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दो जलेबी और एक पेप्सी का शौक़ीन यह फ़नकार अंत तक अपने 'एटीट्यूड' में रहा

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नवीन रांगियाल

(जन्म 21 मार्च 1916, अवसान 21 अगस्त 2016)

वो उस्ताद हुए, खां साहब भी और बिस्मिल्लाह भी। लेकिन जब वे पैदा हुए तो उनका नाम रखा गया था- कमरउद्दीन बिस्मिल्ला खान। बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान बचपन में अपने मामू अली बख़्श के यहां बनारस किताबी तालीम हासिल करने आए थे, लेकिन किताबी तालीम के इतर वे अपनी ‘बेग़म’ यानी शहनाई से दिल लगा बैठे। कहा जाता है जब उस्‍ताद आखि‍री दिनों में अपनी सांसे ग‍िन रहे थे तो वे अपनी शहनाई को ही बेगम कहकर पुकारने लगे थे।

उस्ताद बिस्मिल्लाह बिहार के डुमरांव में राजघराने के नौबतखाने में शहनाई बजाने वाले परिवार में पैदा हुए थे। शहनाई बजाना उनका खानदानी पेशा रहा। उनके वालिद पैगंबरबख़्श ख़ान उर्फ़ बचई मियां राजा भोजपुर के दरबार में शहनाई बजाते थे और उनके मामू अली बख़्श साब बनारस के बाबा विश्वनाथ मंदिर के नौबतखाने में शहनाई बजाते थे। बस यहीं से उस्ताद ने भी बाबा विश्वनाथ की संगत कर ली और मंदिर के आंगन को अपने रियाज की जगह मुकम्मल कर लिया।

बिस्मिल्लाह एक शिया मुसलमान थे, लेकिन सुबह लंगोट पहनकर गंगा में खूब नहाते, डूबकी लगाते और फिर बालाजी के सामने घंटों रियाज करते थे, शहनाई के सच्चे सुर की तलाश करते थे। वे पांच बार के नमाजी थे, लेकिन कहते थे कि यह शहनाई बालाजी की ही नैमत है। उन्होंने ही यह शहनाई वरदान में दी है। खुद बिस्मिल्लाह ने एक बार कहा था कि- यहीं रियाज करते करते भगवान बालाजी उनके सामने आए और सिर पर हाथ फेर कर बोले कि- ‘जाओ मियां खूब मजे करो’

यह तो हुई उनकी मौसिक़ी की शुरुआत की बातें, लेकिन इन सब के इतर उस्ताद अपने टशन और एटीट्यूड के लिए भी जाने जाते थे।

अमेरिका की सबसे बड़ी संस्था ‘रॉकफेलर फाउंडेशन’ ने उस्ताद से एक बार कहा- खां साहब, हमारे पास अमेरिका आ जाइए, यहीं बस जाइए, पूरा अमेरिका आपका इस्तकबाल करेगा, अपने सिर-आंखों पर बिठाएगा। अपनी मौसिक़ी के बेइंतेहा ऊंचे दौर में उन्हें हज़ार दफ़े अमेरिका ने अपने यहां बसाने के जतन किए। रॉकफेलर संस्था ने खां साहब से गुज़ारिश की थी कि वे उन्हें अपने देस में बसाने के लिए मरे जा रहे हैं।

अगर वे अपना देस छोड़ अमेरिका आ जाएं तो वहां बनारस की तरह उनके मन माफ़िक माहौल अता फरमाएंगे। वहां उनके लिए आला दर्जे के साज़ ओ सामां होंगे। उनकी ज़रूरत की हर एक चीज़ एक ताली पर उनके सामने हाज़िर होंगी। लेकिन उस्ताद टशन वाले थे, मौसिक़ी में मिट्टी की तरह मुलायम और लचीले होकर भी उनका अपना एटीट्यूड था… बोले, मेरे लिए अमेरिका में बनारस तो बसा दोगे, लेकिन वहां ‘मेरी गंगा कहां से बहाओगे’?


अपने इसी एटीट्यूड के बूते उस्ताद बड़े फनकार होने के बावजुद कभी किसी के सामने झुके नहीं। कहीं पढ़ने में आया था- अपने संयुक्त परिवार के ग़ुरबत के दिनों में भी उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाएं। परिवार का पेट भरने के लिए एक बार उन्हें शहनाई बजाने के लिए जयपुर जाना पड़ा था, ताकि कुछ पैसे मिल जाए। कुल जमा घोर नाउम्मीदी के दौर में भी दो जलेबी और एक पेप्सी का शौक़ीन हिंदुस्तान का यह फ़नकार अपने एटीट्यूड के साथ जिंदा रहा।

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ऐसे मुसलमान थे जो सरस्वती की पूजा करते थे। वे ऐसे पांच वक्त के नमाज़ी थे जो संगीत को ईश्वर की भक्‍ति और इबादत मानते थे और उन्‍हीं की शहनाई की गूंज के साथ बाबा विश्वनाथ मंदिर के कपाट खुलते थे।

उस्ताद ऐसे बनारसी थे जो गंगा में वज़ू करके नमाज पढ़ते थे और सरस्वती का ध्‍यान- स्मरण कर के शहनाई बजाने का रियाज करते थे। अपने धर्म में संगीत के हराम होने के सवाल पर हंस कर कह देते थे, क्या हुआ इस्लाम में संगीत की मनाही है, क़ुरान की शुरुआत भी तो ‘बिस्मिल्लाह’ से ही होती है।

शहनाई को चारदीवारी से बाहर निकालकर वैश्विक मंच पर पहुंचाने वाले ख़ान साब ऐसे कलाकार थे जिन्हें भारत के सभी नागरिक सम्मानों पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और ईरान के राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिले थे। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और शांति निकेतन विश्वविद्यालय से मानद उपाधियां भी हासिल थीं। ख़ान साब पर आधा दर्जन से ज़्यादा महत्वपूर्ण किताबें लिखी गई।

2016 में उनकी पांच शहनाइयां चोरी हो गई थीं। इनमें से चार शहनाइयां चांदी की थीं। इनमें से एक शहनाई पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उस्ताद को भेंट में दी थी। इसके अलावा एक शहनाई पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल, एक राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और अन्य दो उनके शिष्य शैलेष भागवत और एक आधी चांदी से जड़ी शहनाई खां साहब के उस्ताद और मामा अली बक्श साहब ने उन्हें उपहार में दी थीं।

चोरी के बाद खुलासा किया गया कि उन्हीं के पोते नज़र-ए आलम उर्फ़ शादाब ने चुराकर एक सर्राफ को बेच दी थीं। पुलिस ने शहनाइयों की जगह गलाई हुई चांदी बरामद की।

उनके पैतृक गांव डुमरांव से लेकर बनारस उनके नाम पर कहीं कोई संग्रहालय आदि नहीं बनवाया जा सका यहां तक कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान की कब्र पर बन रही मजार भी अब तक शायद अधूरी पड़ी है। कहा जाता है कि अभी भी उनकी मज़ार इसलिए कच्ची है, क्योंकि इस जगह को लेकर शिया और सुन्नी में विवाद है। मुक़दमा चल रहा है।

अब ऐसा कहा जाता है कि संत कबीर का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों में उनके पार्थिव शरीर के लिए झगड़ा हो गया था, लेकिन जब उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों का हुजूम उमड़ पड़ा। शहनाई की धुनों के बीच एक तरफ मुसलमान फातिहा पढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ हिंदू सुंदरकांड का पाठ कर रहे थे।

लेकिन खां साहब ने अपने किसी मजहब के आगे अपने मिजाज को तंग नहीं किया, धर्म-संप्रदाय से परे होकर अपनी शहनाई को बगल में दबाकर वे चुपचाप अपनी अनंत सुरीली यात्रा पर निकल गए।

(इस आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक की निजी अभिव्‍यक्‍ति और राय है, बेवदुनिया डॉट कॉम से इससे कोई संबंध नहीं है)

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