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दांव पर रहेगा अजीत सिंह का सियासी अस्तित्व

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विवेक त्रिपाठी

राजनीति में अपने आप को जनता के बीच खरा सबित करना बहुत कठिन है। इसीलिए रालोद प्रमुख अजीत सिंह की यही समस्या है। उनके सामने विश्वसनीयता का संकट है। वह ना विरासत संभाल सके। इसीलिए आज तक वह अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सके हैं। आज भी उन्हें लोग चौधरी चरण सिंह के बेटे के नाम पर ही जानते हैं। वह आज तक अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ते नजर आ रहे हैं। 

 
1986 में राज्यसभा के जरिये उन्होंने अपनी पारी शुरू की थी। पर वहां कुछ खास कर नहीं पाए। अपनी जमीन को बचाने के लिए वह आज तक संघर्ष कर रहे हैं। जाट लैण्ड कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनता ने उन्हें नकार दिया। इसीलिए वह हर समय बारगैनिंग करते नजर आते है। 1987 में छोटे चैधरी ने लोकदल के नाम से अलग गुट बनाया। इसके बाद वह जनता पार्टी के साथ चले गए। इस पार्टी में वह महासचिव पद को सुशोभित करते रहे। वीपी सरकार वह 1989 से 90 तक उद्योगमंत्री रहे। नब्बे के दशक में अजीत सिंह कांग्रेस में चले गए। नरसिंह राव की सरकार में वह 1995-96 में वह खाद्य मंत्री भी रहे। 1996 में वह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव तो लड़े और जीते भी लेकिन एक साल बाद उन्होंने लोकसभा और कांग्रेस दोनों से इस्तीफा दे दिया। भारतीय किसान कामगार नामक दल बनाया। अगले उपचुनाव में वह बागपत से इसी पार्टी से चुनाव जीते। 1998 में वह चुनाव हार गए। 1999 में अजीत सिंह ने लोकदल का निर्माण किया। इसके बाद वह चुनाव लड़े और जीते लेकिन अभी भी वह जनता की नजरों में अपने आप को खरा साबित नहीं कर पाए। 2001 के चुनाव में भाजपा से गठबन्धन कर सरकार बनाई और कैबिनेट कृषि मंत्री भी बने। इसके बाद बीजेपी और बीएसपी के गठबन्धन में शमिल हो गए। लेकिन कुछ समय बाद वापस हो गए। 2007 पुनः मुलायम के साथ चले गए। 2009 के चुनावों वह एनडीए के घटक के तौर पर चुनाव लड़ा। बाद में मंत्री पद की लालसा में वह यूपीए में शामिल होकर मंत्री भी बने। अजीत सिंह की मौकापरस्ती जगजाहिर है। 
 
चैधरी खानदान में जोड़तोड़ की राजनीतिक परम्परा रही है। किसनों के नेता के नाम से देश में जाने जाने वाले चौधरी चरण सिंह ने सन 1960 में जब चंद्रभानु गुप्ता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब उन्हें कृषि मंत्रालय दिया।
 
चरण सिंह ने सन 1967 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और एक नए राजनैतिक दल ‘भारतीय क्रांति दल’ की स्थापना की। राज नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं के सहयोग से उन्होंने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाया और सन 1967 और 1970 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
 
सन 1975 में इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल घोषित कर दिया और चरण सिंह समेत सभी राजनैतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया। आपातकाल के बाद हुए सन 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार हुई और केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में ‘जनता पार्टी’ की सरकार बनी। चरण सिंह इस सरकार में गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री रहे।
 
जनता पार्टी में आपसी कलह के कारण मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई जिसके बाद कांग्रेस और सीपीआई के समर्थन से चरण सिंह ने 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें बहुमत साबित करने के लिए 20 अगस्त तक का समय दिया पर इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त को ही अपने समर्थन वापस ले लिया इस प्रकार संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरणसिंह को प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था।
 
पिछले लोकसभा चुनाव में छोटे चौधरी अपनी पार्टी का खाता भी नहीं खोल सके। अर्श से फर्श पर पहुंचे अजीत को सत्ता द्वारा अब समाजवादी पार्टी में भविष्य दिख रहा है। इसलिए वह भविष्य ढूढने के लिए पहले कुछ दिन जदयू के साथ बैठक करते नजर आए जब बात नहीं बनी तो वह फिर भाजपा की ओर रूख कर लिए। अजीत सिंह ने बसपा की ओर भी अपना रूख किया था लेकिन मायावती ने जाटव वोट के दम पर उन्हें घास नहीं डाली।
 
लेकिन वहां सीधी शर्त दल को विलय करने की थी जो छोटे चौधरी के लिए अपच साबित हो रही है। किसी जमाने में वह पश्चिम में जाटों के वोटों के लिए जाने जाते थे। लेकिन मौकापरस्ती ने उनकी जमीन को खत्म कर दिया है। आज की हालत में देखे तो चौधरी को राज्यसभा जाने के लिए राजनीतिक दलों के दरवाजे खटखटाने पड़ रहे हैं। पर अभी तक कहीं दाल गलती दिख नहीं रही है। इसलिए उन्होंने पुनः अपने पुराने साथी मुलायम के साथ जाने की सोची है। उप्र के चुनाव में सत्ता की चाशनी को चाटने के लिए समाजवादी पार्टी के नजदीक जाने के प्रयास में भरपूर लगे हुए हैं। 
 
वह अपने फायदे के हिसाब से साथ निभाने और छोड़ने के लिए जाने जाते हैं। समाजवादी पार्टी के साथ गलबहियां करने से पहले अजित बीजेपी और जेडीयू की तरफ भी पासा फेंक चुके हैं। 2004 और 2007 में मुलायम की सरकार में आरएलडी शामिल रह चुकी है लेकिन दोनों ही दलों में कभी चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं हुआ है।
 
विश्लेषक मानते हैं कि पश्चिमी यूपी में वोटों के ध्रुवीकरण की बीजेपी की कोशिश से चौकस हुए मुलायम ने अजित से गठबंधन का फैसला कर लिया है। हलांकि इस पूरे मामले में पार्टी के महासचिव रामगोपाल ने तो यहां तक कह दिया है कि अजित सिंह राजनीतिक विश्वास खो चुके है। इनसे समझौता समझदारी नहीं होगी। जबकि शिवपाल का कहना है कि सांप्रदायिक शक्तियों को हराने के लिए आरएलडी का साथ जरूरी है। इससे लगता है कि रामगोपाल नहीं चाहते कि अजीत सिंह सपा के सहारे राज्यसभा जाएं। हालांकि राजनीति में अपने आप खरा सिद्ध करने के लिए विश्वसनीयता अनिवार्य होती है। वह अब खो चुके हैं, साथ ही अपने दल के कार्यकर्ताओं को भी लगातार निराश कर रहें। एक बार उन्हें अपने कार्यकर्ताओं से पूछकर ही कोई निर्णय लेना चाहिए। वरना न घर के बचेंगे ना घाट के।
 
किसी भी पार्टी या नेता का महत्व उसके जनाधार से होता है। संसद व विधानसभा में उसकी सदस्य संख्या राजनीतिक हैसियत का निर्धारण करते है। इस हिसाब से अजीत सिंह सबसे दयनीय अवस्था में हैं। इसके पहले उन्हें बागपत और आस-पास के क्षेत्रों तक सीमित माना जाता था। लेकिन लोकसभा चुनाव में उनका यह आधार भी समाप्त कर दिया। किसी पार्टी का मुखिया और उसका उत्तराधिकारी  दोनों अपने गढ़ से पराजित हो जाए, तो उसका राजनीतिक भाव नीचे गिर जाता है। 
 
अजीत सिंह आज इसी त्रासदी से गुजर रहे है। सपा से बात चली तो वहां भी बगावत के स्वर उभरने लगे। अजीत सिंह को सपा में जैसे स्वागत की उम्मीद थी, उस पर पानी फिर गया।
 
भविष्य में अजीत सिंह किधर जाएंगे, कोई नहीं जानता। वह विधानसभा चुनाव में किसके साथ होंगे और रिजल्ट आने के बाद कहां जाएंगें। यह भी विकल्प खुला रहेगा। वैसे आगामी विधानसभा चुनाव अजीत सिंह के लिए राजनीतिक अस्तित्व के लिए अहम साबित होगा।

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