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रियो ओलंपिक्स में रिफ्यूजी : छोटी सी आशा

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प्रज्ञा मिश्रा

रियो ओलंपिक्स के इंतज़ाम में भले ही कितनी कमियां हों लेकिन एक बात है जो ढाई हजार साल के ओलिंपिक इतिहास पहली बार हुई। पहली बार रियो में रिफ्यूजी खिलाड़ियों की टीम अपना एक अलग झंडा, ओलिंपिक का झंडा लेकर शुरूआती समारोह में शामिल हुई।  यह वो खिलाडी हैं जो अपने अपने देश से किसी तरह जान बचाकर निकल तो आए ..लेकिन खेल को नहीं छोड़ पाए। ... और जब ऐसे खिलाडियों की संख्या बढ़ती ही गई तो ओलिंपिक समिति ने इनकी एक अलग ही टीम बना दी। ...
वैसे तो अलग अलग कारणों से इंडिपेंडेंट खिलाडी ओलंपिक्स में हिस्सा लेते रहे हैं और जब यह लिख रही थी तब तक इस इंडिपेंडेंट ओलिंपिक एथलिट टीम ने सोने का एक तमगा जीत भी लिया और 206 देशों के ग्यारह हजार खिलाडियों के बीच अपनी टीम को उनतीसवें नंबर पर पहुंचा दिया।  
 
लेकिन एक बात थी उस रात भर के जागरण और ओलंपिक्स के शुरूआती समारोह में जो हफ्ते भर से दिमाग से निकली नहीं। ... बीबीसी के रिपोर्टर ने इस रिफ्यूजी एथलिट टीम की एक खिलाडी से पूछा कि आपको कैसा लग रहा है और उसने कहा बहुत अच्छा लग रहा है कि यह मौका मिला, पूरे स्टेडियम ने खड़े होकर हमारा स्वागत किया लेकिन फिर भी हमें हमारा देश वापस मिल जाए बस यही ख्वाहिश है।  
 
वो देश जहां जाने वाली फ्लाइट्स कैंसल कर दी गई, जिसे युद्ध का इलाका घोषित किया जा चूका। .. जहां से सिर्फ खून भरी खबरें ही आती रहीं। .. आखिर ऐसा क्या है जो अपना देश छूटता ही नहीं ??? और अचानक काबुलीवाला फिल्म का गाना याद गया "ऐ मेरे प्यारे वतन "......और अपनी भी आंखें नम पाई।  
 
दरअसल सिर्फ घर परिवार ही देश नहीं होता। ..वो सब कुछ होता है जिसमें ज़िन्दगी बीतती है। .. बहुत से लोग हैं जो अपना गांव अपना देश छोड़कर दूर बसे हैं लेकिन जब भी अपने गांव का मिलता है तो बस उसी नास्टैल्जिया को जीने की कोशिश ही करते नज़र आते हैं। .. 
 
जिन लोगों अपनी मर्ज़ी और फैसलों से देस छोड़ा है वो तो फिर भी अपने को समझा लेते हैं....  लेकिन जहां सियासत और युद्ध के चलते, अपना देस छोड़ना पड़े वहां नई ज़िन्दगी शायद ही कभी आसान हो पाती है। ... 
 
सीरिया, साउथ सूडान और कांगो के दस खिलाडियों की टीम इंडिपेंडेंट खिलाडियों से अलग थी और बाकी सभी खिलाड़ियों के साथ कॉम्पेटीशन के लिए तैयार भी। साउथ सूडान के पुर बीएल केन्या में पिछले दस सालों से रिफ्यूजी कैंप में रह रहे हैं और बस ओलंपिक्स में भाग लेकर ही खुश थे क्योंकि उन्होंने दुनिया को दिखा दिया है कि हम किसी से कम नहीं।  
 
सीरिया से भागी हुई युसरा मार्दिनी तैराक हैं और सीरिया से यूरोप के सफर में उनकी तैराकी ने ही उनकी जान बचाई है। ... वैसे तो युसरा अपनी कम्पटीशन में बाहर हो गयी लेकिन पर उसने दुनिया को यह जरूर बता दिया कि रिफ्यूजी भी आम इंसान ही है जिसकी एक आम सी ज़िन्दगी उसके अपने घर अपने शहर अपने देश में थी और उन्होंने वो सब खो दिया है या उनसे छीन लिया गया है इसलिए वो रिफ्यूजी हैं। .इसलिए नहीं कि वो सब कुछ छोड़ कर भाग खड़े हुए।  
 
पहले अफ़ग़ानिस्तान और अब सीरिया इन देशों की कहानियां ही इस पीढ़ी को मिली हैं, क्योंकि अफ्रीका की कहानी भी दुनिया तक पहुंचने तक ख़तम हो जाती है। .. अफ़ग़ानिस्तान जिसे सिर्फ अफ़ग़ान स्नो (चेहरे पर लगाने की क्रीम ) की वजह से ही जानते थे और अब खालिद होसैनी जैसे लेखक उसकी कहानी सुनाते हैं। .. हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान में बना एक गाना सुना और फिर इंसानी फितरत के कायल हो गए। .. साद सुल्तान का बनाया हुआ गाना है "स्टार्स ऑन द माउंटेन्स " और जब गायक गाता है कि ज़िन्दगी खूबसूरत है और हम सब मिल कर एक नई रौशनी पैदा करें तो यकीन करने का मन हो जाता है कि उस ओलिंपिक खिलाडी को उसका देश फिर से मिल जाएगा ... 

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