ही भेद है। अंग्रेजों का मूल सिद्धांत था फूट डालो और राज करो। देश आजाद हुआ और लोगों ने जमकर खुशियां मनाईं। भेद की राजनीति ने ही आजादी की इन खुशियों को बहुत जल्दी काफूर भी कर दिया। देश को हिन्दू और मुसलमानों के आधार पर बांट दिया गया। बंटवारे की इस विभीषिका के मूल में नेताओं की राजनैतिक रोटियां और सत्ता की भूख ही थी।
 
मुसलमान पाकिस्तान और बांग्लादेश चले गए और हिन्दू और कई मुसलमान भारत में ही रहे। पाकिस्तान में बसे कट्टरपंथियों ने अपनी आने वाली पीढ़ियों को सिर्फ हिंदुस्तान के खिलाफ ही पाठ नहीं पढ़ाया बल्कि हिंदुओं के खिलाफ भी उनके मन में जहर भरा गया। यही वजह है कि अब पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू न के बराबर बचे हैं। 
 
हिन्दुस्तान में भी इस कट्टरता के विरोध में कई बार गुस्सा देखने को मिला। यहां भी हिन्दू मुसलमानों के बीच दंगों के कई मौके आए। भारत के लिए चुनौती तब शुरू हुई जब कई हिंदूस्तानी कुछ मुस्लिम युवक भी पाकिस्तान के प्रति अपनी भक्ति दिखाने को तत्पर हो गए। सिमी और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठऩों का प्रादुर्भाव इसी भक्ति की परिणति थी।
 
हाफिज सईद, जकी उर रहमान लखवी, सैयद सलाहुद्दीन जैसे कई नाम हैं जिन्होंने मजहब के नाम पर नफरत का जहर फैलाना शुरू किया और इस जहर का असर कई भारतीय युवाओं पर भी हुआ। भारत में ये कट्टरपंथ इसीलिए पनपनता गया क्यूंकि अंग्रेजों के जाने के बाद भी यहां की फूट डालो और राज करो की राजनीति नहीं बदली थी। पाकिस्तान में हिन्दुओं को पूरी तरह खत्म कर दिया गया क्योंकि वो मुस्लिम राष्ट्र के तौर पर अलग हुआ था। इस बंटवारे का यही मकसद था कि हिन्दुओं और मुसलमानों को अलग कर दिया जाए। जो मुसलमान हिन्दुस्तान में रह गए वो जानते थे कि यहां वे ज्यादा सुरक्षित हैं। कई लोगों ने उस दौर में भी बंटवारे की मूल भावना पर जोर देते हुए इसे पूर्ण हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की आवाज उठाई लेकिन ये इस देश की खूबसूरती रही कि यहां सभी को बराबर जगह मिली।
 
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को भी ये पता था कि पाकिस्तान जिस तर्ज पर चल रहा है वो जल्द ही कट्टरपंथी राष्ट्र बनकर तालीबानी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन जाएगा। हुआ भी यही आज पाकिस्तान में लोकतंत्र का शासन नहीं बल्कि वहां आतंकी ताकतों का ही दबदबा है। कट्टपंथी नेता और कट्टरपंथी फौज के तालमेल से पाकिस्तान एक नर्क में तब्दील हो चुका है। कट्टरपंथी देश में अल्पसंख्यकों के प्रति किस तरह की असहिष्णुता दिखाई जाती है ये भी किसी से छिपा नहीं है।
 
ऐसा नहीं कि भारत में कभी पूर्ण हिन्दू राष्ट्र के लिए जोरदार आवाज न उठी हो लेकिन इस देश की सनातन परंपरा में कभी भी कट्टरता को कोई स्थान नहीं मिला, यही वजह रही कि यहां लोकतंत्र और सांप्रदायिक सौहार्द्र कामयाब रहा। देश में माहौल तब खराब हुआ जब मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर डराने की कोशिश शुरू हुई। राजनीतिक तौर पर डराने का क्या मतलब होता है को एक ताजा उदाहरण से समझिए। आईएसआईएस जैसे खतरनाक आतंकी संगठन में शामिल होने वाले युवकों को कानूनी मदद मुहैया कराने की कोशिश एक राजनीतिक दल के द्वारा की गई। इस राजनीतिक दल की राजनीति का आधार ही मुस्लिम मतदाता है जाहिर तौर पर वो मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहेगा। हांलाकि मुसलमानो को साथ जोड़ने के लिए उनमें असुरक्षा के भय को पैदा करना एक ऐसी खतरनाक तरकीब है जो धीरे धीरे हमारी राजनीति का स्वीकार्य हिस्सा बन गई है।
 
सिमी के आतंकियों के एनकाउंटर का विरोध करने ऐसी ही सियासत का हिस्सा है। इस सियासत की वजह से मुस्लिम युवाओं के मन में और जहर भरा जा रहा है। कांग्रेस और दूसरे राजनैतिक दल न सिर्फ आतंकियों के एनकाउंटर पर सवाल खड़े कर देश द्रोहियों जैसे बयान दे रहे हैं बल्कि वो मुस्लिमों के मन में भी भेद पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता लेकिन मजहब के नाम पर आतंकियों के रहनुमां बनकर सियासत दान आतंक को पालने पोसने का काम करते हैं।

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