नया भारत, विकसित भारत एवं नई सोच के भारत को निर्मित करने में जो सबसे बड़ी बाधाएं देखने में आ रही हैं, उनमें हमारी संकीर्ण सोच एवं विकृत मानसिकता प्रमुख हैं। संचार क्रांति हो या अंतरिक्ष में बढ़ती पहुंच- ये अद्भुत एवं विलक्षण घटनाएं तब बेमानी लगती हैं या बौनी हो जाती हैं, जब हमारे समाज की सोच में प्यार के लिए संकीर्णता एवं जड़ता की दीवारें देखने को मिलती हैं। फिर मन को झकझोरने वाला प्रश्न खड़ा होता है कि क्या वाकई जमाना बहुत आगे निकल आया है या अब भी अंधेरे की संकीर्ण एवं बदबूदार गलियों में ठहरा हुआ है? तंग मानसिकता एवं संकीर्णता से पैदा होने वाली क्रूरता की खबरें रोज आती रहती हैं।
कभी किसी पारिवारिक मर्यादा के रूप में, सांप्रदायिक घटना के रूप में, कभी व्यक्तिगत आजादी पर हमले के रूप में। संकीर्ण मानसिकता एवं सोच का एक त्रासद, बेहूदा एवं अलोकतांत्रिक वाकया जम्मू-कश्मीर के पहलगाम जिले में हुआ है। जिसने एक प्रांत को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्रीयता को तार-तार किया है। आखिर प्यार पर सजा की मानसिकता एवं प्यार पर पहरा कब तक?
यह विडंबनापूर्ण है कि एक निजी स्कूल में काम करने वाले तारीक भट एवं सुमाया बशीर को स्कूल प्रबंधन ने शादी के दिन बर्खास्त कर दिया।
इस युगल का गुनाह यह था कि शादी के पहले से उनके बीच प्यार था यानी उन्हें स्कूल प्रबंधन ने प्यार की सजा दी। वह भी तब, जब उन्होंने शादी कर ली! प्रबंधन का कहना है कि शादी से पहले दोनों रोमानी रिश्ते में थे और उनका रोमांस छात्रों पर खराब प्रभाव डाल सकता है। बड़ा अजीब वाकया है कि जिन स्थितियों से छात्रों पर विकृत प्रभाव पड़ सकता है, उनकी तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता और जीवन से जुड़ीं इन बुनियादों बातों को झुठलाने के लिए हम न जाने क्या-क्या कर देते हैं?
प्रेम पर पहरे सदियों से बिठाए जाते रहे हैं। समाज प्रेम को अनैतिक मानता है। फिर भी प्रेम करने वाले तमाम अवरोधों, तमाम पहरों को चुनौती देते रहे हैं। मगर प्रेम जितना मोहक, जितना जादुई और जितना आनंददायक है, उतना ही जटिल भी। यही वजह है कि कभी एक-दूसरे पर जान निछावर करने का जज्बा रखने वाले अक्सर प्रेम से ऊबकर अलग होने का फैसला करते हैं। इससे समाज में टूट पैदा होती है, बिखराव आता है, विकृतियां जन्म लेती हैं। इसलिए धर्म और समाज के सिपाहियों को प्रेम के खिलाफ मोर्चाबंदी का मौका मिल जाता है। मगर प्रेम का आकर्षण कम नहीं होता, उसकी चमक फीकी नहीं पड़ती।
प्यार पर पहरे एवं अतिशयोक्तिपूर्ण सजा के कारनामे इस देश की संस्कृति एवं राष्ट्रीयता को बार-बार शर्मसार करते रहे हैं। इन अमानवीय हरकतों एवं कृत्यों से न केवल हमारी छवि को आघात लगता है बल्कि ये घटनाएं एक बड़ा सवाल बनकर खड़ी हैं, जो हमें झकझोरती तो हैं लेकिन हमारा मौन इनकी स्वीकृति के रूप में सामने आता है।
आजादी के साथ ही हमने एक नए भारत के निर्माण का सपना देखा था, जहां धर्म, जाति और रस्मों की संकीर्ण दीवारों से ऊपर उठकर हम इंसानियत और प्यार के पैगाम के साथ आगे बढ़ेंगे। लेकिन जैसे-जैसे हम तकनीक में महारत हासिल करने लगे, हमारा बौद्धिक स्तर बढ़ा, हमने विकास की नई इबारतें लिखीं लेकिन दिमागी तौर पर जाति, धर्म और संकीर्णताओं की दीवारें ढहने के बजाय बढ़ने लगी हैं।
मशहूर शायर मिर्जा गालिब का एक बहुत मशहूर शे'र है-
'ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए/
इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।'
न जाने गालिब ने किन परिस्थितियों में ये शे'र गढ़ा होगा। लेकिन ऐसा लगता है कि इश्क पर जो पहरा उस सदी में था, वह आज 21वीं सदी के ग्लोबल इंडिया में भी है।
जिंदगी जीने के तमाम तरीके भले ही बदल गए हों, लेकिन प्यार-मोहब्बत को देखने का हमारा पारिवारिक-सामाजिक-धार्मिक नजरिया आज भी सदियों पुराना है। यह बात पहलगाम के त्राल शहर के इस युगल प्रेमी के साथ घटित घटना से चरितार्थ हो गया है। तारीक भट मुस्लिम एजुकेशनल इंस्टीट्यूट की बाल इकाई में काम करते थे और सुमाया बशीर इसी संस्थान की बालिका इकाई में काम करती थीं।
एक ही जगह काम करते हुए दोनों का आपसी संपर्क धीरे-धीरे प्यार में बदल गया तो यह न किसी के लिए हैरानी की बात होनी चाहिए और न ही ऐतराज की। फिर प्यार के इस रिश्ते को उन्होंने वहीं तक रहने नहीं दिया, उसे एक-दूसरे के प्रति आपसी कर्तव्य और सामाजिक मर्यादा में भी बांधने का फैसला कर लिया। कुछ महीने पहले ही उनकी सगाई हुई थी, तब उन्होंने सहकर्मियों को दावत दी थी। एक महीने पहले उन्होंने शादी के मद्देनजर छुट्टी के लिए अर्जी दी थी और स्कूल प्रबंधन ने छुट्टी मंजूर की थी। फिर शादी के दिन उन्हें सेवामुक्त क्यों कर दिया गया? उनकी बर्खास्तगी एक निहायत अवैध, अलोकतांत्रिक और क्रूर कार्रवाई है जिसके लिए राज्य सरकार एवं उसके शिक्षा विभाग को तत्परता से कठोर कार्रवाई करनी चाहिए।
यह कार्रवाई इसलिए अपेक्षित है, क्योंकि आज समाज ही नहीं, संसार की दशा किसी से छिपी नहीं है। क्या अमीर, क्या गरीब, क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित? इस यथार्थ के विषय में सभी एकमत हैं कि तमाम विकास के दावों के बावजूद समाज संकीर्णताओं में जकड़ा हुआ है और इस जकड़न की त्रासद एवं भयावह निष्पत्तियां समाज को आहत एवं घायल करती रहती हैं। आज का समाज बुरी तरह विकृत-संकीर्ण हो चुका है और ऐसे विषम-बिंदु पर पहुंच गया है कि यदि उसकी इस गति को यहीं पर रोककर ठीक दिशा में न बढ़ाया गया तो युग-युग की संचित मानवीय सभ्यता एवं उज्ज्वल संस्कृति का विनाश अवश्यंभावी है।
अक्सर हम ऐसी घटनाओं को साधारण मानकर या किन्हीं का व्यक्तिगत, सामाजिक मसला मानकर छोड़ देते हैं। यह हमारी भूल है। ऐसी घटनाएं एक व्यक्ति, एक परिवार, एक समाज को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्रीयता को नुकसान पहुंचाती हैं। 'पहलगाम का एक निजी संस्थान का मामला' कहकर छोड़ देना ठीक नहीं होगा। निजी शैक्षिक संस्थान खोलने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। पाठ्यक्रम, पढ़ाई, परीक्षा जैसी बहुत सारी चीजों में सरकार के बनाए नियम-कायदों का पालन करना होता है। फिर कोई निजी संस्थान ही क्यों न हो, वह अपने कर्मचारी के नागरिक अधिकार का हनन कैसे कर सकता है?
लेकिन प्यार के दुश्मनों की कुंठा और क्रूरता का यह कोई पहला या अकेला मामला नहीं है। जाति व्यवस्था की सर्वोच्चता की रक्षा के लिए ही आज हमारे युवाओं को असमय बलिदान देना पड़ रहा है। उत्तरप्रदेश में एंटी रोमियो स्क्वॉड बना है, जो युवकों को सरेआम पीट रहा है और उत्तरप्रदेश पुलिस जिसके बारे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने बहुत पहले कहा कि 'वर्दीवाला गुंडा' है, अब ईरान और सऊदी अरब की धार्मिक पुलिस की तरह दिखाई दे रही है।
इतना ही नहीं, ऑनर किलिंग और जाति-पंचायतों के गैरकानूनी फरमानों से लेकर हादिया प्रकरण तक न जाने कितने मामले मिल जाएंगे जिन पर सोचते हुए मन में बरबस यह सवाल उठता है कि तमाम तकनीकी प्रगति और अत्याधुनिक कही जाने वाली चीजों की भरमार के बावजूद समाज कहां खड़ा है? समाज किधर जा रहा है? तंगमिजाजी क्यों बढ़ती जा रही है? ये कैसा समाज है? ये कैसी व्यवस्था है, जो अपनी इज्जत की खातिर अपने बच्चों को मारने के लिए तैयार है और उसके लिए नए कारण ढूंढ रहा है।
बात साफ है कि हमारा समाज हमारे युवाओं को इतना परिपक्व तो मान रहा है कि वे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन सकें, लेकिन अपनी जिंदगी के फैसले लेने के लिए वे योग्य नहीं हैं? आखिर कब हम राष्ट्र की फिजाओं को जीने योग्य बनाएंगे? कहीं-न-कहीं हमारे समाज में परिवार, धर्म व जाति की बातों की स्वीकार्यता है, क्योंकि हम अपनी झूठी मर्यादा, आन-बान-शान एवं इज्जत की खातिर अपने बच्चों की न केवल खुशियां छीनते हैं बल्कि जिंदगी तक लेने में भी दुखी नहीं होते। ऐसा बहुत से देशों में हो रहा है, जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, जॉर्डन आदि, जहां इज्जत के नाम पर हत्याओं को धर्म का चोगा पहनाकर कातिल साफतौर पर बच रहे हैं, लेकिन क्या ऐसा समाज कहीं आगे बढ़ेगा? क्या उसका कोई बौद्धिक विकास होगा?
जब हमने संविधान बनाया तो सदियों की गैरबराबरी को खत्म करके एक प्रबुद्ध भारत के निर्माण का सपना भी देखा था ताकि संकीर्णता एवं जड़ता के दल-दल में फंसा ये समाज आधुनिकता और मानववाद के रास्ते पर चलकर दुनिया को एक नई दिशा देगा। लोकतंत्र के जरिए हमने संकीर्णता, भेदभाव, ऊंच-नीच के पुराने किलों को ध्वस्त करने का सोचा, लेकिन आज लोकतंत्र इन्हीं ताकतों को सबसे बड़ा हथियार बन गया है। हर वक्त ये जाति, धर्म, मजहब, भाषा की ताकतें व्यक्तिगत आजादी की सबसे बड़ी दुश्मन हैं और इनके खात्मे के लिए हो रहे सारे प्रयासों को समाप्त करने की कोशिशें करती रहती हैं।
रस्म और रिवाज समय के अनुसार बदलने चाहिए और इसलिए संवैधानिक मूल्यों की नैतिकता ही भारत को एक रख पाएगी, क्योंकि धर्म, जाति और इलाकों की नैतिकताएं अपनी अलग-अलग होती हैं, लेकिन जब एक राष्ट्रीय नैतिकता की बात आएगी तो हमारे लिए संवैधानिक नैतिकता को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाना पड़ेगा।
सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद, लैला-मजनूं, सस्सी-पुन्नू जैसे प्रेमी युगल सदियों से हमारे देश के जनमानस में रचे-बसे हैं जिनका प्रेम सांस्कृतिक प्रतीकों में बदल गया जिसे न तो सामाजिक निषेध और न दुनियावी रस्मो-रिवाज छू पाते हैं।
शायद तारीक भट एवं सुमाया बशीर का सहजता में हुआ प्रेम भी ऐसी ही कोई इबारत बन जाए और हम एक बार फिर इस गंभीर विषय पर कुछ उदार होने की कोशिश करें।