हमने उस सुभाष को खोया है जिसने अपने प्राणों को हथेली में रखकर राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन को समर्पित कर क्रांति की रणभेरी हुंकार से अंग्रेजों को कंपकपा दिया था।
नेताजी व उनके नेतृत्व वाली आजाद हिन्द फौज ने अँग्रेजी साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दी थी, और उनकी क्रान्ति ने यह स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि अंग्रेजी साम्राज्य का विनाश शीघ्र ही होगा तथा उन्हें भारत को छोड़कर जाना ही पड़ेगा।
नेताजी मां भारती के ऐसे सपूत थे, जिनके नाम से ही क्रांति का भाव जागृत हो जाता है। वे तप, त्याग, शौर्य, कौशल, कूटनीति, रणनीति, जुझारूपन, प्रखर स्वभाव, अनुशासित, समन्वित, दूरदृष्टा व जाज्वल्यमान प्रखर स्तम्भ थे।
स्वतन्त्रता हेतु दृढ़निश्चयी निर्णयों एवं कार्यों के प्रति प्राणोत्सर्ग करने का अभूतपूर्व साहस रखने वाले वे एक ऐसे कुशल शिल्पी थे जिन्होंने भारत-भू की स्वतंत्रता के लिए अनगिनत मोर्चों में संयुक्त तौर पर लड़ाई लड़ी। नेताजी की अद्वितीय एवं ओज तथा समन्वय से लबरेज़ नेतृत्व क्षमता तथा विचारों को कार्य एवं व्यवहार में रणनीतिक तौर पर परिवर्तित करने की शैली सभी को अचरज में डालती है।
उन्होंने लक्ष्योन्मुख कार्य कुशलता के माध्यम से भारतमाता की स्वतन्त्रता के लिए यज्ञ की आहुति बनकर भारत ही नहीं बल्कि समूचे विश्व के मध्य अनूठा, अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा दिखलाए गए मार्ग स्वतंत्रता के बाद भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि स्वतंत्रता की बलिवेदी में स्वयं को समर्पित करने के लिए रक्त में उबाल पैदा कर युवा तरुणाई एवं बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के रोम- रोम में नई स्फूर्ति, चेतना को जागृत करने की जादुई शक्ति का काम तात्कालिक समय में करते रहे हैं।
ऐसे स्वातंत्र्यवीर नेताजी का देश की स्वतंत्रता के बाद न होना ही इस राष्ट्र की अपूर्णीय क्षति है, जिसे हम सबने भुगता है। कल्पना कीजिए कि एक ऐसा महानायक जो अंग्रेजी शासनकाल में अपनी रणनीति के माध्यम से वैश्विक स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तन करने का साहस रखता रहा हो, क्या वह स्वतंत्रता के उपरांत राष्ट्र में नवचेतना एवं भारतवर्ष के इतिहास का नया अध्याय लिखने में सक्षम नहीं होता? यह तो तय सा था कि नेताजी की उपस्थिति में भारतीय राजनीति की प्राणप्रतिष्ठा उन्हीं मूल्यों एवं सिध्दांतों पर हुई होती जिसे नेताजी ने अपनी दूरदृष्टि के माध्यम से अखंड भारत के संकल्प एवं सम्पूर्ण स्वतंत्रता के तौर पर देखा एवं कार्य में परिवर्तित किया था।
जो व्यक्ति अकेले चलकर अंग्रेजों के चंगुल से मां भारती को स्वतंत्र करवा लेने की सामर्थ्य रखता था, वो सभी के सहयोग से क्या नहीं कर सकता था? किन्तु इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य कहिए या कि यह कहिए कि राष्ट्र के साथ षड्यंत्र हुआ जिसके चलते हमनें स्वातंत्र्य समर के लगभग उन सभी महानायकों को खो दिया जिनके रग-रग में ओज एवं क्रांति की ज्वाला जलती थी।
हमारे पास हाथ मलने एवं भाग्य पर रोने के सिवाय कुछ भी नहीं बचा। क्योंकि भारत की राजनीति में 'सत्ता' पर एक छत्र राज्य चाहने वालों ने हमसे धीरे-धीरे वह सब छीन लिया जिससे भावी स्वतंत्र भारत की बुनियाद रखी जानी थी।
उनकी लोकप्रियता व जनस्वीकार्यता इस स्तर तक थी कि 1939 में जबलपुर के त्रिपुरी में सम्पन्न हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना था, तब दो उम्मीदवार एक नेताजी और दूसरे पट्टाभि सीतारमैया थे। सोचिए गांधी जी के द्वारा निर्वाचन के पूर्व ही यह घोषणा कर देने कि यदि पट्टाभि की पराजय हुई तो यह सिर्फ पट्टाभि की नहीं उनकी व्यक्तिगत हार होगी।
उसके बाद भी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पट्टाभि सीतारमैया को हराकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनें,लेकिन अन्ततोगत्वा राजनीति की इन चालों से क्षुब्ध होकर नेताजी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। और स्वतन्त्र भूमिका में भारत-भू की स्वतन्त्रता के लिए नेताजी आगे बढ़ चले तो फिर कभी भी पीछे की ओर रुख नहीं किया।
इतिहास के इस कठघरे में महात्मा गाँधी भी खड़े होते हैं, आखिर उन्होंने सुभाष की हार को अपनी हार मानने की घोषणा क्यों और किन परिस्थितियों में की?
क्या महात्मा गांधी नेताजी को स्वातन्त्र्य आन्दोलन की मुख्य भूमिका का नेतृत्व करते हुए नहीं देखना चाहते थे? याकि उनके पीछे कोई दबाव था? बहरहाल, यह सब इतिहास के ऐसे पन्ने हैं जो अनसुलझे ही रहे हैं। लेकिन नेताजी के साथ तत्कालीन कांग्रेस की आन्तरिक राजनीति ने जिस प्रकार से अपनी गिरोहबन्दी की थी, वह भारत की स्वतन्त्रता के लिए घातक ही थी।
अब तक उनकी मृत्यु को लेकर बेपर्दा रहे रहस्यों से षड्यन्त्र की कहानी ही दिखती है, लेकिन भारतीय राजनीति में षड्यन्त्रों से पर्दा ही कब उठा है? नेताजी यदि स्वतंत्र भारत में होते तो हम यह आंख मूदकर विश्वास कर लेते कि भारत माता के जिस भव्य स्वरूप की झांकी हमारे मानस में अंकित है वह साकार हो चुकी होती, तथा आज संपूर्ण विश्व में भारतवर्ष का कीर्तिमान स्थापित होता।
उनके आदर्श स्वामी विवेकानन्द थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस जब अपने छात्रजीवन में ऐसे आदर्श की खोज में भटक रहे थे, जिसे वे मन-प्राण से अङ्गीकार कर लें तो उसकी पूर्णता उन्हें विवेकानन्द में मिली।अपने सम्बन्धी के यहां से उन्होंने विवेकानन्द वाङमय उठाया और उसका अध्ययन करने पर उनके जीवन को मां भारती के लिए सर्वस्वाहुत करने की प्रेरणा विवेकानन्द से ही मिली।
उन्होंने स्वामीजी के सामाजिक सशक्तिकरण, ओजस्विता, संगठन,सेवा,धार्मिक शक्ति जैसे अन्यान्य गुणों को आत्मसात किया। उस समय की पत्रिका उद्बोधन (बंगला मासिक) में वे लिखते हैं:―
वर्तमान स्वाधीनता― "आन्दोलन की नींव स्वामीजी की वाणी पर ही आश्रित है। भारतवर्ष को यदि स्वाधीन होना है तो उसमें हिन्दुत्व, या इस्लाम का प्रभुत्व होने से काम न होगा― उसे राष्ट्रीयता के आदर्श से अनुप्राणित कर विभिन्न सम्प्रदायों का सम्मिलित निवास-स्थान बनाना होगा। रामकृष्ण-विवेकानन्द का 'धर्म समन्वय' का सन्देश भारतवासियों को सम्पूर्ण ह्रदय के साथ अपनाना होगा।"
नेताजी सुभाष चंद्र बोस शिक्षित, कूटनीतिज्ञ, सभ्य, शालीन क्रांति की हुंकार भरने वाले ऐसे महान शख्स थे, जिन्होंने विदेशों में जाकर अपने क्रांतिकारी वाक्-चातुर्य कौशल एवं जीवन अर्पण करने की प्रतिबद्धता के आधार पर सभी को संगठित किया। इसके साथ ही वहां की स्थानीय सरकारों से भारत की स्वतंत्रता हेतु सहयोग करने का आश्वासन प्राप्त कर देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अविराम युध्द की घोषणा कर दी।
उन्होंने अपने अडिग दृढ़ निश्चय एवं संगठन निर्माण तथा सञ्चालन की कार्यकुशलता के आधार पर ही 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के नाते- स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई जिसे तात्कालीन समय में जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड जैसे देशों व वहां की सरकारों ने मान्यता प्रदान की।
शायद हममें से कम लोग ही यह जानते होंगे कि अंडमान व निकोबार द्वीप समूह की नेताजी के नेतृत्व वाली अस्थायी सरकार को जापान ने अपना समर्थन देकर नेताजी की स्वीकार्यता को माना था। नेताजी सुभाष चंद्र बोष इन द्वीपों में गए तथा नया नामकरण किया, जिनके नामों से यह आंकलन आसानी से लगाया जा सकता है कि स्वतंत्रता और मां भारती के प्रति अनुराग उनके रक्त के कण-कण में समाहित था।
उन्होंने 30 दिसम्बर सन् 1943 को इन दोनों द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज फहराया और अंडमान का नया नाम 'शहीद द्वीप' व निकोबार का 'स्वराज्य द्वीप' रखा था।
इसी क्रम में नेताजी के नेतृत्व में 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने पुनः अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए आक्रामक स्वरूप अख्तियार कर अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति का बिगुल बजाया इसके परिणाम स्वरूप कोहिमा,पलेल को अंग्रेजों की परतंत्रता से मुक्ति मिली।
नेताजी के ह्रदय में राष्ट्र बसता था, यह इसी की परिणति थी कि 1939 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद भी उन्होंने महात्मा गांधी के प्रति किसी भी प्रकार का दुराग्रह नहीं रखा। 6 जुलाई सन् 1944 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी जी के नाम बर्मा के रंगून रेडियो स्टेशन से एक प्रसारण में आजाद हिन्द फौज की स्वातंत्र्य गतिविधियों के विषय में बताते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ द्वारा स्वतंत्रता के लिए लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये बापू की शुभकामनाओं की अपेक्षा की थी।
भले ही नेताजी का महात्मा गांधी जी से नरम दल और गरम दल के आधार पर मतभेद रहा हो लेकिन महात्मा गांधी जी को वे हमेशा सम्मान देते रहे हैं। नेताजी के स्वभाव की यही तो विशेषता थी कि वे असहमतियों के बावजूद भी स्वातन्त्र्य पथ में एकता एवं समेकित तौर पर सहयोग के माध्यम से स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ने के लिए संकल्पित थे।
नेताजी ने मां भारती की स्वतंत्रता के लिए अपने वीर सिपाहियों के दल-बल के साज 'दिल्ली-चलो' की हुंकार भरते हुए 21 मार्च 1944 को अपनी भारतभूमि पर कदम रखे। कल्पना करने पर ऐसा दृश्य परिलक्षित होने लगता है कि नेताजी के शुभागमन से सभी की आंखें आंसुओं से भर आई रही होंगी। उनके शौर्य और तेज के आभामंडल में भारतमाता के चरण चूमते हुए सभी के हृदय में जज्बा-जुनून राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए हिलोरे लेता रहा होगा।
नेताजी ने शहीदी दिवस मनाते हुए आजाद हिन्द फौज व उपस्थित वीर जवान साथियों से भारतमाता की स्वतंत्रता के लक्ष्य में भावविभोर होकर कम शब्दों में सबकुछ बयाँ कर दिया था, उन्होंने कहा था -
"हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है।
तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें आजादी दूंगा।
यह स्वतन्त्रता की देवी की मांग है"
इसका अभिप्राय यही था कि यह समय शांत व चुप बैठ कर स्वतंत्रता की याचना करने का नहीं है। यह समय अपने भुजबल की ताकत से दो-दो हाथ करने का है और अंग्रेजों की हुकूमत को जमींदोज कर स्वतंत्रता की थाल सजाकर मां भारती की पूजा करने के संकल्प लेने का है।
किन्तु समय की गति कब किस ओर करवट ले यह कौन जानता है? ठीक ऐसा ही कालक्रम कुछ ऐसा घटा जैसे सबकुछ हाथों में आकर निकल गया। इधर विश्वयुद्ध में नेताजी के सहयोगी राष्ट्रों में से जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े जिसकी वजह से नेताजी की कूटनीतिक शक्ति में कमी आई।
ऐसा कहा जाता है कि तत्कालिक वस्तुस्थिति को भांपते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस जापान के टोकियो की ओर चले गए थे। लेकिन यह एक अधूरा सच है या कहें कि यह हमें बतलाया जाता रहा है। उनकी मृत्यु को हवाई दुर्घटना और रूस की नजरबंदी के पेण्डुलम में लटकाया जाता रहा है। उनकी रहस्यमयी मौत को लेकर कई आयोग और जांच के लिए समिति बनीं, किन्तु कभी भी सत्य हमें नहीं बतलाया गया बल्कि वास्तविक 'सत्य' से देश को दूर रखा गया। यदि नेताजी होते तो 15 अगस्त 1947 में मिलने वाली स्वतंत्रता सम्भवतः हमें 1944 के दरमियान ही मिल जाती।
अगर ऐसा हो जाता? तो देश का नेतृत्व निश्चय ही नेताजी करते होते तथा देश के विभाजन की त्रासदी से भी न गुजरना पड़ता। क्या नेताजी के इन्हीं कृतित्वों से तत्कालीन राजनेताओं को भय था? नेताजी की रहस्यमयी मृत्यु या गायब होने की गढ़ी गई कहानी के पीछे क्या देश के तत्कालीन राजनेताओं का षड्यंत्र तो नहीं है?
होनी को कौन टाल सकता है सबकुछ समय अपनी मुठ्ठी में रखता है। दुर्भाग्य हम भारतवासियों का था जिन्होंने नेताजी जैसा वीर पुरोधा खोया है। प्रश्न तो यह भी है न कि स्वतंत्रता आन्दोलनों में सुर्खियां बटोरने वाले कई लोगों को यह लगा हो कि नेताजी के आ जाने से उनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है और यहीं से कोई षड्यंत्र रचा गया हो?
हालांकि नेताजी की मृत्यु अभी भी रहस्यमयी व सन्देहास्पद तथा सियासी दांव-पेंचों में उलझी हुई है पता नहीं इस रहस्य का पता हम सब को कब लगेगा? या कि यह रहस्य ही बना रहेगा,क्योंकि सत्तासीन होने के बाद रहस्य सुलझाने की मुखालफत करने वाले लोग चुप्पी साधकर बैठ गए हैं। घटनाक्रमों एवं रहस्यमयी बन्द पड़ी फाईलों में बोस भी उसी राजनैतिक षड्यंत्र के पाश में जकड़े हुए प्रतीत होते हैं।
राष्ट्र को पंगु बनाने एवं नेतृत्व को विकल्प शून्य करने की चाह रखने वाले कुटिल सत्तालोलुपों ने नेताजी को हम सबसे छीन लिया, जिसका रहस्य केवल सरकारी दस्तावेजों में कैद है या कि उस रहस्य में भी कूट रचित छल होगा। हमें चुप रहना होगा, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से ही हमारी जुबान सिल दी गई है कि तुम लोग सवाल नहीं पूंछ सकते और नेताजी के विषय में तो बिल्कुल भी नहीं।
स्वतंत्रता के सात दशक पूरे हो चुके हैं लेकिन अब भी नेताजी की मृत्यु का रहस्य सिर्फ फाइलों में कैद है। नेताजी की मृत्यु के रहस्य की फाईल से धूल हटाने एवं रहस्य को खत्म कर सच दिखलाने का साहस न तो उन सत्ताधारियों में था और न ही इन सत्ताधारियों में दिखलाई देता है, भले ही सत्ता पाने के पहले भाजपा के महारथी रहस्य को सार्वजनिक करने की कसमें खाते रहे आए हों। फिर भी उम्मीद है कि शायद कभी इतिहास के उन पृष्ठों को पलटा जाए जो अब तक रहस्यमय ही रहे हैं।
हमारे पास शेष है नेताजी का जीवन एवं उनके संघर्षों तथा शौर्य के वे अध्याय जो क्रांति की उस ज्वाला के दिव्य दर्शन- इतिहास में ले जाकर स्वतंत्रता की स्मृतियों के सहारे राष्ट्र के प्रति समर्पण एवं स्वतंत्रता के मायनों को सिखाते हैं। नेताजी के विचार, उनके कार्य, उनकी हुंकार हमारे ह्रदय में बसती है तथा हर पल चाहे वह युवा तरुणाई हो या बड़े-बुजुर्ग सबको आह्वान करती है कि मां भारती के वीरों राष्ट्र के लिए सदैव मर मिटने का साहस बनाए रखना तथा मां भारती की सेवा में जीवन को अर्पित कर देना।
नेताजी भारतमाता की असंख्य संत्तानों के ह्रदय में बसते हैं तथा क्रांति की हुंकार से राष्ट्रनिर्माण के लिए आह्वान करते हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस व आजाद हिंद फौज के द्वारा मातृभूमि के प्रति जीवन समर्पित कर भारतमाता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने की अमरगाथा को हम सब जीवनभर ह्रदयतल व अपने शरीर में बहने वाले खून में प्रवाहित करते रहेंगे। नेताजी के त्याग का ऋण हम पर है तथा यह हमें सोचना होगा कि हम राष्ट्र को किस दिशा में ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं? इसके लिए हमें क्या करना होगा? शेष है कर्तव्य, राष्ट्र की वर्तमान पीढ़ी का कि वह अपने पुरखों के बलिदान व उनके महानतम त्याग को मानसपटल पर रखकर उनके आदर्शों पर चलें जिससे हमारा राष्ट्र महानता के उस शिखर पर पहुंच सके जिसका संकल्प हमारे पुरखों ने लिया था।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)