आंदोलन की यह प्रवृत्ति अत्यंत चिंताजनक है। किसान संगठनों के बैनर से जिस तरह के दृश्य आ रहे हैं वो किसी भी विवेकशील व्यक्ति को भयभीत करेंगे। ऐसा लगता है जैसे छोटे-मोटे युद्ध की तैयारी से कूच किया गया है। ट्रैक्टरों को इस तरह मॉडिफाई किया गया है कि वो हथियार के रूप में प्रयुक्त हों।
हथियार का अर्थ गोला बारूद चलाना ही नहीं होता। उसका हॉर्स पावर बढ़ाया गया है, आम बुलडोजर या जेसीबी आदि की तरह परिणित किया गया है तो यह भी इस श्रेणी में आएगा। आंसू गैस के गोलों और अन्य छोटे-मोटे पुलिस अवरोधों को निष्फल या सामना करने के लिए भी यांत्रिक और अन्य तैयारियां दिखाई दे रही हैं। इन सबके उपयोग के लिए प्रशिक्षित लोग दिख रहे हैं।
जूट के भंडार हैं। आंसू गैस के गोलों को प्रशिक्षित समूह की तरह पकड़कर उल्टा उसी दिशा में फेंका जा रहा है। बड़ी तैयारी, भारी संसाधनों तथा लंबे प्रशिक्षण आदि के बगैर यह सब संभव नहीं है। खाने-पीने से लेकर दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की तैयारी इतनी है कि ये महीनों डटे रह सकते हैं। इस तरह की युद्धजनित सोच, व्यूह रचना, प्रशिक्षण आदि के पीछे सामान्य शक्तियां नहीं हो सकती। एक ट्रैक्टर में कई लाख खर्च हुए होंगे। आंदोलन में शामिल लोगों के बयानों और व्यवहारों से भी प्रमाण देना मुश्किल है कि वाकई ये लोकतांत्रिक तरीके से सत्याग्रह कर रहे हैं।
कानून का पालन करते हुए कोई भी आंदोलन, धरना-प्रदर्शन कर सकता है। किंतु पंजाब से आरंभ यह आंदोलन वाकई लोकतांत्रिक व्यवस्था के आंदोलन की श्रेणी में आ सकता है? कृषि कानून विरोधी आंदोलन 2020 और 21 में भी मान्य लोकतांत्रिक चरित्र और व्यवहारों से परे था और इस बार भी।
26 जनवरी, 2021 को गणतंत्र दिवस के परेड के समानांतर किसान संगठनों ने ट्रैक्टर परेड में सिंधु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बोर्डर से प्रवेश ट्रैक्टर ऐसे चल रहे थे मानो वे दिल्ली को रौंद देंगे। निर्धारित मार्गों से निकलकर जहां मौका मिला वही ट्रैक्टर ऐसे दौड़ाने लगे जैसे मोटर रेस में भाग ले रहे हों।
एक ट्रैक्टर आईटीओ पर पलट गया और उसके चलाने वाले की अत्यंत दुखद मृत्यु हो गई। किसान संगठनों ने मृतक को शहीद घोषित किया तथा इसके लिए भी सरकार को दोषी ठहराया, जबकि दोषी वे स्वयं थे। भारी संख्या में उपद्रवी लाल किले पर चढ़ गए और स्थिति को देखते हुए पुलिस ने संयम दिखाया। इसमें अनेक पुलिसकर्मी घायल हो गए। उपद्रवियों ने लाल किले की दीवार से धकेलना शुरू कर दिया। इस तरह की हिंसा, उग्रता और हुड़दंग कभी देखी नहीं गई थी।
अगर पुलिस कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए इसका प्रत्युत्तर देती तो न जाने कितनी संख्या में लोग हताहत होते। पूरा देश लाल किला का दृश्य देखकर दहल गया था। उस घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश पैदा हुआ।
काफी संख्या में लोग सुरक्षा बलों का तेवर देखकर भाग चले तथा कई किसान संगठनों ने अपने को आंदोलन से अलग कर लिया। बावजूद समाप्त नहीं हुआ। धीरे-धीरे धरना स्थल पर पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश से लोग आते रहे और उन्होंने लंबे समय तक मुख्य सड़कें जाम रखीं।
हालांकि धीरे-धीरे तीनों स्थानों पर धरने पर बैठे लोगों की संख्या इतनी कम हो गई थी कि उन्हें कभी भी हटाया जा सकता था। अचानक लखीमपुर खीरी में अक्टूबर, 2021 में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा के कार से चार लोग कुचलकर मारे गए और बाद में चार और मरे। इससे आंदोलन फिर जीवित हो गया। अंततः नवंबर, 2021 में गुरु पुरब के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए तीनों कृषि कानून वापस ले लिए कि कानून अच्छे थे लेकिन वह इसकी अच्छाई लोगों को समझाने में सफल नहीं रहे।
बावजूद धरना समाप्त नहीं हुआ। हटे तभी जब सरकार ने आंदोलन के दौरान मृतकों को मुआवजा देने, दर्ज मुकदमे वापस लेने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानून के लिए समिति बनाने की घोषणा की। आंदोलन के दौरान लड़की से बलात्कार तथा एक युवक की बेरहमी से हत्या की घटनाएं भी हुई।
इस पृष्ठभूमि में वर्तमान उग्र और डरावनी तस्वीरों से हैरत नहीं होनी चाहिए। तब मुख्य मार्गों को लंबे समय तक जाम करने के कारण लाखों लोगों को परेशानियां होती रही, मजदूर, छोटे-बड़े कारोबारियों के सामने परेशानियां खड़ी होती रही, कई फैक्ट्रियां कच्चे और निर्मित मालों की आवाजाही बाधित होने के कारण बंद होने के कगार पर पहुंच गई, जगह-जगह लोगों ने उनके विरोध में आवाजें उठाई, प्रदर्शन भी किया, पर वे बेअसर रहे।
इस बार वे अपने स्तर से हर तरह की तैयारी से आए हैं और इनके पीछे की शक्तियों ने भी पूरी मदद की होगी। इसलिए इनके आसानी से वापस जाने का कोई कारण नहीं दिखता है। कृषि सम्मान का काम और सुखपूर्वक जीवन जीने का आधार बने, किसानों की स्थिति सुधरे इसके लिए जो कुछ संभव है किया जाना चाहिए। पर इस तरह के गरिमाहीन और हिंसक आचरण वाला आंदोलन किसानों की ही छवि कलंकित करने वाला है।
इस समय का दृश्य देखकर कौन कह सकता है कि वाकई किसानों के सामने संकट है? सरकार किसी तरह की वार्ता कर ले ये नहीं मान सकते। पिछली बार भी सरकार ने 11 दौर की वार्ताएं की थी। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानून पर उच्चतम न्यायालय की निगरानी में पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल की अध्यक्षता में समिति गठित हुई।
सरकार ने इसके 37 दौर की बातचीत की जानकारी दी है। एमएसपी केवल केंद्र का विषय नहीं इसमें राज्यों की भी आवश्यकता है। ज्यादातर किसान संगठन समिति के पास बातचीत के लिए पहुंचे ही नहीं। पूछा जाना चाहिए कि आपने समिति के समक्ष जाकर अपनी बात क्यों नहीं रखी?
वस्तुत: किसानों के नाम पर आरंभ आंदोलन पहले भी संदेहास्पद था और इस बार भी। इसके पीछे की शक्तियों के राजनीतिक और गैरराजनीतिक स्वार्थ थे। पिछली बार इनके भाजपा विरोधी शीर्ष राजनीतिक और गैर राजनीतिक शक्तियों से उतने गहरे संबंध नहीं थे। आज उनके संबंध किसी से छुपे नहीं है।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राकेश टिकैत के साथ ज्यादातर किसान नेता नजर आए थे। एक नेता ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद कहा भी कि हमने तो विपक्ष के लिए पिच तैयार कर दी थी लेकिन ये लाभ नहीं उठा सके।
विदेशों में पाकिस्तान, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा से भी विरोध प्रदर्शन, बयानबाजी तथा टुलकिट के सारे प्रकरण हमें भूलने नहीं चाहिए। मियां खलीफा से ग्रेटा थनबर्ग तक इस आंदोलन के भागीदार बने थे। इनमें से ज्यादातर सक्रिय होंगे।
कांग्रेस उनके साथ खड़ी है जबकि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट उसके शासनकाल में 2004 से 6 के बीच आई थी। सरकार ने 2011 में संसद में सुझाए गए कृषि पैदावार के मूल्यों को अव्यावहारिक कहा था। राहुल गांधी एमसपी गारंटी कानून देना चाहते हैं तो जिन राज्यों में उनकी या सहयोगी दलों की सरकारें हैं वहां लागू करवा दें। नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों की समस्याओं को गहराई से समझने तथा ठोस कदम उठाने की सबसे ज्यादा कोशिश की है।
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनेक अंशों पर सरकार ने काम किया है। किसानों के पैदावार के उचित मूल्य मिले यह आवश्यक है। जब इरादे कुछ और हों तो कोई हल नहीं निकल सकता। विश्व की कोई सरकार सभी किसानों के सारे पैदावार को न्यूनतम मूल्य देकर नहीं खरीद सकती। यह न किसानों के हित में होगा, न देश के। सरकारें कितनी संख्या में भंडारों का निर्माण करेंगी? खजाने की स्थिति क्या होगी? एमसपी में केवल 23 फैसले हैं। बागवानी की फसलें इसमें शामिल नहीं है।
इस तथाकथित आंदोलन का कोई न एक नेता है, न स्वीकारने योग्य दिशा और विचारधारा। आंदोलनकारियों के बयान सामने हैं। एक नेता तेजवीर सिंह इसे मणिपुर हिंसा, पहलवानों, अग्निवीर, नूंह हिंसा आदि की लड़ाई बता रहे हैं और स्वयं को विपक्ष।
इस आंदोलन के मुख्य चेहरा भारतीय किसान यूनियन सिद्धपुर के अध्यक्ष जगजीत सिंह डल्लेबाल के एक बयान में मोदी के मजबूत होने पर चिंता व्यक्त की जा रही है। किसान मजदूर संघर्ष समिति के महासचिव सरवन सिंह पंढेर भी इसी तरह की बात कर रहे हैं। ये सारे नेता केंद्र के साथ बातचीत में शामिल हैं।
कोई कह रहा है कि मोदी पिछली बार पंजाब से लौट कर चला गया इस बार नहीं जाएगा। पंजाब के अलग करने और प्रतिबंधित संगठनों की आवाज उठाने वाले भी हैं इसमें। कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी दल भले इसमें अपना राजनीतिक लाभ देखें, यह भविष्य के लिए खतरनाक साबित होगा।
साफ है कि बातचीत या मान्य लोकतांत्रिक तरीकों द्वारा इन संगठनों के नेताओं को शांतिपूर्वक वापस घर भेजना या किसी तरह का हल निकालना कठिन है। नैतिक और ईमानदार किसान संगठनों और आंदोलनकारियों को इनसे दूर रहना चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)