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Does God Exist: atheist और believers की लड़ाई के अंत में आखिर कौन जीतेगा?

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हमें फॉलो करें Does God Exist
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नवीन रांगियाल

ईश्वर का भी एक नर्क है, और वो उसका मनुष्य के लिए प्रेम है. (Even God has his hell; it is his love for man)

यह बात जान लीजिए कि atheist और believers के बीच चलने वाली लड़ाई का कभी कोई अंत नहीं होगा, न कभी फ़ैसला आएगा। तर्क सीमित हैं, आस्था और भाव असीमित हैं। यह सच है कि किसी atheist को ईश्वर के अस्तित्व को नकारने में कुछ ज़्यादा दलीलें देना पड़ती हैं— जबकि believer (आस्तिक) सिर्फ़ यह कहकर छुटकारा पा लेता है कि उसे ईश्वर में आस्था है। जबकि दोनों ने ही ईश्वर/ ख़ुदा को न कभी देखा है, न छुआ है।

जब ईश्वर और ख़ुदा ने बैठकर किसी शख़्स के साथ चाय और सिगरेट नहीं पी है तो आख़िर सत्य क्या है? ईश्वर/ ख़ुदा के अस्तित्व को माने कि न माने? Does God Exist or not.

मैं यह नहीं कहता कि ईश्वर/ ख़ुदा है— मैं यह भी नहीं कहता कि वो नहीं है। किंतु मेरी दिलचस्पी ईश्वर में कम और आदमी में ज़्यादा है। पड़ताल तो इस बात की होनी चाहिए कि आदमी कौन है, वो कहां से और क्यों आया? पड़ताल तो यह होना चाहिए कि आदमी का सत्य क्या है? आदमी के सत्य में ही ईश्वर/ ख़ुदा के होने न होने का सत्य छिपा है। इसलिए इधर आइए... अपनी तरफ। उधर नहीं— उधर तो ईश्वर नींद में है। ख़ुदा सो रहा है।

हमारे मानने या न मानने और ईश्‍वर के लिए हमारी खोज से उसके अस्तित्व या उसके नहीं होने की अवधारणा पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।

आपकी खोज में ईश्वर की दिलचस्पी नहीं है। ईश्वर का काम तो दुनिया को अपने होने और नहीं होने के भ्रम में उलझाए रखना है। ताकि तुम धूप बत्ती करते रहो और वो अपनी प्रेयसी की गोद में सिर रखकर आराम की नींद सोता रहे।

किसी को इस बात से ख़ुश नहीं होना चाहिए कि किसी ने ख़ुदा की मौजूदगी में जबरदस्त तर्क दे दिए इसलिए उनका ख़ुदा या ईश्वर एक्जिस्ट करता है। किसी दूसरे के तर्कों और आस्थाओं के सहारे अपना भगवान और ख़ुदा नहीं गढ़ना चाहिए। बेहतर होगा हम अपना अपना ईश्वर और अपना- अपना ख़ुदा ख़ुद खोज लें।

मैं एक निजी आदमी हूं। धर्म एक निजी मसला है। ठीक इसी तरह आदमी का सत्य भी एक निजी मसला है। तो ईश्वर के अस्तित्व का होना या नहीं होना भी एक निजी बात है/ या यह बात निजी होना चाहिए।

क्या आपको नहीं लगता कि सवाल ईश्वर नहीं, आदमी है। मुसीबत ईश्वर और ख़ुदा नहीं— आदमी है? आदमी ने ही ईश्वर- अल्लाह को मुसीबत में डाला है।

नीत्शे ने कहा है: Even God has his hell; it is his love for man. (ईश्वर का भी एक नर्क है, और वो नर्क उसका मनुष्य के लिए प्रेम है) बल्कि उसने तो (अगर वो है तो) मनुष्य को खोजने या नकारने के लिए पर्याप्त विवेक दिया है। उसे मानने और नहीं मानने की सहूलियत दी है। आख़िर होमोसेपियंस काल से लेकर अब तक ख़ुद आदमी ने ही अपने को विकसित किया है।

हमने आग बनाई। पहिए बनाए और फसल भी उगाई। और अब एआई तक पहुंच गए। अपना एक निजी ख़ुदा और भगवान बनाने और मानने में क्या हर्ज है?

सो मुझे लगता है— ईश्वर एक इंडिविजुअल सवाल है। और उसका जवाब भी एक निजी/ इंडिविजुअल जवाब है। मैं अपना ईश्वर शेष गुणीजन पर नहीं थोप सकता। न ही शेष गुणीजन अपनी नास्तिकता मेरे ऊपर थोप सकते हैं।

इसलिए ईश्वर/ ख़ुदा को लेकर मैं कोई फ़ैसला नहीं करता। मैं अपने निजी संशय, निजी उहापोह और इस सांसारिक विडंबना के बीच संघर्ष करते रहना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मैं ईश्वर को देखना चाहूं और वो मुझे दिखाई न दे। मैं चाहता हूं कि मैं ख़ुदा के पीछे भागूं और वो मुझसे और आगे भागे। मैं चाहता हूं कि मैं उसे छूना चाहूं और वो मेरा स्पर्श ख़त्म कर दे। इन तमाम पड़तालों के बाद अंत में मैं इस नतीजे पर आऊं कि मैं नास्तिक हूं या आस्तिक।

किसी क़यामत की रात— किसी अचंभित घड़ी में मैं अपने निजी सत्य से, विज्ञान से और अनुभूति से यह तय करूं कि ईश्वर या ख़ुदा होता है या नहीं होता है। उस दैवीय घड़ी में यदि ईश्वर मुझे मिल जाए तो मैं वादा करता हूं कि अपना ईश्वर शेष गुणीजन के ऊपर नहीं थोपूंगा— और अगर न मिले तो मैं यह भी ज़िद नहीं करूंगा कि शेष दुनिया का भी ईश्वर नहीं है।

तो अब सवाल यह है कि क्या मैं अब तक ईश्वर/ ख़ुदा के अस्तित्व के सवाल को लेकर आंशिक तौर पर भी कुछ नहीं जान और समझ पाया हूं?

... तो धूल की एक महीन परत जरूर छटी हुई सी नजर आती है कि कोई बात है जो हम इंसानों से परे है। (यह अनुभूति है, अनुभव नहीं)। कोई आवाज़ है जो कहीं बहुत धीमे से फुसफुसाती है। वो क्या आवाज़ है। कभी सुनाई आती है— कभी नहीं।

ठीक है, अगर मैं कुछ साहस जुटाकर यह स्वीकार भी करूं कि हां मेरा एक ईश्वर है, तो यह भी जोड़ देता हूं वो आपके ईश्वर की तरह नहीं दिखता। वो आपके प्रचलित ख़ुदा की तरह नज़र नहीं आता। वो बेहरा नहीं— और बलिष्ठ भी नहीं। वो सुंदर और असुंदर भी नहीं। न वो रथ पर सवार है— न जन्नत में मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। न मेरे लिए जन्नत में हूरें लेकर खड़ा है। वो मेरे लिए नर्क में कढ़ाई में तेल गर्म नहीं कर रहा है और न दोज़ख में रास्ता देख रहा है।

किंतु हरी डालियों पर कोई लाल फूल खिलता है तो मैं यह ज़रूर सोचता हूं कि यह बात मेरे बस की तो नहीं थी। तमाम दुश्वारियों में फंसे इस जीवन को फ़िज़ूल मानने के बाद भी मैं इसमें इतनी आस्था रखता हूं कि शाम को बच्चे स्कूल से घर लौट आएंगे। कि मैं सुबह नींद से जागूंगा, कि कहीं कोई बच्चा जन्म लेगा, कि कहीं कोई मृत्यु होगी। कहीं कोई प्रेम घटेगा। कहीं कोई दुख उपजेगा और फिर खत्म भी होगा। तकलीफ़ आएगी और फिर निजात भी मिलेगी।

अगर कोई यह कह रहा है कि ईश्वर नहीं है, ख़ुदा नहीं है तो उसका यह यकीन है कि ईश्वर नहीं है, ख़ुदा नहीं है। किसी अस्तित्व के नहीं होने के बारे में यक़ीन से कहना भी तो किसी बात में यक़ीन करना ही है, चाहे वो यक़ीन नहीं होने में क्यों न हो!

यह कोई फ़ैसला नहीं है। मैं बस चल रहा हूं। देख रहा हूं। यक़ीन कर रहा हूं। फिर संशय भी। संघर्ष कर रहा हूं। इस संघर्ष में अपना ख़ुदा/ ईश्वर पा रहा हूं और खो भी रहा हूं। संभव है आगे चलकर मैं आस्तिक बन जाऊं या नास्तिक। या कुछ भी न रहूं. कौन जाने?
इतना ही यथेष्ठ है.

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