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बशीरहाट तो झांकी है, बंगभूमि बाक़ी है!

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सुशोभित सक्तावत

, सोमवार, 10 जुलाई 2017 (15:06 IST)
बंगाल में जो हो रहा है उस पर किसको अचरज है?
केवल दो तरह के लोगों को :
1) वे जो इतिहास से अनजान हैं।
2) वे जो ख़ुशफ़हमी के शिकार नादान हैं।
और बंगाल में जो हो रहा है उस पर कौन बात करने से कतरा रहा है?
यहां भी दो तरह के लोग :
1) वे जो इस्‍लाम के हमदर्द हैं और उसकी ग़लतियों पर परदा डालने के लिए हरदम तैयार रहते हैं।
2) वे जो केंद्र में वर्तमान में स्‍थापित शासनतंत्र के विरोधी हैं और उसको कमज़ोर करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
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लेकिन तथ्‍य तो यही है कि बंगाल अगर जल रहा है तो अचरज की कौन-सी बात है? बंगाल से ही तो इस पूरे फ़साद की शुरुआत हुई थी! बंगाल ही तो मुस्‍ल‍िम लीग का गढ़ था! बंगाल से ही तो बंटवारे की विषबेल पनपी थी! सांस्‍कृतिक पुनर्जागरण की यह भूमि ही तो मज़हबी बंटवारे की उपजाऊ धरती साबित हुई थी!
 
हमारे साथ दिक्‍़क़त यह है कि हम इतिहास को बहुत आसानी से भुला देते हैं!
 
इतिहास में झांककर तो देखिएगा!
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वर्ष 1905 में जब स्‍वाधीनता आंदोलन अभी गति ही पकड़ रहा था, जब गांधी अभी दक्षिण अफ्रीका में ही थे, जब कांग्रेस नई-नवेली संस्‍था थी, जब दूसरी तो क्‍या पहली लड़ाई भी पूरे नौ साल दूर थी और भारत में ब्रिटिश राज की जड़ें इतनी मज़बूत थीं कि जैसे उन्‍हें यहां पर और हज़ार सालों तक रहना हो, तब यह बंगाल ही था, जो मज़हबी आधार पर टूट गया था!
 
1905 का "बंग-भंग", हिंदुस्‍तान के इतिहास का वह साल, जिसे कोई भुला नहीं सकता। 1971 में पश्चिम बंगाल और बांग्‍लादेश की जो थ्‍योरी अस्‍तित्‍व में आई, उसका परीक्षण तो बंगाल 1905 में ही कर चुका था। हिन्दू बहुल बंगाल, बिहार, उड़ीसा एक तरफ और मुस्‍लिम बहुल असम और पूर्वी बंगाल दूसरी तरफ़। यह 1905 का हाल है, और आपको 2017 पर अचरज हो रहा है!
 
फिर आया 1911 का साल, जब ब्रिटिश राज की राजधानी को कलकत्‍ता से दिल्‍ली भेज दिया गया, दिल्‍ली में ब्रिटिश साम्राज्‍यवाद का "दिल्‍ली दरबार" सजा। मज़हबी आधार पर 'बंग-भंग" को निरस्‍त किया गया और अब भाषाई आधार पर बंटवारे की बात कही गई। असमिया, बिहारी, ओडिशी बोलने वाले एक तरफ़, बंगाली बोलने वाले दूसरी तरफ़। सबने कहा, अंग्रेज़ फूट डालकर राज कर रहे हैं, किसी ने नहीं कहा, मुसलमानों के दिल में तभी से बंटवारे की वह भावना भला क्‍यों सुलग रही थी, जब अभी तो हिंदुस्‍तान की आज़ादी भी मीलों दूर थी?
 
अभी किसी शाइर ने कहा कि हिंदुस्‍तान की मिट्टी में हम सभी का ख़ून शामिल है, हिंदुस्‍तान किसी की बपौती नहीं है। उन्‍हें 1947 का विश्‍वासघात याद दिलाए जाने से भी पहले 1905 की तारीख़ भला क्यों नहीं याद दिलाई जानी चाहिए?
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आज कम ही लोगों को यह याद रहता है कि जिसे हम भारत विभाजन कहते हैं, वह तकनीकी अर्थों में संपूर्ण भारत का विभाजन नहीं था, बल्‍कि वह पंजाब-विभाजन और बंगाल-विभाजन अधिक था।
 
पंजाब को बांटकर दो भागों में तोड़ दिया गया : लाहौर वाला पंजाब उधर, अमृतसर वाला पंजाब इधर। बंगाल को बांटकर दो भागों में तोड़ दिया गया : ढाका वाला बंगाल उधर, कलकत्‍ता वाला बंगाल इधर। सिंध और बलूचिस्‍तान पाकिस्‍तान को बोनस में दिए गए। और देश के दूसरे प्रांतों में रहने वाले मुसलमानों ने कहा, हम तो यहीं रहेंगे!
 
1947 में भारत की आबादी 36 करोड़ थी। 3 करोड़ मुसलमान पाकिस्‍तान गए, 3 करोड़ मुसलमान पूर्वी पाकिस्‍तान गए, साढ़े 3 करोड़ मुसलमान यहीं पर रह गए। इसको आप बंटवारा कहते हो कि मज़ाक़ कहते हो! दो नए इस्‍लामिक मुल्‍कों में मुसलमान बहुसंख्‍यक हो गए, भारत नामक तथाकथि‍त सेकुलर राष्‍ट्र में वो सबसे बड़े अल्‍पसंख्‍यक हो गए और संविधान निर्माण की प्रक्रिया इस सवाल पर आकर ठिठक जाती रही कि इतनी बड़ी मुस्‍ल‍िम आबादी को तुष्‍ट करने के लिए "कॉमन सिविल कोड" का क्‍या करें। इसको आप "टू नेशन थ्‍योरी" कहते हो कि मज़ाक़ कहते हो!
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आइए, मैं तनिक और तफ़सील से आपको बंगाल की "कलंक-कथा" सुनाता हूं।
 
वर्ष 1927 में मुस्‍ल‍िम लीग के पास केवल 1300 सदस्‍य थे। एक गांव के चुनाव का परिणाम प्रभावित कर सकें, इतनी भी इनकी हैसियत नहीं थी। 1944 में यह हालत थी कि अकेले बंगाल में पांच लाख से भी अधिक मुसलमान मुस्‍ल‍िम लीग के सदस्‍य बन चुके थे और भारत विभाजन की थ्‍योरी दिन-ब-‍दिन बल पकड़ती जा रही थी। यह सब गांधी और नेहरू की नाक के नीचे हुआ और वे ख़ुशफ़हमी में इसकी गंभीरता भांप नहीं सके। 1930 के दशक में जब नेहरू को मुसलमानों की बढ़ती महत्‍वाकांक्षा के प्रति आगाह किया गया तो उन्‍होंने किंचित भलमनसाहत से कहा कि यह हो ही नहीं सकता कि मेरे मुसलमान भाई देश को पीछे करके मज़हब को आगे करेंगे और अपने लिए एक अलग मुल्‍क़ मांगेंगे। 1905 में जो ख़तरे का संकेत इतिहास ने कांग्रेस को दिया था, उसकी उपेक्षा करने की क्षमता पंडित नेहरू में ही थी।
 
1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तो पूरा देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा था। इन दंगों की शुरुआत कहां से हुई थी? जवाब सरल है : आपके प्रिय बंगाल से!
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16 अगस्‍त, 1946 यानी भारत की स्‍वतंत्रता से ठीक एक साल पहले कलकत्‍ते में पहला दंगा भड़का और बंगाल के गांवों तक फैल गया। दंगों को मुस्‍ल‍िम लीग द्वारा जानबूझकर भड़काया गया था। वह पाकिस्‍तान के निर्माण के लिए अंतिम रूप से आम सहमति का निर्माण करने के लिए एक "ट्रिगर मूवमेंट" था। अंग्रेज़ भारत से बोरिया बिस्‍तर समेटने लगे थे और मुसलमानों को महसूस हुआ, अभी नहीं तो कभी नहीं। लोहा गर्म है, हथौड़ा मारो। और उन्‍होंने हथौड़ा मारा।
 
बंगाल से यह आग बिहार पहुंची, बिहार से यूनाइटेड प्रोविंस और वहां से पंजाब। "कलकत्‍ते का इंतक़ाम नौआखाली में लिया गया, नौआखाली का इंतक़ाम बिहार में, बिहार का गढ़मुक्‍तेश्‍वर में, गढ़मुक्‍तेश्‍वर के बाद अब क्‍या?" ये उस वक्‍़त की एक सुर्ख़ी है।
 
15 अगस्‍त को जब दिल्‍ली में आज़ादी का जश्‍न मनाया जा रहा था, तब राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी कहां पर थे? वे बंगाल में बेलियाघाट में थे। और वे वहां पर क्‍या कर रहे थे? वे उपवास पर थे और सांप्रदायिक दंगों को शांत करने की अपील कर रहे थे। भलमनसाहत से विषबेल को पनपने से रोका जा सकता है और भलमनसाहत से विषबेल को समाप्‍त भी किया जा सकता है, यह गांधी-चिंतन था। और अपने जीवनकाल में गांधी ने अपने इन दोनों बालकोचित पूर्वग्रहों को ध्‍वस्‍त होते हुए अपनी आंखों से देखा।
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मुस्‍ल‍िम लीग ने जब पाकिस्‍तान की मांग की थी, तो उसका तर्क क्‍या था?
मुस्‍ल‍िम लीग का तर्क था कि कांग्रेस "बनियों" और "ब्राह्मणों" की पार्टी है और लोकतांत्रिक संरचनाओं में मुसलमानों को पर्याप्‍त प्रतिनिधित्‍व नहीं दिया जा रहा है। तब जो सांप्रदायिक दंगे हुआ करते थे, उनमें कांग्रेसी हिंदुओं का साथ देते थे और मुस्‍ल‍िम लीग वाले मुसलमानों का। लेकिन जब पाकिस्‍तान बना तो क्‍या वहां पर वे लोकतांत्रिक संरचनाएं निर्मित हुईं, जिनकी मोहम्‍मद अली जिन्‍ना इतनी शिद्दत से बात कर रहे थे? जी नहीं।
 
भारत में पहला लोकतांत्रिक चुनाव 1952 में हुआ था, जिसमें कांग्रेस को जीत मिली थी। पाकिस्‍तान में पहला लोकतांत्रिक चुनाव इसके 18 साल बाद 1970 में हुआ। और जब उसमें पूर्वी पाकिस्‍तान के शेख़ मुजीबुल्‍ला को भारी जीत मिली तो पाकिस्‍तान में गृहयुद्ध छिड़ गया और ढाका में भीषण नरसंहार की शुरुआत हुई, जिसके गुनहगारों का फ़ैसला आज तलक बांग्‍लादेश में किया जाता है।
 
ये मुसलमानों की तथाकथित लोकतांत्रिक संरचनाएं थीं, जिसके लिए उन्होंने देश को तोड़ा!
 
1946 में उन्‍हें यह साफ़ साफ़ बोलने में शर्म आ रही थी कि हमें अपने लिए एक इस्‍लामिक कट्टरपंथी सैन्‍यवादी आतंकवादी मुल्‍क़ चाहिए, जहां हम अपना मज़हबी नंगा नाच कर सकें!
 
अभी मैं यहां पर 1971 के बाद निर्मित हुई परिस्‍थितियों में पश्‍च‍िम बंगाल और असम में बांग्‍लादेशियों की अवैध घुसपैठ की विस्‍तार से बात ही नहीं कर रहा हूं, जिसका मक़सद आबादी के गणित से चुनावों में जीत हासिल करना है। बंगाल में लंबे समय तक कम्‍युनिस्‍टों की सरकार रही, जिनकी निष्‍ठा चीन के प्रति अधिक थी और भारतीय राष्‍ट्र को दिन-ब-दिन कमज़ोर करते जाना जिनका घोषित मक़सद है। उसके बाद यहां पर ममता बनर्जी की हुक़ूमत आई, जो इस्‍लामिक तुष्‍टीकरण की बेशर्मी में कम्‍युनिस्‍टों से भी आगे निकल गई है।
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2007 में कलकत्‍ता, 2013 में कैनिंग और 2016 में धुलागढ़ में पहले ही "ट्रेलर" दिखाए जा चुके थे। और तथाकथित बंगाली भद्रलोक अपनी अपनी बाड़ियों में दोपहर की नींद ले रहा था।
 
आज जो कश्‍मीर की हालत है, वह 1946 में बंगाल की हालत थी और 1905 में आने वाले वक्‍़त का एक मुज़ाहिरा हो चुका था। 1947 में आख़िरकार बंगाल का एक बड़ा हिस्‍सा भारत से टूटकर अलग हो गया, तीस-चालीस बाद अगर कश्‍मीर आपके हाथ से चला जाए तो आपको आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए।
और नहीं, यह इसलिए नहीं हो रहा है, क्‍योंकि मुसलमानों को "सिविल राइट्स" चाहिए या उन्‍हें अपनी "रीजनल आइडेंडिटी" की रक्षा करनी है, जैसा कि हमारे सेकुलरान हमें बताते रहते हैं। यह इसलिए हो रहा है, क्‍योंकि मुसलमानों को अपना एक "इस्‍लामिक स्‍टेट" चाहिए। इसीलिए पाकिस्‍तान बना, इसीलिए बांग्‍लादेश बना, इसीलिए कश्‍मीर सुलग रहा है, इसीलिए बंगाल जल रहा है। और यह पिछले चौदह सौ सालों से हो रहा है!
 
इस्‍लाम का समूचा इतिहास लहू की एक लंबी लक़ीर की तरह है!
 
आंखें हों तो देख लीजिए, कान हों तो सुन लीजिए। इतिहास गवाह है और वर्तमान आपके सामने है। किसी शाइर ने कहा था कि आग का पेट बहुत बड़ा होता है। जब आप आग की उदरपूर्ति करते हैं तो वह और भड़कती है ठंडी नहीं होती। आप और कितना दोगे? आप पहले ही बहुत दे चुके हैं और आग की भूख शांत होने का नाम नहीं ले रही है! आप अपने आपको और कब तक भुलावे में रखोगे!
 
बशीरहाट तो झांकी है, बंगभूमि बाक़ी है!

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