Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

प्रशंसा पाने के चक्कर में जीवन को बोझिल न बनाएं

हमें फॉलो करें प्रशंसा पाने के चक्कर में जीवन को बोझिल न बनाएं
webdunia

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

जीवन में हम उत्तरोत्तर प्रगति के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते चले जा रहें हैं, लेकिन इस प्रगति के अनुरूप हम अपने मन की प्रगति को ठण्डे बस्ते में डालकर भूलते चले जा रहे हैं।

हम अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो पर्याप्त ध्यान देते हैं किन्तु वहीं सर्वाधिक आवश्यकता जिस बिन्दु पर ध्यान देने की है उसे हम उपेक्षित कर देते हैं, जबकि बिना मन को सींचें हम भले ही भौतिकता के कीर्तिमान रच लें लेकिन वास्तव में हम स्वयं के साथ अन्याय कर रहे होते हैं। जिस प्रकार हमें अपने भौतिक शरीर की भूख-प्यास को बुझाने के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी तरह मन की भूख-प्यास को मिटाने के लिए भी प्रसन्नता, उत्साह, सकारात्मकता, आत्मविश्वास जैसे सदाबहार तत्वों की आवश्यकता होती है जिससे मन के ऊपर विकार रुपी शत्रु आक्रमण न कर सकें।

हालांकि यह जरूरी नहीं है कि ईर्ष्या, द्वेष, अहं जैसे ही विकार ही हमारे शत्रु हों क्योंकि हम जिनको गुणों के रुप में मानते हैं यथा-सुख, प्रशंसा इत्यादि की भी अति होने पर ये हमारी मनस्थिति के लिए विकार के रुप में हानिकारक हो सकते हैं।

किन्तु अक्सर हम अपने मन की भूख को मिटाने में खुद को अक्षम, असहाय पाते हैं जो कि इस बात का परिचायक है कि शारीरिक सुन्दरता या कि भौतिक संसाधनो को जुटाते-जुटाते हम अपने मन को निर्बल बना चुके हैं। इन्हीं कारणों के चलते ही प्रायः हमारा मन छोटी-छोटी बातों पर टूटने लग जाता है। जैसे कि जब कभी भी हमारी बात को जब किसी के द्वारा अस्वीकार कर दिया जाए याकि हमारे विरोध में कोई बात हो याकि हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति न हो पाए।

अक्सर ऐसी परिस्थितियों में हम इन बातों के कारण झल्लाहट से भर जाते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि हम अपने चिड़चिड़ेपन को व्यक्त कर देते हैं तो वहीं ऐसा कई बार होता है कि हम अपनी प्रतिक्रिया भले ही न दे पाएं लेकिन आन्तरिक तौर पर अपना नियंत्रण खोने लगते हैं।

हम अन्दर ही अन्दर आवेग से भरकर चीखने लगते हैं तथा हतोत्साहित होकर स्वयं को कोसते रहते हैं तो कभी अपने अन्दर प्रतिशोध की चिन्गारी को हवा देते रहते हैं जिससे हमारी मन:स्थिति असंतुलित हो जाती है जिसका परिणाम यह होता है कि हम बेवजह अपने को अवांछित तनाव के चक्र में उलझाते चले जाते हैं।

आखिर! ऐसा क्यों होता चला जा रहा है कि भले ही कोई बात कितनी ही सही न हो लेकिन फिर भी अगर हम उसे अपने अनुसार विपरीत पाते हैं तो उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते? भले ही हम स्वयं को बहुत बड़ा साहसी, शक्तिशाली मानकर चलते हों किन्तु जब कभी भी चीजें हमारे अनुसार नहीं होती हैं तब हम किसी विक्षिप्त व्यक्ति जैसे अपना नियंत्रण क्यों खो देते हैं?

क्या यह हमारी मानसिक अपंगता/कमजोरी के लक्षण नहीं हैं? हम सबकुछ अपने हिसाब से चाहते हैं। लगभग हमारी यह आदत सी हो चुकी है कि जो बात या कार्य हम कहेंगे या करेंगे वह शत-प्रतिशत सही और अकाट्य होगी जिसके विरोध में या सुधार की गुंजाइश होनें पर भी हम अपने पक्ष के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकते हैं।

हम अपने प्रत्येक कार्य में दूसरों की शाबाशी पाने की अन्धी होड़ में लगे रहते हैं। देखिए एक स्तर तक प्रशंसा हमारे लिए उत्साहवर्धन का कार्य करती है लेकिन जब हम प्रशंसा पाने के लिए व्याकुल रहे आएं तथा दूसरों से यह अपेक्षा करने लगें कि लोग हमारी शाबाशी के साथ पीठ ठोंकते रहें तब यह हमारे लिए एक मर्ज सा बन जाता है जो कि कतई सही नहीं है।

धीरे-धीरे यही प्रवृत्ति हमारे लिए इतनी घातक बन जाती है कि हम अपने बारे में भले ही कोई बात कितनी ही फायदेमंद न हो लेकिन अगर उसमें हमारी आदतों या कार्यों के प्रति थोड़ा भी विरोध या मतांतर हुआ तब हम एकदम से असहज से होने लगते हैं। यहां तक कि यह भी संभव हो जाता है कि हम सम्बंधित व्यक्ति के प्रति दुराग्रह रखने लग जाएं। ऐसी स्थिति आने पर हम दूसरों को सीधे नकारते हुए खुद को सही सिध्द करने की कवायद करने में जुट जाते हैं तथा हर हाल में हम अपने सारे तरीकों से यह जताने का भरसक प्रयत्न करते हैं कि हम ही सही हैं।

आखिर ऐसा क्यों होता जा रहा है कि हम कुछ भी कड़वा सह पाने की स्थिति में स्वयं को नहीं ढाल पा रहे हैं? जबकि हमारे बीमार होने पर चिकित्सक भी तो हमें कड़वी दवा देता है जिसमें हमारा भला होता है तथा हम आसानी से उसका उपचार स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन जब यहां बात हमारे जीवन के निर्णयों और जीवन शैली को स्वस्थ और सफल बनाने की आती है, तब ऐसी स्थिति में हम इतनी बड़ी चूक क्यों करते चले जा रहे हैं?

हम हर पल क्यों यह चाहते हैं कि हमारी पीठ थपथपाई जाए और दूसरे हमारी सराहना करते रहें। जबकि स्वयं से बेहतर अपनी सच्चाई को कोई भी नहीं जान सकता है। ऐसा तो होता है न! कि- हम चाहे कोई कार्य करें या बात कहें हमको यह भलीभांति मालूम होता है कि इसमें कितनी सच्चाई है तथा यह कितना लाभकारी है। हम स्वयं भी अच्छी बातों या कार्य की पूर्णता में आनंदित महसूस करने के साथ ही आत्मसंतुष्टि के बोध को प्राप्त करते हैं

किन्तु हम इतने पर भी क्यों खुश नहीं हो पाते?हम आखिर! क्यों दूसरों की शाबाशी पाने की अन्धी होड़ में स्वयं की मूल भावनाओं का गला घोंटने में लगे रहते हैं, जबकि हम यह बेहतर तरीके से जानते और समझते हैं कि दूसरों की शाबाशी को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना केवल स्वयं को झूठी तसल्ली देना और अपने साथ धोखा करना है।


हम अपने मन को लगातार ऐसा क्यों बनाते चले जा रहे हैं कि हमारे जीवन में दूसरों का मत/शाबाशी ही सबकुछ होता चला जा रहा है,जबकि वास्तव में इसे हमें कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है बल्कि यह हमारे जीवन में नकारात्मक प्रभाव ही डालने वाला है। क्योंकि जब हम स्वयं से संतुष्ट नहीं हैं तथा अपने मन का नियंत्रण लोगों की शाबाशी/ आलोचना को सौंप दे रहे हैं तो हम यह कल्पना कैसे कर सकते हैं कि हमें प्रसन्नता ही मिलेगी?


हमारी प्रशंसा प्राप्त करने की भूख लगातार बढ़ती ही चली जा रही है, हम किसी भी हाल में अपनी सराहना और शाबाशी प्राप्त करना चाहते हैं,लेकिन अगर कभी हमें उपेक्षित कर दिया जाए तथा हमें शाबाशी न मिले तो एक तरह से हम फ्रस्ट्रेटेड हो जाते हैं। यह सवाल खुद से पूछिए कि जहां आप लोगों के विचार या मत अपने बारे में अनुकूल सुनते हैं तो मन ही मन खुशी के मारे फूले नहीं समाते हैं। वहीं जब लोगों के विचार/ मत हमारे प्रतिकूल होते हैं तो हम गहरी हताशा/ कुण्ठा से भर जाते हैं। हमारी यह प्रवृत्ति स्वयं के प्रति अन्याय है जो कि हमारी जीवनशैली को अवांछित तनाव के भवंर में लगातार डुबोती चली जा रही है।

हमने आखिर! अपने मन को क्या बना लिया है कि मात्र प्रशंसा न मिलने के कारण मन के तन्तु कुम्हलाने लगते हैं। हम स्वयं से पूछे क्या यह सही है? यदि हम यह जान रहे हैं कि यह हमारे लिए हानिकारक बनता चला जा रहा है तो जीवन को हम और ज्यादा बोझिल/तनावग्रस्त क्यों बनाएं?

इसलिए जहां तक संभव हो वहां तक हमें प्रयास करना चाहिए कि हम प्रशंसा पर न तो उत्साहित हों और आलोचना पर न ही नाराज हों । बातों को सुनें-समझे तथा चिन्तन -मनन के माध्यम से विश्लेषण कर आगे बढ़ें। हमारे लिए कड़वी दवा की भी आवश्यकता उतनी ही जरूरी है जितनी मीठे स्वादिष्ट आहारों की। जीवन को व्यापक एवं आन्तरिक तौर पर प्रसन्न रखने के लिए हमें समन्वय बनाकर स्वयं के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण का निर्माण करना चाहिए। आखिर! हम अपने मन का नियंत्रण किसी और को क्यों दें? इन छोटी-छोटी किन्तु गहरी बातों के धागों को सुलझाकर हम अपने जीवन को खुशहाल बनाने में सफल हो पाएंगे।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Tips To Reduce Obesity : मोटापे से परेशान हैं, तो इन 9 बातों का जरूर रखें ख्याल