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वो प्रदर्शन जिसने एक साथ साधे कई लक्ष्य

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अवधेश कुमार

राजधानी दिल्ली के लिए वह अभूतपूर्व दिन था। 9 जुलाई को स्वतःस्फूर्त भावना से राजधानी के कोने-कोने से हर उम्र और समूह के लोग मंडी हाउस पहुंचे तथा जंतर-मंतर तक मार्च किया। पूरा दृश्य अद्भुत था। यह राजधानी से पूरे देश को संदेश था कि इस्लामी कट्टरवाद, जिहादी कत्ल और आतंकवाद के विरुद्ध व्यापक जन आक्रोश है।

सामान्यतः आक्रोश प्रकटीकरण और विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों की पुलिस के साथ भी धींगाभुश्ती होती है। गुस्से का निशाना रास्ते चलते वाहन से लेकर भवन आदि न जाने क्या-क्या हो जाते हैं। पुलिस के बैरिकेड तो प्रदर्शनकारियों के सबसे बड़े निशाने होते हैं।

कोई बड़ा विरोध प्रदर्शन शायद ही हो जब पुलिस बैरिकेड को तोड़ने की कोशिश न की गई हो। ऐसा बड़ा विरोध प्रदर्शन हमने शायद ही देखा हो जिसमें पुलिस को गुस्से में कम से कम पानी की बौछारें न करनी पड़ी हो। यह विरोध प्रदर्शन उन सबसे अलग था। पुलिस के बैरिकेड को लोगों ने छूने तक की कोशिश नहीं की फुल। पुलिस बिल्कुल निश्चिंतता की अवस्था में अपनी ड्यूटी पर तैनात थी। ऐसा नहीं है कि विपरीत परिस्थितियों से निपटने की राजधानी पुलिस की तैयारी नहीं रही होगी। मुख्य बात यह है कि उसे कहीं भी जुलूस को संभालने या निर्धारित स्थान पर रोकने या छिटपुट हिंसा के विरुद्ध किसी तरह का बल प्रयोग नहीं करना पड़ा यानी तैयारी के उपयोग की आवश्यकता पड़ी ही नहीं।

ऐसा नहीं था कि संकल्प मार्च के नाम से आयोजित इस विरोध प्रदर्शन में मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक चलते लोगों के अंदर आक्रोश नहीं था। उदयपुर और अमरावती के जेहादी कत्ल एवं लोगों को मिल रही धमकियों के कारण सबके चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रहे थे लेकिन उनका प्रकटीकरण बिल्कुल अनुशासन बद्ध, शालीन और गरिमामय तरीके से हुआ।

वास्तव में यह उन सब लोगों के लिए सीख थी कि भयानक गुस्से के माहौल में भी कैसे संभलकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान और कानून का पालन करते हुए प्रभावी विरोध दर्ज कराया जा सकता है। पिछले कुछ समय से अलग-अलग जगहों पर शोभा यात्राओं पर हमले, कानपुर दंगे तथा 10 जून को ज्ञानवापी सर्वेक्षण के विरुद्ध हिंसक प्रदर्शनों से लेकर उदयपुर एवं अमरावती में जिहादी कत्ल तथा मिल रही धमकियों के कारण पूरे देश में गैर मुस्लिमों के अंदर गुस्सा व्याप्त है। यह सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक स्थानों पर जनता की प्रतिक्रियाओं से बिल्कुल स्पष्ट होता है।

लोग यह विचार प्रकट करते हुए देखे, सुने, पढ़े जा सकते हैं कि एक टीवी डिबेट में भाजपा की प्रवक्ता ने मुस्लिम भागीदारों द्वारा हिंदू धर्म पर की गई टिप्पणियों की प्रतिक्रिया में अगर प्रश्नात्मक लहजे में कुछ बोला तो इतना बवंडर का विषय कैसे बन गया? हतूये और जान से मारने की धमकियों के बाद हमने राजस्थान में कई जगह बड़े प्रदर्शन देखे। देश के दूसरे हिस्सों में भी छोटे-मोटे प्रदर्शन हुए। किंतु अनेक लोग इस बात से आश्चर्यचकित थे की एकपक्षीय विरोध, उग्रता और हिंसा के बावजूद देश में व्यापक पैमाने पर लोग लोकतांत्रिक तरीकों से सड़कों पर उतरने और अपना विरोध प्रकट करने के अधिकारों का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि दिल्ली के विशाल विरोध प्रदर्शन ने एक साथ कई प्रश्नों के उत्तर दिए।

सच कहा जाए तो यह एक प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन था। इसमें कोई संगठन घोषित रूप से शामिल नहीं था। किसी संगठन के नाम से इसकी अपील भी नहीं की गई थी। एक सामान्य सूचना थी जो लोगों तक पहुंच गई कि 9 जुलाई को मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक हिंदू समाज का संकल्प मार्च है।

ऐसा नहीं है कि उसके पीछे योजना व प्रबंधन के लिए संगठन नहीं लगे थे। स्वाभाविक ही इतने बड़े आक्रोश को संगठनों ने समझा और इसके अनुरूप तैयारी की। ठीक है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की ताकत देश में है और वे कम समय में भी कोई बड़ा कार्यक्रम शत प्रतिशत अनुशासित और प्रभावी तरीके से कर सकते हैं। बावजूद बिना किसी संगठन के बैनर के आयोजित मार्च मे बड़ी संख्या में लोग हाथों में तिरंगा और भगवा पर ऊं के झंडे के साथ उपस्थित हो जाएंगे इसकी कल्पना आज के समय में शायद ही कोई कर सकता था।
तो यहां से एक शुरुआत हुई और इसका असर देशव्यापी होगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

हमने देखा कि पिछले दिनों किसी प्रदर्शन में बैनर पर यह लिखा था कि ‘गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा सर तन से जुदा’ और लोग यही नारे लगा रहे थे। कहीं पत्थरबाजी से लेकर पेट्रोल बम तक भी प्रदर्शनों के दौरान चले। बस, रेलों से लेकर न जाने कितनी संपत्तियों को ध्वस्त किया गया। सबमें दूसरे के विरुद्ध अपमानजनक भाषाएं व उग्र हिंसा की ध्वनियां निकल रही थी। राजधानी दिल्ली के विरोध प्रदर्शन में वर्तमान संदर्भ में आयोजित किसी भी प्रकार के प्रदर्शनों से कई गुना ज्यादा संख्या में स्त्री, पुरुष, बच्चे, जवान, बुजुर्ग सब शामिल थे। लेकिन कहीं भी उग्रता, हिंसा या दूसरे के अपमान के लिए एक शब्द नहीं निकल रहा था।

नारे अगर थे तो भारत माता की जय, वंदे मातरम और देवी देवताओं की जय -जय कार का। नारे थे तो यही कि देश कानून और संविधान से चलेगा शरीयत से नहीं। देशभक्ति के ऐसे गीत गाए जा रहे थे, जिससे अंदर त्याग और बलिदान की प्रेरणा पैदा हो। लोग कतारबद्ध होकर आक्रोश प्रदर्शन करते चल रहे थे। पुलिस की कहीं कोई आवश्यकता ही नहीं हुई। इतनी बड़ी संख्या किस तरह सड़कों से मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक पहुंच गई और समाप्ति के बाद कैसे अपने-अपने घरों को रवाना हुई यह स्वयं को आंदोलनकारी मानने वाले भारत के सभी लोगों को देखना चाहिए था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों तथा अन्य हिंदू संगठनों पर बार-बार सांप्रदायिकता, अभद्रता, असभ्यता, दूसरे मजहबों से घृणा करने, फासिस्टवादी होने के आरोप लगाने वालों के लिए यह साक्षात प्रत्युत्तर था। क्या कोई कह सकता है कि इस प्रदर्शन के द्वारा प्रदर्शनकारी और आयोजक जो संदेश देना चाहते थे वह नहीं पहुंचा? सच कहा जाए तो ज्यादा प्रभावी तरीके से पहुंचा।

ज्ञानवापी मंदिर का मामला न्यायालय में है। जो कुछ भी हुआ वह न्यायालय के फैसले से हुआ। उसके विरुद्ध सड़कों पर उतरने, हिंसा करने वाले सीधे-सीधे पूरी न्याय व्यवस्था को दुत्कार रहे थे। बावजूद हिंदू समाज का एक व्यक्ति भी न सड़कों पर आया ना कहीं हिंसा। कोई कह रहा था कि हम सर पर कफन बांध कर निकले हैं। यह दुष्प्रचार हो रहा है कि यहां इस्लाम पर खतरा उत्पन्न हो गया है, सारी मस्जिदें छीन लो जाएंगी, नमाज नहीं पढ़ने दिया जाएगा। आम मुसलमानों के सामने ऐसा कोई खतरा नहीं लेकिन राजनीति से लेकर मजहब तक इस्लाम के नाम पर अपना प्रभुत्व कायम रखने की चाहत वालों ने पूरे माहौल को विकृत किया है। नूपुर शर्मा के टीवी डिबेट में दिए गए एक उत्तर को मोहम्मद साहब का अपमान बनाकर पूरी दुनिया में ऐसा माहौल पैदा किया कि हिंसक जेहादी तत्व लोगों को काटने पर उतर गए। तो राजधानी दिल्ली के विरोध प्रदर्शन द्वारा उन मुस्लिम नेताओं, मुल्ला मौलवियों, इमामों तथा दूसरी नकारात्मक शक्तियों को चेतावनी दी गई कि आपके रवैये के विरुद्ध देश में आक्रोश है जिसे हम संविधान और कानून के दायरे में रहकर प्रकट कर रहे हैं। यानी आप नहीं माने तो इस प्रकार का प्रदर्शन देश के कोने-कोने में होगा।

सरकारों और प्रशासन को भी इसके द्वारा चेतावनी मिल गई कि तथाकथित सेक्यूलरवाद या मुस्लिम वोटों की लालच में जेहाद, आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के खतरे की अनदेखी न करें अन्यथा उसके विरुद्ध भी जनता आक्रोश प्रकट करेंगी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यही तरीका है जिससे आप एक साथ अपना संदेश दे सकते हैं, सरकार और प्रशासन पर दबाव डाल सकते हैं तथा देश को तोड़ने, हिंसा करने, सांप्रदायिकता फैलाने की साजिश रचने वालों के अंदर डर भी पैदा कर सकते हैं।

नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।

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