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UP Election: विपक्ष भाजपा को दबाव में लाने योग्य मुद्दा नहीं ढूंढ सका

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अवधेश कुमार

सामान्य तौर पर देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर से विधानसभा चुनाव का उम्मीदवार बनाया जाना स्वाभाविक घटना होनी चाहिए।

गोरक्ष पीठाधीश्वर के प्रमुख होने के साथ वहां से वे 1998 से 5 बार लगातार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। वह उनका मुख्य कार्यक्षेत्र रहा है। लेकिन विपक्षी दलों ने उसे भी एक बड़ा मुद्दा बना दिया है।

पहले सपा के प्रमुख पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनके उम्मीदवारी पर प्रश्न उठाया एवं उपहास उड़ाया। उसके बाद से उनकी पूरी पार्टी लगातार यही कर रही है। कांग्रेस के भी कई नेता ऐसे बयान दे रहे हैं मानो गोरखपुर से उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने अपनी हार मान ली हो। प्रश्न है कि वो कहां से लड़ते तो माना जाता कि भाजपा ने सही फैसला किया? यह बात सही है कि उनके अयोध्या से लड़ने की चर्चा थी। कुछ लोगों ने उनके मथुरा से भी उम्मीदवार बनाए जाने की मांग की।

अयोध्या भाजपा और पूरे संघ परिवार के लिए धार्मिक- आध्यात्मिक -सांस्कृतिक पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण प्रतीक है। श्री राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के माहौल में यह कल्पना थी कि आदित्यनाथ वहां से उम्मीदवार बनेंगे तो उसका संदेश पूरे प्रदेश और देश में जाएगा।

मथुरा से उनके उम्मीदवार बनाने की मांग के पीछे यही भाव था कि उस संघर्ष को ताकत मिलेगी एवं इस बात का संदेश जाएगा कि भाजपा प्रखर हिंदुत्व के अपने रास्ते पर कायम है। यह भी सच है कि अभी तक भाजपा की ओर से कभी नहीं कहा गया कि योगी आदित्यनाथ कहां से उम्मीदवार होंगे।

गोरखपुर पर जब ऐसी प्रतिक्रिया है तो अयोध्या से उनकी उम्मीदवारी पर कैसी प्रतिक्रियाएं होती इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति पर दृष्टि रखने वाले जानते हैं कि विरोधी योगी आदित्यनाथ की अयोध्या से उम्मीदवार बनाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे क्योंकि उसके बाद की प्रतिक्रियाएं उन्होंने तैयार कर रखी थी। कुछ प्रतिक्रियाएं पहले से आने लगी थी। वास्तव में उन्हें अयोध्या से उम्मीदवार बनाए जाने पर पहली प्रतिक्रिया यही होती कि भाजपा समझ गई है कि वह हारने वाली है इसलिए उसने हिंदुओं के ध्रुवीकरण के लिए योगी आदित्यनाथ को अयोध्या से उम्मीदवार बनाया है। यह अवसर विपक्ष को नहीं मिल पाया।

सही है कि भाजपा के अंदर विमर्श चला था कि योगी आदित्यनाथ को कहां से उम्मीदवार बनाया जाए। चर्चा में अयोध्या भी शामिल था। लेकिन कभी उसका फैसला नहीं हुआ। भाजपा की रणनीति यह है कि वह चुनाव में विजय के प्रति आत्मविश्वास से भरी हुई पार्टी दिखे। वह ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकती जिससे लगे कि वह किसी तरह परेशान है या अपने चुनावी भविष्य को लेकर चिंतित है।

अयोध्या से उनके उम्मीदवार बनाए जाने का मतदाताओं पर क्या असर होता यह कहना कठिन है लेकिन इसका एक अर्थ निकाला जाता कि वह जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है इसीलिए हिंदुत्व का सबसे बड़ा कार्ड खेला है।
ध्यान रखिए, उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को भी प्रयागराज के सिराथू से उम्मीदवार बनाया गया है जो उनका मुख्य कार्यक्षेत्र रहा है। भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व की संसदीय राजनीति में सामान्यतः बड़े से बड़े नेता अपने मुख्य कार्यक्षेत्र या स्थापित चुनाव क्षेत्र से ही चुनाव लड़ते हैं। इसके अपवाद अवश्य रहे हैं। पर अपवाद और असामान्य स्थिति में ही सामने आया।

वैसे भाजपा द्वारा जारी अभी तक के उम्मीदवारों की सूची देखें तो उसमें भी यही लगता है कि पार्टी बिल्कुल सहज सामान्य तरीके से चुनाव में उतर रही है। बहुत ज्यादा विधायकों के टिकट नहीं काटे गए जबकि आम धारणा यही थी कि उसके विधायकों के खिलाफ जनता के अंदर असंतोष है और भारी संख्या में उनके टिकट काटे जाएंगे। तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उम्मीदवारी को पूरे संदर्भों से मिलाकर देखना चाहिए।

योगी और मौर्या दोनों के लिए क्षेत्र से चुनाव लड़ने का मतलब यह हुआ कि उन्हें पूरे प्रदेश में चुनाव अभियान चलाने तथा रणनीति बनाने का पूरा अवसर उपलब्ध है। नई जगह से उनको अपने चुनाव की भी थोड़ी चिंता होती तथा कुछ न कुछ अतिरिक्त समय देना पड़ता। इस नाते भी भाजपा की दृष्टि से यह बिलकुल स्वाभाविक रणनीति है।

यह भी न भूलिए कि गोरखपुर का चुनाव अंतिम चरण में है। इस तरह योगी आदित्यनाथ के पास प्रदेश की चुनाव कमान संभालने के लिए पूरा समय है।

इसके दूसरे पहलू भी हैं और यह विपक्ष को कटघरे में खड़ा करने वाला है। लंबे समय से उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री विधानसभा से निर्वाचित होकर नहीं पहुंचा। योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्या को भी विधान परिषद से लाया गया था। वे चुनाव लड़ सकते थे लेकिन पार्टी ने यही निर्णय किया। इसके पहले अखिलेश यादव और मायावती दोनों विधान परिषद से ही निर्वाचित होकर मुख्यमंत्री बने रहे। तो भाजपा ने इससे यह संदेश दिया कि उसके मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों जनता के बीच से निर्वाचित होकर आएंगे।

इस कारण विपक्ष के साथ समस्या हो गई कि वो क्या करें? बसपा ने साफ कर दिया है कि मायावती उम्मीदवार नहीं बनेंगी। सपा के अखिलेश यादव और कांग्रेस के प्रियंका वाड्रा के बारे में प्रश्न उठाया जा रहा था कि वो बताएं कि कहां से लड़ेंगे। सपा को आभास हो गया था कि अखिलेश यादव यदि चुनाव नहीं लड़ते तो भाजपा उनके विरुद्ध ज्यादा आक्रामक होगी। योगी की उम्मीदवारी तय होने के बाद अखिलेश यादव को ही मैनपुरी के सरल सीट से उम्मीदवार होने की घोषणा करनी पड़ी। या अभी उनका घरेलू क्षेत्रीय क्योंकि मुलायम सिंह ने पहला विधानसभा चुनाव वहीं से लड़ा था।

यह पूरा क्षेत्र मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव का कार्य क्षेत्र रहा है। कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में ऐसा जनाधार नहीं है जो अब भाजपा को चुनौती दे सके। बावजूद प्रियंका वाड्रा के हाथ में चुनाव की कमान है तो उनसे भी भाजपा पूछेगी? भाजपा इसे मुद्दा बनाएगी इसमें कोई दो राय नहीं। अखिलेश यादव से भाजपा पूछ सकती है कि योगी के गोरखपुर से उम्मीदवार बनाने को आपने मुद्दा बनाया और आप भी तो अपने घर से ही चुनाव लड़ रहे है? उनकी आलोचना क्यों की? यदि वो किसी दूसरे क्षेत्र में जाते तो कहा जाता कि देखो अपने क्षेत्र में पराजय के भय से उन्होंने दूसरा क्षेत्र चुना है। कहने का तात्पर्य कि सपा, कांग्रेस या अन्य विरोधी भले गोरखपुर को लेकर कुछ भी बोले वे खुद इस घेरे आ गए हैं।

यदि उन्होंने योगी की उम्मीदवारी को मुद्दा बनाने की गलत रणनीति नहीं अपनाई होती तो ऐसी नौबत नहीं आती। आप जानबूझकर मुद्दा देंगे तो आपको भी उस के घेरे में आना ही पड़ेगा। इनसे परे इसका एक अन्य पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण व गंभीर है। अभी तक के चुनाव अभियानों का गहराई से विश्लेषण करें तो निष्कर्ष आएगा कि विपक्ष चुनाव को प्रभावित करने की दृष्टि से कोई ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं उठा पाया है जिसमें भाजपा घिरती हुई दिखे।

गोरखपुर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बनाए जाने को मुद्दा बनाने का अर्थ ही है कि आपके पास व्यापक सोच व दृष्टि का अभाव है। सच यही है कि विपक्ष अभी तक भाजपा के विरुद्ध केवल सामान्य मुद्दे उठा रहा है। मसलन, आर्थिक विकास नहीं हुआ, काशी उद्धार कर दिया उससे क्या भक्तों का पेट भर जाएगा, विकास विज्ञापन में है जमीन पर नहीं है, मुस्लिम विरोधी है, योगी अलोकप्रिय हैं, उनको जनता घर भेजने वाली है आदि आदि। बसपा ने अपना चेहरा और चरित्र बदलने की कवायद में अपनी आक्रामक छवि को बदला है। लेकिन सपा और कांग्रेस बिल्कुल आक्रामक हैं।

उनसे उम्मीद की जा सकती थी कि वो भाजपा के सरकारों एवं प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री ,उपमुख्यमंत्री आदि की गतिविधियों का गहराई से मूल्यांकन कर ऐसे मुद्दे सामने लाएंगे जिससे भाजपा घिरेगी। ऐसा न करने के कारण वह नरेंद्र मोदी सरकार, प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार एवं भाजपा आरएसएस को लेकर वही सब बातें कर रहे हैं जो लंबे समय से किया जाता रहा है। वो ऐसी सामान्य बातें हैं जो पहले भी बेअसर रही हैं।

इनसे जनता का बड़ा वर्ग प्रभावित होकर भाजपा विरोधी हो जाएगा और विपक्ष के समर्थन में मतदान करेगा ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। इसे दुर्भाग्य ही मानना होगा कि अभी तक विपक्ष भाजपा के विरुद्ध उसे दबाव में लाने  तथा जनता को प्रभावित करने योग्य  मुद्दे नहीं ढूंढ सका।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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