अगर आदमी अच्छा हो तो उसे धर्म से आइडेंटिफाई करने की जरूरत महसूस नहीं होती। उसे बतौर आदमी भी देखा जा सकता है। लेकिन वो तारेक फतेह जो अपनी कौम के लिए एक आईने की तरह था, सबसे ज्यादा अपनी ही कौम में मिसंडरस्टैंड किया गया। इतना कि उसे ताउम्र अपने ही देश से निर्वासन झेलना पड़ा।
वहीं, दूसरी तरफ़ उसे सबसे ज़्यादा मुहब्बत हिंदुस्तानियों से मिली। यह मुहब्बत उन्हें इसलिए नहीं मिली थी कि वो अपनी कौम के दाग़ गिनाता-फिरता था, बल्कि इसलिए कि वो अपनी गिरेबां के प्रति बेहद ईमानदार और होशमंद आदमी था। वो धर्म की बेखुदी में नहीं था। वो जड़ों को देखने की बात करता था-- और अपने आसपास तमाम बेवकूफियों को देखकर उन पर सरेआम ठहाके लगाकर हंसता था।
इस दौर में जब हम सब अपनी-अपनी आत्माओं को महसूस करने के कर्म से दूरी बनाए रखे हुए हैं, ठीक उस वक्त में अपने ही गिरेबां में झांकना और उसे पकड़ना कोई मामूली बात नहीं है, हम सभी इससे बचते हैं। बावजूद इसके कि हम सब कहीं न कहीं जानते हैं कि हम कहां- कहां गलत हैं।
यह साहस तारेक फतेह में ही था कि अपने ही समुदाय में खड़े होकर अपने लोगों के कान मरोड़ दे, उनकी कॉलर ठीक कर दे। वो भी तब जब आपके लोग उसी गिरेबां के भीतर की गर्दन काटने के लिए तैयार बैठे हों।
हालांकि धार्मिक उन्माद और कट्टरता के इस दौर में यह समझ पाना भी मुश्किल काम है कि दरअसल कोई आपकी तरफ से बात कर रहा है, या आपके खिलाफ़। बहुत मुश्किल है यह जान पाना कि कौन साथ है और कौन खिलाफ।
इस तरह का ब्लंडर किसी भी धर्म, पंथ, समुदाय के अनुयायियों के साथ हो सकता है। फिर भी तारेक फतेह ने अपनी बात समझाने में अपनी पूरी उम्र खपा दी। क्योंकि भले ही वो अपनी कौम के खिलाफ़ नज़र आते थे, आखिरकार वे कोशिश तो अपने ही अस्तित्व को बचाने के लिए कर रहे थे। लेकिन दुर्भाग्य कि उनकी बात उनके अपने ही लोगों को समझ नहीं आई।
बहरहाल, ऐसे आदमी का इस्तेमाल उसके अपने ही लोग ठीक तरह से नहीं कर सकते। ऐसे तारक फतेहों को आखिरकार बे-वतन ही मरना पड़ता है।
कुछ वक्त पहले इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल में तारेक फतेह से एक मुलाकात हुई थी। कुछ बातें हुईं। कुल जमा तारेक फतेह एक पत्रकार के तौर पर मेरे लिए इतना भर ही हो सकते थे, लेकिन इस बीच यह पता चल जाए कि आदमी अच्छा और खरा है तो उसके साथ एक तस्वीर तो ली ही जा सकती है।