उन्नाव कांड- हम नारियों के सीने में एक और खंजर! तथाकथित सुशिक्षित समाज के मुंह पर एक और झन्नाटेदार तमाचा। भारतीय राजनीति पर एक और बदनुमा दाग। अब तो दु:ख छाती में इतना जम गया है कि आंसू धारसार बरसते हैं, तब भी मन हल्का नहीं होता। रो लेने से मन हल्का होता सुना है, लेकिन बार-बार हो रहे इस अनाचार पर अब रोने से नहीं, कुछ ठोस कार्यवाही करने से ही मन शांति पाएगा।
किसी पार्टी, संगठन, समाज, व्यक्ति से नहीं, सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी से 'मन की बात' कहना चाहती हूं, क्योंकि सभी से मोहभंग हो चुका है। सब स्वार्थ में आकंठ डूबे, अपनी रोटियां सेंकते, अपने हित साधते नजर आते हैं। जिसको जहां अवसर मिला, वहीं शुरू। अपना ही अपना सोचने की संकीर्णता इतनी हावी हो गई है कि दूसरा दिखता ही नहीं।
तो सुनिए प्रधानमंत्रीजी,
महिलाओं पर अत्याचार सदियों से होते आए। सीता और द्रौपदी को हमें भूलना नहीं चाहिए लेकिन सहते-झेलते हुए भी उन्होंने अपनी 'जात' नहीं खोई। जात प्रेम की, समर्पण की, एकनिष्ठा की, त्याग की। वे घाव खाकर भी छांव देती रहीं। दर्द सहकर भी मुस्कराती रहीं। विभिन्न शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना झेलकर भी अपनों के लिए खटती रहीं।
प्राचीनकाल से आज तक 90 प्रतिशत भारतीय महिलाओं की वरीयता सूची में परिवार सर्वोच्च स्थान पर सदैव रहता आया और वे स्वयं 'अंतिम स्थान' पर। उनका कोई काम नितांत 'स्व' को समर्पित नहीं होता। उनके हृदय के विराट विस्तार में अपनों के साथ अन्य वे सभी, जो किसी मानवीय स्पर्श के जरूरतमंद होकर उनके संपर्क में आए हों, शामिल होते हैं।
सच तो ये है कि स्त्री इस धरती पर ईश्वर का नारी अवतार है। कम-अधिक रूप में ईश्वरीय गुण कमोबेश प्रत्येक नारी में होते हैं। यदि हमारी संवेदनाएं तनिक भी जीवंत हों तो इसका अहसास कदम-कदम पर हमें होता है। हमारे हर दु:ख में, कष्ट में, संकट में महिलाएं मां, बहन, पत्नी, बेटी, मित्र आदि किसी भी रिश्ते के रूप में मददगार बनकर खड़ी रहती हैं और जो 'विपरीत समय में साथ दे, वही तो ईश्वर' है।
लेकिन आज इस 'प्रत्यक्ष ईश्वर' की हमारे तथाकथित सभ्य समाज ने जो दुर्गति की है, वो असहनीय है। ऐसा लगता है मानो महिलाओं को 'इंसानों' की बिरादरी से ही बाहर कर दिया गया है। उन्हें सिर्फ 'शरीर' की संकीर्ण व घृणित दृष्टि से देखा जाने लगा है।
पुरुष शिक्षित हों अथवा अशिक्षित, अधिकांशत: महिलाओं के प्रति सोच और आचरण में समान तुला पर तुलते हैं। पहले तो घर की महिलाएं कम से कम घर में सुरक्षित होती थीं, लेकिन अब तो वे वहां भी कब किन गिद्ध निगाहों का शिकार होकर दुर्दशा को प्राप्त हो जाएंगी, कोई भी भरोसा नहीं।
पिता, भाई, ससुर जैसे रिश्ते भी अविश्वसनीय हो चले हैं। जिनके संरक्षण में महिलाएं स्वयं को अभेद्य दुर्ग की वासिनी मानती थीं, वहीं सेंध लग गई और वो भी स्वयं दुर्गपाल के हाथों। सोचिए, कितना पीड़ाजनक होता होगा ये सब महिलाओं के लिए, जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं? जब अपने ही अजनबी हो जाएं?
दुष्कर्म एक महिला के प्रति किया जाने वाला सबसे बड़ा अपराध है, क्योंकि यह उसके शरीर के साथ एक बार होता है, लेकिन आत्मा के साथ आजीवन होता रहता है। वजह? उस हादसे की कटु स्मृतियां उसे सहज जीवन जीने नहीं देतीं। उसकी 'गरिमा' पर किया गया ये सर्वाधिक भयावह आघात उसे भुलाए नहीं भूलता। फिर यदि मामला न्यायालय में चला गया तो पेशी-दर-पेशी बारंबार उसी घटना की उधड़तीं परतें संबंधित महिला के मन को भी परत-दर-परत छलनी करती जाती हैं।
सोचती हूं कि क्या ऐसा कोई दंड नहीं हो सकता, जो वासना में अंधे इन राक्षसों के हृदय में इस अपराध के लिए स्थायी डर बैठा दे? भले ही आजकल ऐसे मामलों में शीघ्र न्यायदान के प्रयास किए जाते हों, लेकिन निर्णय के बाद उसे अमलीजामा पहनाने में अब भी बहुत वक्त लगता है। पहले तो न्यायालय के विविध स्तरों में ही मामला उलझता जाता है, मृत्युदंड आजीवन कैद में बदल जाता है और कई बार राष्ट्रपति के यहां दया याचिका दीर्घकाल तक लंबित चली आती है।
आजीवन कैद में भी कई बार 14 वर्ष के बाद मुक्ति या अच्छे आचरण के आधार पर समय से पूर्व कारावास से स्वतंत्रता, जेलर या सिपाहियों से रिश्वत के दम पर जेल में भी सुविधाजनक जीवन व्यतीत करना जैसी राहतभरी गलियां होती हैं जिनका लाभ उठाकर अपराधी सामान्य जीवन की ओर लौट आता है। लेकिन पीड़िता के लिए सहज जीवन को पुन: उपलब्ध करना अत्यंत जटिल होता है। वह पहले पुलिस और न्यायालय के कुचक्र को झेलती है। जब वो समाप्त होता है, तब समाज की प्रताड़ना आरंभ हो जाती है, जो आजीवन चलती है।
भले ही शेष समाज के समक्ष पहचान उजागर न हो, लेकिन पड़ोसी व निकट परिजन तो जानते ही हैं। कहीं तो वे उसके प्रति सच्ची संवेदना से भरे होते हैं, लेकिन कहीं कुत्सित रूढ़िवादिता की झोंक में उसे हीनभावना से भी देखते हैं। उनकी निगाहों में, वाणी में, व्यवहार में वो सहज स्नेह और अपनत्व नहीं झलकता, जो घटना होने के पूर्व पीड़िता के प्रति था।
इस अंतर को पीड़िता का आहत मन पकड़ने में तनिक भी विलंब नहीं करता। स्वजनों से मिली ऐसी विपरीतता उसे पूर्ववत सहज जीवन से तो सदा के लिए वंचित ही कर देती है, फिर भले ही बाहर से वो हमारी-आपकी तरह सामान्य जीवन जीते हुए दिखाई दे लेकिन उसका आंतर उस घटना के दंश से निरंतर तड़फड़ाता रहता है। मेरे विचार से अपराधी के साथ भी दंडस्वरूप ऐसा कुछ किया जाना चाहिए जिसका कष्ट वह जीवनभर भोगे। कभी अपने भीषण अपराध को भूल न पाए और बारंबार स्वयं को उसके लिए कोसे।
माननीय मोदीजी, आपने नोटबंदी, तीन तलाक और धारा 370 समेत अनेक मुद्दों पर साहसपूर्ण व समयानुकूल निर्णय लिए हैं जिनसे अंततोगत्वा समाज और देश का हितसाधन हुआ। तो अब पूरे राष्ट्र की महिलाओं के हित में भी आपसे निर्णय अपेक्षित है।
मेरी दृष्टि में बलात्कारी पुरुष मानवीयता का बहुत बड़ा अपराधी है, क्योंकि वो एक बच्ची या महिला के संपूर्ण जीवन को मृतवत कर देता है। आखिर ऊर्जाहीन व उत्साहरहित जीवन किसी जीवित व्यक्ति के लिए तो मृत्युसम ही है ना! इसलिए या तो उसे पुलिस की थर्ड डिग्री जैसी भरपूर शारीरिक यातना लंबे समय तक दी जाने के बाद फांसी दी जाए अथवा उसे पौरूषहीन बना दिया जाए।
पहले प्रकार के दंड में वो रो-रोकर मृत्यु की याचना करेगा और दूसरे में आजीवन अपने आपको इस अपराध के लिए धिक्कारते हुए हजार-हजार लानतें भेजेगा। पहले प्रकार की सजा उसके मन में पीड़िता के शरीर के प्रति उसके द्वारा किए गए अनाचार का स्मरण कर रह-रहकर टीस उठाएगी और दूसरे प्रकार की सजा उसे जीवन के एक अहम सुख- कामसुख से सदैव के लिए वंचित कर देगी। जब कुछ अपराधियों का ये हश्र भविष्य में ऐसा करने की कुत्सित इच्छा रखने वाले दुर्जन देखेंगे, तो उनके दिलों में हौल पैदा होगा तब संभवत: वे इस अपराध को करने से विरत होंगे।
मोदीजी, आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि सदियों से चले आ रहे और आज के युग में और अधिक अमानवीय और नृशंसता की सारी हदें पार करते जा रहे इस अपराध के लिए अब उपर्युक्त अथवा इसी प्रकार के कोई अन्य कड़े दंड विधान को लागू करें ताकि नारी शक्ति समुचित रूप से संरक्षित होकर अपने जीवन को उसके सही मायनों में भरपूर जी सके।
मुझे विश्वास है कि 'मोदी है, तो ये भी मुमकिन है।'
आमीन!