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‘वारी’ पर वारी वारी जाऊँ...

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स्वरांगी साने

एक दिन पहले से ही ‘जय हरि विट्ठल’ का नाद सुनाई देने लगा…जगह-जगह गोपी चंदन लगाए लोग दिखने लगे…, ‘उद्या वारी न (कल वारी न)’ के सहज संवाद होने लगे। घर के कामों में हाथ बँटाने वाली ने कह दिया कि उस दिन वह जल्दी आएगी क्योंकि उसे पालकी के दर्शन करने जाना है। दूसरे दिन सुबह चार बजे से ही ‘विट्ठला-गोविंदा’ का नाम स्मरण करते लोग रास्तों पर दिखने लगे...पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया था।
 
‘आलंदी से विश्रांतवाडी चौराहा यूँ तो ज़्यादा दूर नहीं, पर पालकी को यहाँ आने में दोपहर के देड़-दो बजे जाते हैं’, ‘बारिश भी होती ही है’… ‘माना जाता है इसमें सबसे कठिन चढ़ाई दिवे घाट की होती है’, हर किसी के पास इसी तरह की बातें थी…जैसे कोई और विषय रह ही नहीं गया था, या किसी और विषय के बारे में कुछ और चर्चा कम से कम इन दिनों तो कोई करना ही नहीं चाहता था।
 
आलंदी से निकली पालखी आज पुणे आ पहुँची…यह पालकी थी ‘वारी’ की…‘वारी’ मतलब आना-जाना, अपने घर से पंढरपुर स्थित भगवान विट्ठल के मंदिर तक पैदल जाना और लौटना…पहले कभी लोग बुआई के बाद अकेले-दुकेले जाते थे लेकिन फिर साथ जाने लगे….साथ जाने लगे तो कितने लोग साथ जाने लगे…तकरीबन दस लाख…एक बार चलना शुरू किया तो 15 किलोमीटर तक लंबी रेलचेल…बीच में विश्राम…चाय-नाश्ता, भोजन-पानी के लिए।
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‘वारी’ जिस-जिस मार्ग से गुज़रती है वहाँ का वातावरण तो उसे देखना ही चाहिए जिसे वाराणसी के घाट को देखने का मोह हो। वहाँ गंगा बहती है, यहाँ भक्ति। भक्ति की इस धारा में जो शामिल नहीं हो सकते वे सड़क के दोनों ओर खड़े होते हैं…कुछ समूहों में (मनपा-महानगर पालिका) से अनुमति लेकर स्टॉल लगाते हैं। जिन्हें अनुमति मिलती हैं उनमें से कोई पानी की बोतलें देता है, कोई बिस्कुट-चिक्की, कोई केले-साबूदाना खिचड़ी तो कहीं समूह के भोजन की व्यवस्था होती है।
 
वारकरी (वारी में चलने वाला) जिस अनुशासन में होता है वह देखते ही बनता है। कहीं कोई धक्का-मुक्की, छीना-झपटी नहीं। अमीर क्या, ग़रीब क्या लहू का रंग एक है, के साक्षात दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं। स्त्री-पुरुष की असमानता या उम्र का बंधन भी नहीं होता। बिल्कुल बूढ़ा भी लकड़ी टेकते चलता है और कोई स्त्री अपने कमर पर ढाई साल की बेटी को लिए चल रही होती है। भूख लगी तो सड़क पर ही बैठ गए, घर से लाए थोड़े पोहे में पानी मिलाया और बच्ची को खिला-पिला दिया। कर्मठता और निष्काम भाव से सेवा का उदाहरण होती है ‘वारी’। जिसने एक बार ‘वारी’ कर ली वह हर परिस्थिति को जी जाता है।
 
लंगर के बारे में सभी जानते हैं, कुछ उसी तरह की सामूहिकता ‘वारी’ में देख सकते हैं। बिलकुल मार्केटिंग का बंदा भी होगा और ठेठ गंवई भी…दोनों साथ-साथ, दोनों के हाथ में झांझ-करताल, मृंदग की ताल पर दोनों ही एक साथ ठेका धरते हैं। रास्ते बंद होते हैं, स्कूल को एक दिन का स्थानीय अवकाश लेकिन इस व्यवस्था को लेकर कहीं कोई नाराज़गी नहीं…सबके लिए ‘साँवला विट्ठल’ हर बात से ऊँचा उठ जाता है।
 
फेसबुक, वाट्स एप्प के युग में प्रोफाइल पिक भी वारी से जुड़े हो जाते हैं। हो भी क्यों नहीं, महाराष्ट्र में आलंदी और देहू से संत ज्ञानेश्वर महाराज और संत तुकाराम महाराज की चरण पादुकाएँ लेकर यह पदयात्रा होती है 260 किमी लंबी और 800 घंटे की, इसमें जाति का बंधन नहीं होता, उपजाति का बंधन नहीं होता, कोई नहीं पूछता कि साथ चलने वाले का धर्म क्या है…जो है वह उसका है, हरि का है। सबका एक ही लक्ष्य होता है, नाचते-गाते हुए पंढरपुर तक जाना। कई भक्त साथ आकर भजन गाते हुए, कथा करते हुए बढ़ते हैं और उनका समूह ‘दिंडी’ कहलाता है। जिसके सबके आगे केसरी ध्वज होता है और ‘दिंडी’ के पीछे तुलसी वृंदावन को सिर पर लेकर चलती महिला।
 
कहते हैं संत ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी ‘दिंडी’ की वारी लेकर जाते थे। ग्वालियर के सिंधिया सरकार के सेनाधारी हैबतराव बाबा आरफलकर ने ‘दिंडी’ को सेना का अनुशासन दिया। वे ज्ञानेश्वर की पादुका पंढरपुर लेकर जाते थे। तुकाराम महाराज भी ‘वारी’ करते थे। उनके बेटे नारायण महाराज ने सन 1685 में श्री तुकाराम महाराज और ज्ञानेश्वर महाराज की पादुकाओं को पंढरपुर लेकर जाने की परंपरा शुरू की।
 
संत ज्ञानेश्वर महाराज और संत तुकाराम महाराज की ‘दिंडी’ के साथ महाराष्ट्र के अन्य स्थानों से कई दिंडियाँ 15 से 20 दिन तक पैदल चल पंढरपुर पहुँचती है। जिनमें विशेषत: श्री ज्ञानेश्वर महाराज (आलंदी), निवृत्तिनाथ (त्र्यंबकेश्वर), सोपानदेव (सासवड), मुक्ताबाई (एदलाबाद), विसोबा खेचर (औंढ्या नागनाथ), गोरा कुंभार (तेर), चांगदेव (पुणतांबे), जगन्मित्र नागा (परली वैजनाथ), केशव चैतन्य (ओतुर), तुकाराम महाराज (देहू), बोधलेबुवा (धामगाव), मुकुंदराज (आंबेजोगाई), जोगा परमानंद (बार्शी), कान्होराज महाराज (केंदूर), संताजी जगनाडे (सुदुंबरे) की पालकियाँ हैं।
 
वाखरी स्थित संतनगर में सभी संतों की पालकियाँ साथ आती है। आषाढ़ शुक्ल दशमी को सब पालकियाँ एक दूसरे से जुड़ जाती है और धीरे-धीरे आषाढ़ शुक्ल ग्यारस को विट्ठल के दर्शन के लिए पहुँचती है। सभी वारकरी चंद्रभागा नदी में स्नान करते हैं और संतों की पालकियों के साथ पंढरी की परिक्रमा करते हैं। “पुंडलिक वरदा हरी विठ्ठल" और "जय जय राम कृष्ण हरि" का गगनभेदी उद्घोष गूँज उठता है। ग्यारस को दोपहर एक बजे सरदार खाजगीवाले के वाड़े में स्थित श्रीविठ्ठल-रुक्मिणी और राधारानी की रथ में परिक्रमा मार्ग पर शोभायात्रा निकाली जाती है। आषाढ़ शुद्ध पूर्णिमा को गोपालकाला के साथ यात्रा समाप्त होती है। गोपालपुर में सभी दिंडियाँ और पालकियाँ साथ आती हैं और कीर्तन के बाद गोपालकाला वितरित होता है। सब अपने-अपने मार्गों से लौट पड़ते हैं। 

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