हां, उस पुस्तक में लेख तो मैं महिला सशक्तीकरण पर पढ़ रही थी, पर पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि महिला को अपने अशक्त या कमजोर होने का भाव पैदा कैसे हुआ होगा? कुछ देर सोचने के बाद विचार हिन्दी के शब्दों पर ठहर गए। बस, ठहरे कि मन में शब्दों का बहाव शुरू।
किसी भी वर्ग में नाम देखो तो यह फर्क साफ नजर आ जाता है। कभी गौर किया है आपने? हिन्दी भाषा में स्त्रीलिंग वाले शब्द सदा छोटेपन का एहसास दिलाते हैं जबकि पुल्लिंग वाले शब्द बड़े आकार का। भाषा विज्ञान का विकास जिस काल में भी हुआ, तब पुरुष-प्रधानता का ही बोलबाला रहा होगा या कहें कि भाषा में नामकरण के समय पुरुष ही अधिक संख्या में रहे होंगे।
उन्होंने नामकरण के दौरान बहुत संजीदगी से ध्यान रखा कि बड़े का नामकरण स्त्रीलिंग न हो। आप खुद ही देखिए- दरवाजा बड़ा, खिड़की छोटी। महल बड़ा, झोपड़ी छोटी। टेबल बड़ा, कुर्सी छोटी। पलंग बड़ा, खटिया छोटी। कमरा बड़ा, रसोई छोटी। यही नहीं, रसोई में भी तपेला बड़ा, तपेली छोटी। कटोरा बड़ा, कटोरी छोटी। चूल्हा बड़ा, सिगड़ी छोटी। डिब्बा बड़ा, डिब्बी छोटी। कंबल बड़ा, चादर छोटी। धागा बड़ा, सुई छोटी। रस्सा बड़ा, रस्सी छोटी।
और तो और, प्रकृति से जुड़े शब्दों में भी भेद यथावत है। पेड़ बड़ा, बेल छोटी। तना बड़ा, टहनी छोटी। फूल बड़ा, पत्ती छोटी। सूरज बड़ा, किरण छोटी। समुद्र बड़ा, नदी छोटी। कुआं बड़ा, कुइयां छोटी। आकाश बड़ा, धरती छोटी। दिन बड़ा, रात छोटी। पानी बड़ा, बूंद छोटी। पत्थर बड़ा, मिट्टी छोटी। पहाड़ बड़ा, चट्टान छोटी।
सोचने लगी तो हर वर्ग में यह भेद नजर आने लगा। खाद्य पदार्थों में भी यही भेद नजर आएगा। सब्जियों से शुरू करें। कद्दू बड़ा, भिंडी छोटी। धनिया बड़ा, मिर्ची छोटी। करेला बड़ा, मटर छोटी। चना बड़ा, दाल छोटी। लता पर उगने वाली सब्जियां सब स्त्रीलिंग। लौकी, गिलकी, तोरई, मटर, ककड़ी, फली आदि।
पर पौधे पर उगने वाली सब्जियां पुल्लिंग। नींबू, टमाटर, प्याज, आलू, बैंगन आदि। फलों के नामकरण तो सब पुल्लिंग के हिस्से में चले गए। अनार, केला, आम, अंगूर, खरबूज, तरबूज, नाशपाती, जाम, सीताफल, नारियल, पपीता, चीकू, सेबफल। स्त्रीलिंग लायक कोई फल नहीं!
नाम के बारे में सोचते हुए ख्याल आया कि कभी उपयोगिता के आधार पर भी नामकरण में लिंगभेद का ख्याल किया गया होगा। मूल्यवान वस्तुओं में देखें हीरा, सोना, पन्ना, नीलम पुल्लिंग, चांदी स्त्रीलिंग। धातुद्य शब्द ही स्त्रीलिंग है किंतु सब धातुएं पुल्लिंग। लोहा, पीतल, तांबा, कोयला, जस्ता, कांसा, सीसा आदि।
ओह! सोचते-सोचते थक गई। हर छोटी वस्तु को स्त्रीलिंग से पुकारते हुए बार-बार छोटेपन का एहसास होता रहा। और सब महसूस करते हैं छोटा यानी कमजोर। और जब कमजोर को अपनी कमजोरी का एहसास हो जाए तो वह सशक्त होने के लिए बेचैन हो उठता है। ये सशक्तीकरण का दिखावा नहीं, भीतर की बेचैनी है। बेचैनी कह रही है, फिर से नाम पर गौर करें। स्त्रीलिंग वाले नामों की उपयोगिता अधिक है। जीवन में उनका महत्व अधिक है। सुई नहीं होगी तो सिर्फ धागा जोड़ नहीं पाएगा।
पुलिया से चलकर ही पुल पार किया जा सकता है। सारी रात ठंडी हवा दरवाजे से नहीं खिड़की से भीतर आएगी। फूल भले ही खिलते रहें, पेड़ के लिए खाना पत्ती ही बनाएगी। सूरज भले ही बड़ा हो, स्पर्श का सुख तो किरणें ही देंगी। समुद्र कितना ही बड़ा हो, मीठा पानी तो बहती नदियां ही देंगी। पत्थर बड़ा दिखे, पर फसल तो मिट्टी ही उपजाएगी। आकाश बड़ा है कितना ही, जीवन तो धरती ही चलाएगी।
तो गौर करें, बहुत सशक्त हैं हम। बस, जरूरत है उस शक्ति को पहचानने की।