देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या थी, जो यह मानने को तैयार नहीं थी कि एकसाथ तीन तलाक को अपराध करार देने वाला विधेयक भारतीय संसद में पारित हो जाएगा। खासकर राज्यसभा के अंक गणित तथा सार्वजनिक स्तर पर नेताओं के आचरण एवं वक्तव्यों को देखने के बाद वहां से इसके पारित हो जाने को लेकर आशंकाएं तो अंत तक थीं।
जब उच्च सदन में यह 99 बनाम 84 मतों से पारित हो गया तब लगा कि वाकई भारत की सोच में बदलाव आ रहा है। भाजपा के लिए अपने ही नहीं, राजग के अंक गणित से भी इसे पारित कराना संभव नहीं था। 6 सदस्यों वाली जद यू इसके खिलाफ थी। लेकिन चमत्कार देखिए, विरोध करने वाले कई दलों ने मतदान के समय बहिर्गमन कर दिया, अनेक सांसद आए ही नहीं।
हम इसे भाजपा का सदन प्रबंधन कह सकते हैं लेकिन दूसरी ओर इसके राजनीतिक मायने काफी महत्वपूर्ण हैं। एक समय राजनीतिक का माहौल ऐसा था जिसमें माना जाता था कि अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दों पर चाहे वो गलत ही क्यों न हो, खुलकर बोलना या आरपार का कोई स्टैंड लेना वोट की दृष्टि से जोखिमभरा हो जाएगा। इसलिए ऐसे मामले प्राय: संसद में आते ही नहीं थे।
आखिर 33 वर्ष पहले कट्टरपंथियों के दबाव में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को झुकना पड़ा एवं शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलट दिया गया, क्योंकि मुस्लिम नेताओं ने तर्क दिया कि यह हमारे पर्सनल कानून में दखल है जिसे हम सहन नहीं करेंगे। वैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अभी भी मानने को तैयार नहीं है और इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने का ऐलान कर दिया है।
इस पृष्ठभूमि में एकसाथ तीन तलाक के खिलाफ भारत में कानून बन जाएगा, यह कल्पना आसानी से की भी नहीं जा सकती थी। ऐसा नहीं है कि इसका विरोध नहीं हुआ। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लेकर नामी मुस्लिम संगठनों, अपने समाज में सम्मानित अनेक मौलानाओं व नेताओं ने इसका लगातार विरोध किया। देश में अलग-अलग प्रदर्शन भी हुए। दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ जिसमें महिलाओं को इकट्ठा कर बताया गया कि जिसके लिए यह कानून बनाने का दावा किया जा रहा है वे ही विरोध कर रही हैं।
पिछली सरकार के दौरान 2 बार यह विधेयक राज्यसभा में गिरा। लेकिन सरकार ने अध्यादेश के द्वारा कानून को जारी रखा। संसद सत्र के पहले दिन 21 जून को ही इसे लोकसभा में पेश किया गया। लोकसभा में इसे पेश होने को लेकर प्रक्रियागत प्रश्न उठाए गए एवं सभापति को इसके लिए मतदान कराना पड़ा।
कहने का तात्पर्य यह कि इसका रास्ता अत्यंत कठिन था। 1985-86 की मानसिकता में जीने वाले मान रहे थे कि वे विरोध में ऐसा वातावरण बना देंगे कि कोई दूसरी पार्टी समर्थन नहीं करेगी एवं यह कानून नहीं बन पाएगा। इन्होंने उच्चतम न्यायालय में भी तर्क दिया था कि यह सदियों से चली आ रही धार्मिक रीति है जिसमें एक सेक्यूलर न्यायालय दखल नहीं दे सकता।
उच्चतम न्यायालय ने 23 अगस्त 2017 को 395 पृष्ठों के अपने ऐतिहासिक फैसले में कुरान शरीफ, हदीस, इस्लामी कानूनों एवं इस्लामी देशों के यहां की स्थितियों का उदाहरण देकर साबित कर दिया कि यह गैरइस्लामी है। इस तरह उसे असंवैधानिक करार दे दिया गया।
यहां से विरोधियों ने संगठित अभियान चलाया कि जब उच्चतम न्यायालय ने एकसाथ तीन तलाक को अवैध करार दे दिया यानी तलाक हुआ ही नहीं तो फिर यह कानून बनाने का कोई मतलब नहीं है। इसे मुस्लिम विरोधी साबित करने का पूरा अभियान चला और अभी भी चल रहा है।
समय की धारा जब बदलती है तो समाज सुधार के ऐसे-ऐसे साहसी कानूनी कदम उठ जाते हैं जिनकी एक समय कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। विरोध करने वालों का तर्क तीव्र धारा में तृणमूल की तरह बह जाता है। अजीब-अजीब तर्क दिए गए। मसलन, तलाक एक सिविल मामला है और इसे अपराध बनाना गलत है। आप पति को जेल में डाल देंगे तो फिर महिला को गुजारा-भत्ता कौन देगा? यह हिन्दू और मुसलमानों में भेद करता है।
मुस्लिम समुदाय ही क्यों, किसी भी समुदाय की महिला को अगर पति छोड़ता है तो उसे आपराधिक क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए? कितने हास्यास्पद तर्क थे? इस्लाम में मान्य तीन तलाक तो कायम है। मान्य तरीके से दिया गया तीन तलाक सिविल मामला है लेकिन एकसाथ तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत मान्य नहीं है। जब मान्य नहीं है और गैरकानूनी है तो यह सिविल नहीं अपराध है और इसलिए इसे अपराध मानकर ही कानून बनना चाहिए था।
सभी समुदायों को इसमें शामिल करने का तर्क निराधार था, क्योंकि तीन तलाक या तलाक-ए-बिद्दत केवल इस्लाम में है। हिन्दुओं में तो 1955 के पहले तलाक था ही नहीं। हिन्दुओं में तलाक लेने के लिए कानूनी प्रक्रिया है जिसका पालन किए बिना आप पत्नी को उसके अधिकारों से बेदखल करते हैं तो सजा के भागीदार हैं।
उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद महिलाएं एकसाथ 'तीन तलाक' कहकर घर से निकाले जाने पर पुलिस के पास जाती थीं लेकिन पुलिस कार्रवाई करे तो किस कानून के आधार पर? यह समस्या थी इसलिए यह कानून जरूरी हो गया था।
हालांकि आरंभिक प्रावधानों का विरोध करने पर कुछ बदलाव किए गए, जैसे प्राथमिकी केवल पत्नी या उसके नजदीकी खून वाले रिश्तेदार दर्ज करा पाएंगे। पति और पत्नी के बीच पहल होती है तो मजिस्ट्रेट समझौता करा सकते हैं।
तीन तलाक गैरजमानती अपराध बना रहेगा लेकिन अब इसमें ऐसी व्यवस्था कर दी गई है जिसके बाद मजिस्ट्रेट इसमें जमानत दे सकता है लेकिन इससे पहले पत्नी की सुनवाई करनी होगी। सजा 3 साल ही रहेगी। मुकदमे का फैसला होने तक बच्चा मां के संरक्षण में ही रहेगा। आरोपी को उसका भी गुजारा देना होगा।
यह तर्क विचित्र है कि अगर पति को जेल हो गई तो गुजारा भत्ता कौन देगा? 1955 में बने हिन्दू विवाह कानून में पति की उम्र 21 और पत्नी की 18 वर्ष रखी गई जिसके उल्लंघन पर 2 साल की सजा का प्रावधान किया गया। यदि पत्नी के रहते हुए पति ने दूसरी शादी की या फिर पत्नी ने दूसरा पति कर लिया तो 7 साल की सजा होगी।
1961 में दहेज के खिलाफ बने कानून में दहेज लेने पर 5 साल और मांगने पर 2 साल की सजा का प्रावधान है। 1986 में इसे गैरजमानती अपराध करार दिया गया। भारतीय दंड संहिता में 1983 में 498 ए लाया गया जिसमें पति की क्रूरता पर 3 साल की सजा का प्रावधान किया गया। इन सब में तो तर्क नहीं दिया गया कि परिवार कैसे चलेगा?
वैसे एकसाथ तीन तलाक का हथियार इस्तेमाल करने वाले पूरे समाज के अपराधी हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार कानून को करना चाहिए। कड़ा कानून ऐसे सामाजिक-धार्मिक अपराधों में भय निरोधक की भूमिका निभाता है।
हो सकता है, बहुत लोगों को इसका ऐतिहासिक महत्व अभी समझ में न आए। किंतु यह समाज सुधार का इतना बड़ा कदम है जिसके परिणाम आने वाले समय में देखने को मिलेंगे। एकसाथ तीन तलाक के भय से महिलाओं के गुलाम की तरह जीवन जीने को विवश करने की स्थिति खत्म होगी। मुस्लिम महिलाएं निर्भय होकर अपनी सोच के अनुसार भूमिका निभाने की ओर अग्रसर होंगी। जिनके साथ तीन तलाक का अन्याय हो गया, अब न्यायालय से उनको न्याय मिलेगा, जो पहले उपलब्ध नहीं था।
हालांकि समाज के सुधार के ऐसे कदमों में समाज का पूरा सहयोग चाहिए। उसके बगैर यह सफल नहीं होगा। मजहब की गलत सोच रखने वाले प्रतिगामी तत्व समाज और परिवार में माहौल आसानी से बदलने नहीं देते इसलिए समाज के विवेकशील लोगों को आगे आना होगा। दूसरे, हर कानून के दुरुपयोग की आशंका रहती है, इसका भी ध्यान रखना होगा।
इसका राजनीतिक महत्व इस मायने में है कि मुस्लिम मतों के लिए हमेशा लालायित रहने वाली पार्टियां पीडीपी, टीआरएस, जद (यू) और तेलुगुदेशम जैसे कई दलों ने मतदान से बाहर रहने का साहस दिखाया। राज्यसभा में कम से कम 14 सदस्य मौजूद नहीं थे जिनमें कांग्रेस के ऑस्कर फर्नांडीज और राकांपा के शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल जैसे नेता शामिल हैं।
सपा के भी कुछ सांसद मतदान में शामिल नहीं हुए। क्यों? ध्यान रखिए- बसपा, सपा, पीडीपी, एआईडीएमके ने विधेयक का विरोध किया था। केवल बीजू जनता दल के सांसद प्रसन्न आचार्य ने कहा कि हमारी पार्टी और ओडिशा में हमारी सरकार महिला सशक्तीकरण के लिए लगातार काम करती आई है। यह समीकरण ही देश के बदलते वातावरण का परिचायक है।
2014 एवं 2019 में भाजपा की प्रचंड विजय ने पार्टियों के अंदर यह भाव पैदा किया है कि अब जनता का रुख बदला हुआ है जिसमें ऐसे विधेयकों के विरोध में जाकर मतदान करना हमारी राजनीति के लिए उल्टा पड़ सकता है। सभी पार्टियों में हलचल मची हुई है। इस सोच का आने वाले समय की राजनीति पर भी व्यापक प्रभाव पड़ते हुए हम देखेंगे।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)