Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

त्रिपुरा निकाय चुनाव के संदेश समझें भाजपा विरोधी

हमें फॉलो करें त्रिपुरा निकाय चुनाव के संदेश समझें भाजपा विरोधी
webdunia

अवधेश कुमार

त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा की जबरदस्त विजय ने विपक्ष के साथ पूरे देश को चौंकाया है।
पश्चिम बंगाल में भारी विजय के पश्चात ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस ने त्रिपुरा को जिस दिन से अपनी दूसरी प्रमुख राजनीति का केंद्र बिंदु बनाया था और पूरी आक्रामकता से वहां सदस्यता अभियान व चुनाव प्रचार अभियान चल रहा था उससे लगता था कि वहां भाजपा को अच्छी चुनौती मिलेगी।

चुनाव परिणामों ने इसे गलत साबित किया है। राजधानी अगरतला नगर निगम सहित कुल 24 नगर निकायों के चुनाव हुए। इनके 334 वार्डों में से भाजपा ने 329 पर विजय प्राप्त की। किसी भी पार्टी की इससे अच्छी सफलता कुछ हो ही नहीं सकती।

तृणमूल कांग्रेस को पूरे चुनाव में केवल एक सीट प्राप्त हुई। पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से पूरे देश में माहौल बनाया गया था कि भाजपा के पराभव के दौर की शुरुआत हो चुकी है और कम से कम पूर्वोत्तर में तृणमूल उसे पटखनी देने की स्थिति में आ गई है।

ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित रूप से विचार करना पड़ेगा कि राजनीति में भाजपा के विरुद्ध जिस तरह के विरोधी वातावरण या माहौल की बात की जाती है वैसा हो क्यों नहीं पाता?

तृणमूल कांग्रेस कह रही है कि वह अपने प्रदर्शन से संतुष्ट है क्योंकि बहुत ज्यादा दिन उसकी पार्टी के त्रिपुरा में आए नहीं हुए और वह मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी है। यह बात सही है कि उसने वहां माकपा को स्थानापन्न कर भाजपा के बाद दूसरा स्थान प्राप्त किया है।

बावजूद दोनों के बीच मतों में इतनी दूरी है जिसमें यह कल्पना करना व्यवहारिक नहीं लगता कि 2023 के चुनाव आते-आते उसे पाट दिया जाएगा। यह बात सही है कि अनेक बार विधानसभा या लोकसभा के चुनाव परिणाम स्थानीय निकाय के चुनाव परिणामों से बिल्कुल अलग होते हैं।

तो अभी 2023 के बारे में किसी प्रकार की भविष्यवाणी उचित नहीं होगी। लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव को न केवल तृणमूल कांग्रेस बल्कि संपूर्ण देश के भाजपा विरोधियों ने बड़े चुनाव के रूप में परिणत कर दिया था। बांग्लादेश में हिंदुओं और हिंदू स्थलों पर हिंसात्मक हमले के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान हुई छोटी सी घटना को जिस तरह बड़ा बना कर प्रचारित किया गया उसका उद्देश्य बिल्कुल साफ था।

मामला सोशल मीडिया से मीडिया और न्यायालय तक भी आ गया। पूरा वातावरण ऐसा बनाया गया मानो त्रिपुरा की भाजपा सरकार के संरक्षण में हिंदुत्ववादी शक्तियां वहां अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कर रही है और पुलिस या स्थानीय प्रशासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

त्रिपुरा सरकार की फासिस्टवादी छवि बनाने की कोशिश हुई। इसमें भाजपा के विरुद्ध माहौल बनाने की रणनीति साफ थी। दूसरी और तृणमूल कांग्रेस लगातार भाजपा शासन में उनके कार्यकर्ताओं पर हमले व अत्याचार का आरोप लगा रही थी। इससे त्रिपुरा के बारे में कैसी तस्वीर हमारे आपके मन में आ रही थी यह बताने की आवश्यकता नहीं। कल्पना यही थी कि त्रिपुरा में भी पश्चिम बंगाल दोहराया जा सकता है।

वास्तव में पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद अबी तक विपक्ष की कल्पना वैसे ही लगती है जैसे कांग्रेस ने 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में विजय के बाद मान लिया कि भाजपा पराभव की ओर है तथा राहुल गांधी के नेतृत्व में उसका पूनरोदय निश्चित है।

2019 लोकसभा चुनाव परिणामों ने इस कल्पना को ध्वस्त कर दिया। पश्चिम बंगाल संपूर्ण हिंदुस्तान नहीं है। जरा सोचिए, अगर त्रिपुरा जैसा पड़ोसी छोटा राज्य पश्चिम बंगाल की राजनीतिक का अंग नहीं बना तो पूरा देश कैसे बन जाएगा? वैसे तृणमूल कांग्रेस का यह कहना गलत है कि कुछ ही महीने पहले वह त्रिपुरा में आई थी।
सच यह है कि पार्टी की स्थापना के साथ ही ममता बनर्जी ने बंगाल के बाद अपनी राजनीतिक गतिविधियों का दूसरा मुख्य केंद्र बिंदु त्रिपुरा को ही बनाया था।

सच कहें तो त्रिपुरा निकाय चुनाव भाजपा विरोधी राजनीतिक गैर राजनीतिक सभी समूहों व व्यक्तियों के लिए फिर से एक सीख बनकर आया है। वे इसे नहीं समझेंगे तो ऐसे ही समय-समय पर भाजपा के खत्म होने की कल्पना में डूबते और परिणामों में निराश होते रहेंगे।

पश्चिम बंगाल का राजनीतिक वातावरण, सामाजिक- सांप्रदायिक समीकरण अलग है। करीब 30% मुस्लिम मतदाता और विचारों से वामपंथी सोच वाले जनता के एक बड़े समूह के रहते हुए भाजपा के लिए बंगाल में संपूर्ण विजय आसान नहीं है।

वहां भाजपा को मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक फासिस्टवादी  बताने का असर मतदाताओं पर होगा। इनमें से एक वर्ग भाजपा के विरुद्ध आक्रामक होकर मतदान में काम करेगा। ऐसा सब जगह नहीं हो सकता। उसमें भी तृणमूल कांग्रेस के शासन में पुलिस प्रशासन की भूमिका वहां चुनाव परिणाम निर्धारण का एक प्रमुख कारक थी।
निष्पक्ष विश्लेषक मानते हैं कि बंगाल में तृणमूल सत्ता में नहीं होती तो परिणाम इसी रूप में नहीं आता।

भारत में ऐसे अनेक राज्य हैं जहां भाजपा के विरुद्ध यही प्रचार उसके पक्ष में जाता है। आप एक समूह को भाजपा के विरुद्ध बताते हैं तो दूसरा बड़ा समूह एकमुश्त होकर उसके पक्ष में खड़ा हो जाता है।

विरोधी जैसा माहौल बनाते हैं जमीनी हालत वैसी नहीं होती और आम जनता की प्रतिक्रिया विरोधियों के विरुद्ध ही होती है । ऐसा संपूर्ण भारत में जगह-जगह देखा गया है। लेकिन भाजपा विरोध की अतिवादी मानसिकता वाली पार्टिया, नेता, समूह, एक्टिविस्ट, व्यक्ति पता नहीं क्यों इसे समझ नहीं पाते। जो सच है नहीं उसे आप सच बता कर अतिवादी तस्वीर के साथ प्रचारित करेंगे तो वही लोग इससे प्रभावित होंगे जिनको हकीकत नहीं पता या जो मानसिकता से भाजपा विरोधी हैं।

आम जनता खासकर स्थानीय लोग ऐसे दुष्प्रचारों से प्रभावित नहीं होंगे। निश्चित रूप से त्रिपुरा में ऐसा हुआ है। आप प्रचारित कर रहे हैं कि हिंदुओं के जुलूस ने मस्जिदों और मुसलमानों पर हमला किया, तोड़फोड़ की और वहां की मीडिया ने बताया बता दिया कि यह सच नहीं है। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो गलत साबित हुआ। इसके विरुद्ध स्थानीय जनता की प्रतिक्रिया होगी और जनता ने अपनी प्रतिक्रिया मतदान के जरिए सामने रख दिया। आप उससे सीख लेते हैं या नहीं लेते हैं यह आप पर निर्भर है।

जाहिर है, विरोधियों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। हालांकि वे करेंगे नहीं। दूसरे, इससे यह भी धारणा गलत साबित हुई है कि जमीनी वास्तविकता के परे केवल हवा बनाने या माहौल बनाने से चुनाव जीता जा सकता है। आप सोचिए न, 334 सीटों में से 25 नवंबर को 222 पर मतदान हुआ जिनमें से 217 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की।

निकाय चुनाव परिणाम की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि 112 स्थानों पर भाजपा प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हुए। इसका मतलब यही है कि बाहर भले आप माहौल बना दीजिए कि भाजपा खत्म हो रही है और तृणमूल कांग्रेस उसकी जगह ले रही है, जमीन पर ऐसा नहीं था। अगर जमीन पर तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस या माकपा का ठोस आधार होता तो कम से कम उम्मीदवार अवश्य खड़े होते। स्थानीय चुनाव में आम लोगों का दबाव भी काम करता है।

कोई पार्टी कमजोर हो तो फिर उसके लोग भी दबाव में आ जाते हैं। उन्हें लोग कहते हैं कि आपका वोट है नहीं तो फलां को जीतने दीजिए और उन्हें मानना पड़ता है। वे चुनाव में खड़े नहीं होते या खड़े हैं तो बैठ जाते हैं। तो त्रिपुरा निकाय चुनाव का निष्कर्ष यह है कि भाजपा विरोधी उसके विरुद्ध वास्तविक मुद्दे सामने लाएं और परिश्रम से अपना जनाधार बढ़ाएं तभी उसे हर जगह चुनौती दी जा सकती है।

सांप्रदायिकता, फासीवाद आदि आरोप अनेक बार बचकाने वा हास्यास्पद ही नहीं विपक्ष के लिए आत्मघाती भी साबित हो चुके हैं। भाजपा ने इन सारे प्रचारों और विरोधों का जिस तारहसभधे हुए तरीके से सामना किया तथा जमीन पर सुनियोजित अभियान चलाया उसमें भी विरोधियों के लिए स्पष्ट संकेत निहित हैं।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को 11 दिसंबर 2014 को स्वीकृति दी, जानिए योग का महत्व