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खाएं तो खाएं कहां.... भारत के भूखों का आर्तनाद

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-  ज्ञानगुरु  
दो मिनट में तो मैगी कभी बनी ही नहीं, शुरू से झूठा नारा बोलने वाली इस झटपट मैगी पर फटाफट भरोसा इसलिए कर लिया गया क्योंकि बनाना बेहद आसान था, कहां सुबह से सब्जी-पराठे की झंझट पालो। इसलिए माताओं, बहनों के लिए सुबह बच्चों के टिफिन से लेकर रात 2 बजे वाली भूख का आसान इंतजाम थी मैगी। रसोई से ऊबे 'महिला मंडल' की 'नब्ज' पकडकर अब मार्केटिंग इतनी जोरदार हुई कि हम सब नूडल के जाल में उलझ ही गए। उस पर से हमारे अमिताभ बच्चन साहब, माधुरीजी के स्वादिष्ट इसरार से किसी भी शक-शुबहे के जगह ही नहीं बची। सुडुप-सुडुप की रसदार आवाजें निकालते विज्ञापन को देखकर अपना मन भी इसे सुडपने का हो ही जाता था।    


 
लेकिन सच तो यह है कि जब से मैगी में सीसा मिला है हम जैसे कई लोगों का तो दुनिया पर से भरोसा उठ गया है। दुनिया हम जैसे भूख के मारों के लिए बड़ी निष्ठुर होती जा रही है। चिकन में एंटिबॉयोटिक, दूध में कपड़े धोने का पाउडर की मिलावट, नाले के गंदे पानी से उगाई और धोई जाती ज़हरीली सब्जियां। इस मिलावटी खानपान से मिलावटीलालों और डॉक्टरों की तो चल पड़ी लेकिन इंडिया के होनहारों के पेट पर मिलावट के आतंक की लात पड़ गई। अब एक ही गाना रह-रह के याद आता है कि खाएं तो खाएं कहां, कौन सुने खाली पेट की दास्तां....  

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मेक इन इंडिया का नारा तो खूब चल रहा है लेकिन मिलावट इन इंडिया पर ज्यादा अमल हो रहा है। स्किल्ड डेवलपमेंट से ज्यादा नकली माल को असली में खपाने का मैनेजमेंट चल रहा है। मोदीजी को चाहिए कि मिलावट के मारे 'भूखे पेट' पर अपने 'मन की बात' कहें। कहते हैं कि 'भूखे पेट भजन न होय गोपाला' तो देश के विकास के लिए सबसे जरूरी है देशवासियों को अच्छा खाना खिलाना... वो कहते हैं न कि खाएगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया....   

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