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बिटिया दिवस : पुश्तैनी संपत्त‌ि में बेटि‍यों का अधि‍कार: कि‍तना सही, कि‍तना गलत

हमें फॉलो करें बिटिया दिवस : पुश्तैनी संपत्त‌ि में बेटि‍यों का अधि‍कार: कि‍तना सही, कि‍तना गलत
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डॉ. छाया मंगल मिश्र

अब आपको ये गाने की जरुरत नहीं है कि- 'मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर पियारा लगे' क्योंकि बाबुल के घर में भी आपकी जगह महफ़ूज है। हिदुस्तान में रहने वाले हम हिन्दुओं के लिए बहन-बेटियों का विशेष मान-सम्मान रहा है।

कोई भी सामाजिक कार्यक्रम, धार्निक अनुष्ठान, पारिवारिक उत्सव हो बहन-बेटियों का विशेष महत्व है। चाहे वे विदेशों में बसे हों या देश में अपनी बहन-बेटियों के लिए भावनाओं से ओत-प्रोत हैं।

राखी, भाईदूज जैसे कई त्यौहार भाई-बहनों के प्रेम, लाड़, दुलार, स्नेह का परिचायक हैं। सावन आते ही बेटियों-बहनों के मन में पीहर जाने की उमंग हिलोरें लेने लगती हैं। कई सारे लोक गीत, फ़िल्मी गीत इसी भावना, पीहर प्रेम, सखियों, गलियों, चौबारे, झूलों, बाबुल-बीरा के यादों के साथ बने हैं जिसमें बादल, चंदा, हवा, पक्षियों के साथ बहनें अपने ‘संदेसे’ पीहर पहुंचा रहीं हैं।

‘सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में सहदाय‌िकी (पुश्तैनी) संपत्त‌ि में बेटियों के समान अधिकार को मान्यता दी है। सुप्रीम कोर्ट ने सहदाय‌िकी संपत्त‌ि के हस्तांतरण से संबधित कानून और साथ ही बेटियों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में 2005 किए गए संशोधन के प्रभाव की व्याख्या की है। जस्टिस अरुण मिश्रा, एस अब्दुल नज़ीर और एमआर शाह की पीठ ने कहा है कि शास्त्र‌ीय हिंदू कानून में बेटी को संपत्त‌ि में सहभागी नहीं बनाया गया है।

2005 में संविधान की भावना के अनुसार, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के साथ यह अन्याय समाप्त किया गया। जस्टिस मिश्रा, जिन्होंने 121 पृष्ठ के फैसले को लिखा है, मूल हिंदू उत्तराधिकार कानून की चर्चा के साथ फैसले का आरंभ किया है। बाद में उन्होंने संयुक्त हिंदू परिवार प्रणाली, सहदायिकी और सहदाय‌िकी संपत्ति जैसी बुनियादी अवधारणाओं की व्याख्या की है।

कुछ लोग इसे उचित ठहरा रहे हैं कुछ अनुचित। खास बात यह है कि बेटियां केवल हिन्दुओं की ही नहीं होतीं। देश में जितने भी धर्मों के अनुयायी हैं उनकी बेटियों के बारे में विचार क्यों नहीं? एक देश एक न्याय प्रणाली क्यों नहीं? उन बेटियों का क्या जो हिन्दू नहीं हैं? ये तो कोई न्याय नहीं हुआ?

दूसरा पक्ष यह है कि ज्यादातर मामलों में भाई व परिवारजन बेटियों को ‘पीहर की डेली’ से ब्लेकमेलिंग करते नजर आते हैं। कुछ तो बेशर्मी से ये कहते भी नजर आते हैं कि ‘हमने तुम्हें पढ़ाया-लिखाया, दहेज दिया, शादी में खर्च किया अब हिसाब-किताब बराबर’ इस बकवास में उस घर की औरतें भी अपनी आवाज बुलंद करतीं हैं पर जब खुद के पीहर में अपने बाप की संपत्ति के बंटवारे के समय अपने ज्ञान को भूल जाती हैं।

एक किस्सा याद आता है कि चंदा ने अपनी ननदों को अपनी जेठानी के साथ षडयंत्र कर-कर के घर से भगा दिया। भाई-बहनों के बीच खूब फूट डाली। कुटिलता से अपनी सास को बरगलाया और उन्हें धमकी देने लगीं कि तुम्हें बुढ़ापे में हम नहीं सम्हालेंगे, तुम्हारी सेवा हम नहीं करेंगे, दुर्गति हो जाएगी। उन्हें अपनी बेटियों से न मिलने के लिए मजबूर किया। बरसों बरस घर में क्लेश से भरा कलुषित वातावरण बनाया।

सास ससुर की सारी संपत्ति के लिए बहनों से पहले ही दबाव बना कर हस्ताक्षर करवा लिए। पर खुद ने पीहर में अपने भाई भाभी को इतना परेशान किया कि चंदा की भाभी ने चंदा से त्रस्त हो कर आत्महत्या कर ली। और इन सभी का नाम लिख गई। अब यहां आश्चर्य की बात यह है कि उस केस से खुद को बचाने के लिए अपने ननद-नन्दोई जिन्हें बाद में उसने बेदखल करने के साथ साथ दुनिया भर में बदनाम करते फिरने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हीं के तलुवे चाटते हुए केस से अपना नाम हटवाया।

मतलब ये है कि पुरुष तो पुरुष औरतें भी इस द्वेष और लालच के दलदल में आकंठ डूबी हुईं हैं जिन्हें खुद के पीहर में अपना हिस्सा तो चाहिए पर अपनी ननदों को उनका हिस्सा नहीं मिलना चाहिए। है इस मानसिकता का कोई ईलाज??

दूसरा किस्सा भाइयों की धोखेबाजी का है। उन्होंने तो बिना अपनी बहनों को पूछे, बताए मकान का सौदा किया और सारा नगद दबा लिया।

बहनों को जब तक मालूम हुआ, तो वो उन पैसों से एक अपने नाम का फ्लेट ले बाकी पैसों का उपयोग व्यापार में कर चुका था। अब आप क्या कर लोगे? कोर्ट कचहरी का काम तो जग जाहिर है ही। ऐसे में बहनें कहां और किसके पास जाएं?

एक और चीज, हमेशा बेटे-बहुएं धोखेबाज हों ऐसा नहीं है। मां बाप की सेवा करने के समय जो बहनें कभी खड़ी ही नहीं होतीं। हमेशा भाई भाभी की सेवा में केवल खोट निकालतीं। अपने मां-बाप को हमेशा अपनी भाई-भाभियों के खिलाफ भड़काऊ कान भरतीं नहीं थकतीं। पर उन्हें संपत्ति में से हिस्सा पूरा चाहिए। उनके पति, घर के जंवाई नहीं खलनायक की भूमिका निभाते हैं। वही खल नायक अपनी बहनों के हिस्से को डकारने से नहीं चूकते।

कई अमर प्रेम कहानियां तो ऐसी भी हैं जिनमें बहनों ने अपनी पूरी जिन्दगी अपने घर को पालने-पोसने में खर्च कर दी। और कई भाइयों ने अपनी पूरी कमाई परिवार को अर्पित कर कभी खुद के लिए नहीं सोचा। माता-पिता या घर के अन्य सदस्यों की जिम्मेदारी उठाना कोई आसन बात या काम तो नहीं? कुछ सदस्य तो कभी जिम्मेदारियों से कोई नाता ही नहीं रखते तो कुछ जिम्मेदारियों की चक्की में बुरी तरह पिस जाते हैं. बावजूद इसके बंटवारे का कानून कागजी समानता भले ही दर्शाता हो पर व्यावहारिक रूप से ये अन्याय का बड़ा कारण भी सिद्ध हो सकता है! 

साल 2005 में संशोधन होने के पहले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत प्रॉपर्टी में बेटे और बेटियों के अधिकार अलग-अलग हुआ करते थे। इसमें बेटों को पिता की संपत्ति पर पूरा हक दिया जाता था, जबकि बेटियों का सिर्फ शादी होने तक ही इस पर अधिकार रहता था। विवाह के बाद बेटी को पति के परिवार का हिस्सा माना जाता. हिन्दू उत्तराधिकार 2005 से संशोधन के बावजूद बेटियों की संपत्ति में अधिकार का मामला अंतर्विरोधी और पेचीदा कानूनी व्याख्याओं में उलझा हुआ था।

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार 9 नवंबर 2005 से पहले अगर पिता की मृत्यु हो चुकी है, तो बेटी को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलेगा। कानून में भी यह व्यवस्था पहले ही कर दी गई थी कि अगर पैतृक संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर, 2004 से पहले हो चुका है, तो उस पर यह संशोधन लागू नहीं होगा। और इसी पेचीदा कानूनी व्याख्याओं और अंतर्विरोध को इस नवीन फैसले ने स्पष्ट कर दिया है। कोई भी व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) स्वयं अर्जित संपत्ति को वसीयत द्वारा किसी को भी दे सकता है। जरूरी नहीं कि परिवार में ही दे, किसी को भी दान कर सकता है। निस्संदेह पत्नी-पुत्र-पुत्री को पिता-पति के जीवनकाल में, उनकी संपत्ति बंटवाने का कानूनी अधिकार नहीं। मुस्लिम कानूनानुसार अपनी एक तिहाई संपत्ति से अधिक की वसीयत नहीं की जा सकती।

हिन्दू कानून में पैतृक संपत्ति का बंटवारा संशोधन से पहले सिर्फ मर्द उत्तराधिकारियों के बीच ही होता था। पुत्र-पुत्रियों से यहां अभिप्राय सिर्फ वैध संतान से है। अवैध संतान केवल अपनी मां की ही उत्तराधिकारी होगी, पिता की नहीं। वैध संतान वो जो वैध विवाह से पैदा हुई हो। वसीयत का असीमित अधिकार रहते उत्तराधिकार कानून अर्थहीन हैं।

संशोधन से पहले पैतृक संपत्ति का सांकेतिक बंटवारा पहले पिता और पुत्रों के बीच बंटवारा होता था और पिता के हिस्से आई संपत्ति का फिर से बराबर बंटवारा पुत्र-पुत्रियों (भाई-बहनों) के बीच होता था। इसे यूं समझें -मान लें, कि पिता के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं और पिता के हिस्से आई पैतृक संपत्ति 100 रुपये की है, तो यह यह माना जाता था कि अगर बंटवारा होता तो पिता और तीन पुत्रों को 25-25 रुपये मिलते। फिर पिता के हिस्से में आये 25 रुपयों का बंटवारा तीनों पुत्रों और दोनों पुत्रियों के बीच पांच-पांच रुपये बराबर बांट दिया जाता।

मतलब तीन बेटों को 25+5=30×3=90 रुपये और बेटियों को 5×2=10 रुपये मिलते। संशोधन के बाद पांचों भाई-बहनों को 100÷5=20 रुपये मिलेंगे या मिलने चाहिए। अधिकांश ‘उदार बहनें’ स्वेच्छा से अपना हिस्सा अभी भी नहीं लेतीं।

कृपया ध्यान दें कि बेटियों को पिता की स्वयं अर्जित संपत्ति में ही नहीं, बल्कि पिता को  पैतृक संपत्ति में से भी जो मिला या मिलेगा उसमें भाइयों के बराबर अधिकार मिलेगा। बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार जन्म से मिले (गा) या पिता के मरने के बाद? इस पर अभी यह विवाद सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन था।

2005 के संशोधन द्वारा लाए गए परिवर्तनों का उल्लेख करते हुए, न्यायालय इन मामलों में उत्पन्न होने वाले कानूनी मुद्दे का जवाब देने के ल‌िए आगे बढ़ा है विवाद में मुद्दा यह था कि क्या यह आवश्यक है कि बेटी को 2005 के संशोधन के लाभ का दावा करने के लिए संशोधन की तारीख पर बेटी के पिता को जीवित रहना चाहिए। यह मुद्दा दो पूर्व निर्णयों द्वारा व्यक्त किए गए परस्पर विरोधी विचारों के मद्देनजर पैदा हुआ। प्रकाश बनाम फुलवती में, यह कहा गया था कि प्रतिस्थापन खंड 6 के तहत अधिकारों को 9 सितंबर 2005 को जीव‌ित सहदायिक की जीवित बेटियों को दिया गया है, बावजूद इसके कि बेटियां कब पैदा हुईं थीं।

दानम्मा में, हालांकि संशोधन अधिनियम, 2005 से पहले पिता की मृत्यु हो गई, उनके पीछे दो बेटियां, बेटे और एक विधवा रह गई और यह यह माना गया कि बेटी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। प्रकाश बनाम फुलवती के अवलोकन से असहमति जताते हुए, पीठ ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि बेटी को 2005 के संशोधन के लाभ का दावा करने के लिए के पिता को संशोधन की तारीख पर जीवित रहना चाहिए। केस का नाम: विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस नं : CIVIL APPEAL NO. DIARY NO.32601 OF 2018 कोरम: जस्टिस अरुण मिश्रा, एस अब्दुल नज़ीर और एमआर शाह हैं।

उल्लेखनीय है कि संशोधन पर 2004 से पहले ही लंबी बहस शुरू हो चुकी थी। अधिकांश बड़े परिवारों में तय तिथि से पहले ही बंटवारे की कागजी कार्यवाही पूरी कर ली गई।

जानना जरुरी है कि कैसे इस महायज्ञ की शुरूवात हुई और कैसे पूर्णाहुति। किन किन चरणों से हो कर आहुतियां पूर्ण से सम्पूर्ण की ओर बढीं. तो जिन बेटियों के पिता का 9 नवंबर 2005 से पहले ही स्वर्गवास हो चुका है/था, उन्हें प्रकाश बनाम फूलवती (2016 (2) SCC 36) केस में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और अनिल आर दवे के निर्णय (दिनांक 19 अक्टूबर 2015) के अनुसार संशोधित उत्तराधिकार कानून से कोई अधिकार नहीं मिलेगा. लेकिन दनम्मा उर्फ सुमन सुरपुर बनाम अमर केस (2018 (1) scale 657) में सुप्रीम कोर्ट की ही दूसरी खंडपीठ के न्यायमूर्ति अशोक भूषण और अर्जन सीकरी ने अपने निर्णय (दिनांक 1 फरवरी, 2018) में कहा कि बेटियों को संपत्ति में अधिकार जन्म से मिलेगा,भले ही पिता की मृत्यु 9 नवंबर 2005 से पहले हो गई हो। पर इस मामले में बंटवारे का केस पहले से (2003) चल रहा था।

मंगामल बनाम टी. बी. राजू मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आर.के. अग्रवाल और अभय मनोहर सप्रे ने अपने निर्णय (दिनांक 19 अप्रैल, 2018) में फूलवती निर्णय को ही सही माना और स्पष्ट किया कि बंटवारा मांगने के समय पिता और पुत्री का जीवित होने जरूरी है। लगभग एक माह बाद ही दिल्ली उच्चन्यायालय की न्यायमूर्ति सुश्री  प्रतिभा एम. सिंह ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस में 15 मई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णयों के उल्लेख करते हुए अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण स्थिति का नया आख्यान सामने रखा। फूलवती केस को सही मानते हुए अपील रद्द कर दी मगर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की विशेष अनुमति/प्रमाण पत्र भी दिया ताकि कानूनी स्थिति तय हो सके।

इन निर्णयों से अनावश्यक रूप से कानूनी स्थिति पूर्णरूप से अंतर्विरोधी और असंगतिपूर्ण हो गई है। सुप्रीम कोर्ट की ही तीन खंडपीठों के अलग-अलग फैसले होने की वजह से मामला 5 दिसंबर, 2018 को तीन जजों की पूर्णपीठ (न्यायमूर्ति अर्जन सीकरी, अशोक भूषण और एम.आर. शाह) को भेजा गया, जो अभी विचाराधीन रहा। और ऐतिहासिक 2020 में एक और ऐतिहासिक फैसला अपनी जगह बना गया. सुप्रीम कोर्ट ने फैली इस कुसंगति की धुंध को अपने फैसले से छांट दिया। बेटियों को संपात्ति में समान अधिकार मिल जाना कोई आसान काम थोड़े ही है।

कोर्ट-कचहरी के लिए एक उम्र भी कम समझें! पर इस फैसले ने बेटियों को ताउम्र एक आशा और उम्मीद का दिया उनके हाथों में विश्वास की किरणों से भरा हुआ थमाया है. इस विश्वास के साथ कि यह सकारात्मक रूप से सचमुच बेटियों के हित के लिए ही इस्तेमाल किया जायेगा। परिवार के राग-द्वेष से परे, प्रेम भरे रिश्तों को कायम रखते हुए.....

(इस आलेख में व्‍यक्‍त‍ विचार लेखक की नि‍जी अनुभूति है, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)‍

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