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हलमा क्या है : कैसे बना यह जल आंदोलन, जन-जन का आंदोलन

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स्मृति आदित्य

हलमा... बीते दिनों जब इस शब्द से परिचय हुआ तो सहज जिज्ञासा थी कि यह क्या है और कैसे जल यानी पानी से इसका रिश्ता जुड़ा... इसे जानने के लिए एक बड़ी वैचारिक परिक्रमा की और परिणामस्वरूप पाया कि एक महान भील परंपरा को झाबुआ में कुछ दूरगामी सोच की शख्सियतों ने जल और पर्यावरण से जोड़कर बंजर धरा पर हरियाली की सुंदर चादर सजा दी। कैसै हुआ यह सब, इससे पहले जानते हैं कि हलमा शब्द क्या है?
 
हलमा क्या है
हलमा भील समाज में एक मदद की परंपरा है। जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने संपूर्ण प्रयासों के बाद भी अपने पर आए संकट से उबर नहीं पाता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण भाई-बंधु जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयत्नों से उसे मुश्किल से बाहर ले आते हैं।
 
यह एक ऐसी गहरी और उदार परंपरा है जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता तो की जाती है पर दोनों ही पक्षों द्वारा किसी भी तरह का अहसान न तो जताया जाता है न ही माना जाता है। परस्पर सहयोग और सहारे की यह परंपरा दर्शाती है कि समाज में एक दूजे की मजबूती कैसे बना जाता है। किसी को भी मझधार में अकेले नहीं छोड़ा जाता है बल्कि उसे निश्छल मदद के द्वारा समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जाता है।
 
कहानी झाबुआ की और परंपरा हलमा की 
झाबुआ में जब गंभीर जल संकट की स्थिति निर्मित हुई तो 20 लाख से ज्यादा आबादी के सामने जीने और मरने का सवाल खड़ा हो गया। इत ना भी पानी नहीं था कि मानव और पशुधन के लिए पर्याप्त आपूर्ति हो सके। तब कुछ चैतन्य समाजसेवी और झाबुआ के ही युवाओं ने मंथन किया और इस प्रश्न पर जाकर अटके कि कैसे इस समस्या का हल निकाला जाए। इस संकट से कोई एक व्यक्ति, कोई एक संस्था या महज सरकारी अवदान से नहीं निपटा जा सकता था। इसके लिए चाहिए था जन-जन का सहयोग लेकिन वह कैसे मिलेगा? तब आदिवासी समाज से ही हल के सुनहरे बिंदु भी उभर कर आए... अगर हलमा जैसी सुपरंपरा किसी व्यक्ति के लिए हो सकती है तो गांवों के लिए क्यों नहीं?
 
प्रस्ताव या कहें कि सुझाव में दम तो था तब कुछ युवा आगे आए। एक संकल्प लिया गया जल के संकट से उबरने का, झाबुआ की जमीन पर हरियाली का तानाबाना बुनने का, झर-झर झरते पानी को सहेजने का... लक्ष्य बड़ा था काम कठिन था पर इरादे स्पष्ट थे,उत्साह और जज्बा चरम पर था।  
 
वास्तव में ''हलमा जैसी सुपरंपरा किसी व्यक्ति के लिए हो सकती है तो गांवों के लिए क्यों नहीं?'' यह सुझाव गंभीरता और समझदारी से अमल में लाया गया। आधुनिक तकनीक और परंपरा का संयोजन बैठाया गया। जन-जन तक उनकी ही भील परंपरा का हवाला देते हुए यह बात मानस में बैठाई गई कि कैसे एक से एक जुड़कर हम अपने गांवों की सूरत बदल सकते हैं जैसे किसी व्यक्ति को संकट के दौरान हम अपनी सुंदर परंपरा हलमा के द्वारा पुन: सामान्य स्तर पर लाते हैं वैसे ही गांवों की तस्वीर बदलने की चुनौती भी इसी परंपरा के साथ उठाई जा सकती है।
 
राजा भागीरथी और झाबुआ की जलदेवी जाह्मा माता की कथा ने प्रेरणा दीऔर शुभ संकल्प लिया मां गंगा को झाबुआ में आमंत्रित करने का। सभी ने एक बड़ा काम करने का सामूहिक विश्वास व्यक्त किया और फिर आरंभ हुई यह सुप्रथा हलमा की... प्रति वर्ष जल संकट से जुझते स्थान पर आकर हलमा करने की। 

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जल संवर्धन बना जल अभियान 
 
आज हलमा परंपरा के ग्रामीण सामूहिक सुविश्वास ने शिवगंगा संगठन के साथ मिलकर झाबुआ की रंगत बदल कर रख दी। आज झाबुआ के 300 से अधिक गांवों में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से तालाब, स्टॉप डेम, गली नियंत्रक, बोरी बंधान, हेंडपंप रिचार्ज, कंटूर ट्रेंचेस, आदि हजारों जल संरचनाओं का निर्माण हुआ है और निरंतर हो रहा है। जल संरक्षण से प्रारंभ होकर यह अभियान वन संवर्धन, गौ संवर्धन, जैविक कृषि, सामाजिक उद्यमिता तथा स्वच्छ गांव-स्वस्थ परिवार जैसे विविध आयामों को समेटे हुए नित नूतन प्रतिमान गढ़ रहा है जिसमें अक्षय ग्राम विकास का लक्ष्य भी शामिल है। झाबुआ की यह हलमा परंपरा देश-दुनिया के लिए सशक्त समाधान बन कर उभर रही है। आज हलमा की परिभाषा ही 'जल के लिए एक दूसरे के साथ मिलकर सामूहिक श्रमदान करना और चमकते परिणाम प्राप्त करना' होती जा रही है।
 
हजारों-हजार आदिवासियों ने अनुशासित ढंग से, अपने कर्म की कुदाली से, श्रम के फावड़े से और उ‍त्साह की तगारी की मदद से बंजर गांवों में हरियाली की सुंदर जाजम तैयार कर दी है और धरा को अपने पसीने से बुना धानी परिधान पहना दिया है।   
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हलमा 2020
इस वर्ष हलमा 2020 29 फरवरी से 1 मार्च के बीच होगा। जिसमें 500 गांवों के 2000 प्रशिक्षित कार्यकर्ता 70000 परिवारों में घ र-घर जाकर जल संवर्धन के लिए प्रेरित करेंगे। इन गांवों से 20000 से अधिक ग्रामवासी तथा देश भर के लोग शामिल होकर मध्य प्रदेश में इन्दौर से करीब डेढ़ सौ किमी दूर झाबुआ के पास हाथीपावा पहाड़ी आकर अपने श्रमदान से 40000 कंटूर ट्रेंचेस का निर्माण करेंगे।

शिवगंगा के संस्थापक-सदस्य श्री महेश शर्मा पद्मश्री से सम्मानित हैं। वे कहते हैं यह झाबुआ के वनवासियों की अपनी मिट्टी के प्रति प्रतिबद्धता और श्रद्धा का सम्मान है। मैं केवल निमित्त मात्र हूं।
 
झाबुआ के वनवासी पूरी शक्ति के साथ अभी 'हलमा 2020' के आयोजन में लगे हैं, जिसमें 40000 कन्टूर ट्रेंचेस का निर्माण किया जाएगा। हलमा 2020 हमारे पास अवसर है ऐसे सम्मानित वर्ग के साथ मिलकर काम करने का। 
 
विशेष : इस अभियान की खास बात यह है कि महानगरों से आई आई टी कर चुके इंजीनियर और कुशल तकनीशियन अपनी पूरी दिलचस्पी के साथ इस महती आयोजन में शामिल हुए हैं और हो रहे हैं। ऐसा ही एक नाम नितिन धाकड़ का है जो झाबुआ किसी प्रोजेक्ट को समझने के लिए आए थे और फिर अपना चमकदार करियर छोड़कर यहीं के होकर रह गए।
 
इंजीनियर और युवा पर्यावरणविद् नितिन धाकड़ मूलत: राजस्थान से ताल्लुक रखते हैं। समाज को समझने की गहरी रूचि के चलते के अक्सर गांव जाया करते थे। जब 2015 में वे झाबुआ गए तो फिर उनका मन कहीं नहीं लगा, 2017 से झाबुआ बसे और वहीं के होकर रह गए।
 
वर्तमान में शिवगंगा संस्थान के साथ समग्र ग्राम विकास पर उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। जिसमें विशेष रूप से जल, जंगल, जमीन और जानवर के संरक्षण और संवर्धन को लेकर उनके कार्य प्रशंसनीय हैं।
 
29 फरवरी से 1 मार्च के बीच होने वाले हलमा के लिए समस्त शिव गंगा सहयोगी के साथ वे भी तत्परता से जुटे हैं। हलमा एक ऐसा अभियान बनकर सामने आया है जिसने जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन के स्थान पर सहयोग जैसा शब्द रखकर उसे अपने निस्वार्थ प्रयासों से सार्थक किया है। हरी-भरी वसुंधरा का कण-कण, कोना-कोना इस प्रयास को देखकर निश्चित रूप से हर सहभागी को असीसता होगा।
 
नितिन की एक कविता अभियान के मर्म को समझाने का माद्दा रखती है।
 
छोड़ देना राही, नल खुला, बहते देखना उस पानी को
उपजेगा
उसके व्यर्थ बहाव से एक सवाल,
कौन देस में किसने सहेजा ये किसके हिस्से का पानी...
 
चित्र सौजन्य : शिवगंगा/ फेसबुक से साभार

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