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मोदी की खरी-खरी फिर भी बचे सवाल

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ऋतुपर्ण दवे

दिल्ली की सत्ता की चावी किसके पास होगी? राजनीतिक गलियारों में यह सवाल तेजी से कौंध रहा है। प्रधानमंत्री पद के लिए हमेशा की तरह मुफीद उप्र होगा या रास्ता दक्षिण का होगा? ताजा हालातों के संकेत अलग-अलग हैं। लेकिन ताजे घटनाक्रम में प्रज्ञा ठाकुर द्वारा गोडसे पर दिए गए बयान से देश भर में दिखी नाराजगी के बाद नरेद्र मोदी की खरी-खरी अंतिम चरण के चुनावों को अपने पक्ष में कितना साध पाएगी नहीं पता, लेकिन ऐसे बयानों से प्रधानमंत्री खुद देश के साथ नाखुश दिखे। गांधीजी की स्वीकार्यता पर संदेह का सवाल ही नहीं वह भी इतने अरसे बाद? लेकिन भाषाई मर्यादा को तार-तार करती राजनीति शायद देश ने पहली बार देखी है।
 
मुद्दों से भटके पहले आम चुनाव के बाद सत्ता का स्वरूप बदला-बदला सा होगा या फिर कुर्सी तक पहुंचने के लिए कैसे भी हथकण्डों की राजनीति होगी इसको लेकर अनिश्चितता अभी से दिखने लगी है। भारत की बदलती तस्वीर का रूप कैसा होगा यह नया विषय बन गया है।
 
मोदीजी ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए पहली बार किसी नेता पर इतनी कड़ी प्रतिक्रिया दी। यह प्रतिक्रिया हेमंत करकरे या बावरी विध्वंश पर प्रज्ञा के बयानों के वक्त भी दी जा सकती थी। शायद वोटों की राजनीति के चलते ऐसा न किया गया हो। लेकिन क्या आगे वोटों की खातिर ऐसी राजनीति के चलन को रोका जा सकेगा? 
 
कुछ भी हो प्रज्ञा का यह बयान भाजपा को कितना फायदा या नुकसान पहुंचाएगा नहीं पता, लेकिन इतना जरूर है कि बाबरी और करकरे पर टिप्पणी से महाराष्ट्र और देश में संदेश अच्छा नहीं गया है। सवाल यह भी नहीं कि प्रज्ञा जीतेंगी या हारेंगी, बस उनकी मंशा क्या है यही काफी है। यदि प्रज्ञा की माफी ही काफी है तो आगे से इस तरह की माफियों की झ़ड़ी नहीं लगेगी इस बात की गारंटी कौन देगा?

चुनाव आते जाते रहेंगे। लेकिन देश की अस्मिता और लोकतंत्र के निहितार्थ भाषाई मर्यादा की गारंटी तो लेनी ही होगी। किसी को भी देश को आहत करने वाले बयान से रोकने के खातिर सख्ती से ऐतराज नहीं होना चाहिए। चाहें काँग्रेस हो या भाजपा या कोई भी दूसरे दल सभी को ध्यान रखना होगा और उनकी तरफ से बोलने वालों को हिदायत देनी होगी।
 
 
यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत धर्म निरपेक्ष देश है। यह विशेषता दुनिया में हमारा मान भी बढ़ाती है। लेकिन यदि वोट की खातिर महापुरुषों और संतों पर आपत्तिजनक बयानबाजी के लिए कड़ाई नहीं हुई तो निश्चित रूप से आने वाला समय मुश्किलों भरा होगा। यह सब भारत की तासीर और विश्वगुरू बनने के सपने के लिए भी बेहद घातक होगा। महज वोट कबाड़ने के लिए कीचड़ उछाल राजनीति किसी भी दल की तरफ से नहीं होनी चाहिए।

दुनिया के बड़े देशों से तो अपनी तुलना कर बैठते हैं लेकिन वहां के राजनीतिक चलन से कितना सबक लेते हैं यह क्यों नहीं देखते? एक ओर चुनाव सुधार की बात होती है वहीं दूसरी ओर चुनावों में भाषाई मर्यादा तार-तार की जाती है। ऐसे दोहरे चरित्र तथा कथनी और करनी का अंतर भी देखना होगा। 
 

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