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कांग्रेस से इतने नाराज़ क्यों नज़र आते हैं प्रधानमंत्री?

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श्रवण गर्ग

तेलंगाना के साथ संपन्न होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव नतीजे चाहे जैसे निकलें, एक बात तय मानकर चल सकते हैं कि तीन दिसंबर के तत्काल बाद प्रारंभ होने वाले लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान विपक्षी दलों (यहां गांधी परिवार ही पढ़ें) के ख़िलाफ़ सत्तारूढ़ दल भाजपा के हमलों की आक्रामकता पराकाष्ठा पर पहुंचने वाली है। 
 
विधानसभा चुनावों में भाजपा के धुआंधार प्रचार के दौरान देश की जनता ने प्रधानमंत्री के भाषणों में कांग्रेस के प्रति जिस तरह के क्रोध और वैचारिक हिंसा से भरे शब्दों से साक्षात्कार किया उसे लोकसभा चुनावों की रिहर्सल भी माना जा सकता है। चुनावों में पड़े मतों की तीन दिसंबर को होने वाली गिनती में सत्तारूढ़ दल को अगर उसकी ‘अंदरुनी’ उम्मीदों के मुताबिक़ भी कामयाबी नहीं हासिल होती है तो पार्टी में व्याप्त होने वाली निराशा उसकी विभाजन की राजनीति की धार को और तेज कर सकती है। 
 
प्रधानमंत्री द्वारा राज्यों के चुनाव भी स्वयं का चेहरा ही सामने रखकर लड़ने की रणनीति को लोकसभा चुनावों के लिए व्यक्तिगत लोकप्रियता और जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता पर प्रारंभिक जनमत-संग्रह भी माना जा सकता है। पांचों राज्यों की आबादी भी लगभग पच्चीस करोड़ है और वे उत्तर-पूर्व (मिज़ोरम) से पश्चिम और दक्षिण (तेलंगाना) तक फैले हुए हैं।
 
आत्मविश्वास से भरा एक ऐसा राजनेता जिसने पहले से घोषणा कर रखी हो कि लालक़िले से अगले साल भी तिरंगा वही फहराने वाला है, विधानसभा चुनावों में पार्टी की पराजय को लोकसभा चुनावों के दौरान अपनी व्यक्तिगत जीत में बदल देने की सामर्थ्य भी प्रकट कर सकता है! महाभारत के अर्जुन को जिस तरह मछली की आंख ही नज़र आती थी, प्रधानमंत्री की दृष्टि भी भारत को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और अपने आप को ‘विश्वगुरु’ के रूप में स्थापित करने पर टिकी हुई है! 
 
विधानसभा चुनाव-प्रचार के दौरान, विशेषकर राजस्थान के विभिन्न स्थानों यथा चित्तौड़गढ़, उदयपुर, भीलवाड़ा और बाड़मेर आदि में मोदी द्वारा अपनाई गई आक्रामक भाव-भंगिमा और स्थान की ज़रूरत के मुताबिक़ दिए गए भाषणों की अगर निष्पक्ष शल्यक्रिया की जाए तो प्रधानमंत्री का एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जो राजनीतिक विरोधियों के प्रति क्रोध से भरा हुआ है और समर्थकों-मतदाताओं को कुछ ऐसा करने के लिए प्रेरित करता नज़र आता है जैसा पिछले किसी भी चुनाव या उपचुनाव में नहीं देखा गया।
 
देश के प्रधानमंत्री के इस स्वरूप का दर्शन कल्पना से परे माना जा सकता है, जब माथे पर जोधपुरी साफ़ा धारण किए उन्होंने बाड़मेर के ‘बायतु’ की सभा में लोगों का आह्वान करते हुए कहा : भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई हो रही है तो कांग्रेस घबरा गई है। जिन्होंने प्रदेश को लूटा है उन्हें जेल जाना होगा। ‘जैसे उन्हें फांसी दे रहे हो न कमल के निशान पर ऐसे बटन दबाओ।’ कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने बाद में प्रतिक्रिया व्यक्त की कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस के प्रति घृणा का सहज अंदाज़ा उनके बयान से लगाया जा सकता है। प्रधानमंत्री के पद पर बैठा कोई व्यक्ति वोट के ज़रिए फांसी देने की बात कैसे कर सकता है?
 
कमल के निशान वाले बटन को दबाते हुए फांसी देने की बात उसी तरह के विचार की पुनराभिव्यक्ति है जो पार्टी के असहिष्णु मुख्यमंत्रियों/नेताओं द्वारा सांप्रदायिक आधार पर दी जाने वाली इस तरह की चेतावनियों में सामने आता रहा है कि ’बुलडोज़र चलवा दूंगा’, ‘ज़मीन में गड़वा दूंगा’ और ‘देश के ग़द्दारों को, गोली मारी सालों को’ या फिर जो पिछले कुछ सालों में सड़कों पर देखी गई मॉब लिंचिंग की घटनाओं अथवा कथित ‘धार्मिक संसदों’ के उत्तेजक संबोधनों में प्रकट हो चुका है!
 
प्रधानमंत्री ने अपने प्रथम कार्यकाल की शुरुआत ही देश को कांग्रेस से मुक्त करने के नारे के साथ की थी। अब तीसरी पारी की शुरुआत के पहले देश की सबसे पुरानी पार्टी को चुनावी बटन के ज़रिए फांसी देने का विचार देश में विपक्ष की ज़रूरत के प्रति उनके तीव्र विरोध को उजागर करता है।
 
विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री के भाषणों से जो ध्वनि निकली, उसमें जनता से जुड़े मुद्दों पर संवाद के ज़रिए पार्टी को जीत हासिल कराने की कोशिशों के बजाय पराजय को किसी भी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने का भाव ही ज़्यादा मुखरता से व्यक्त हुआ।
 
ठीक उसी तरह जैसे अत्यधिक आत्मविश्वास के बावजूद जब अमेरिकी जनता ने डोनाल्‍ड ट्रंप को हरा दिया तो वे अपनी पराजय को इतने सालों के बाद आज तक भी स्वीकार नहीं कर पाए हैं। यही कारण रहा कि उनके समर्थक भी हार मानने के लिए तैयार नहीं हुए और 6 जनवरी 2020 को वॉशिंगटन स्थित अमेरिकी संसद पर जो कुछ हुआ उसे भारत सहित सारी दुनिया ने देखा।
 
तीन दिसंबर की मतगणना के बाद मनोवैज्ञानिकों/ चुनावी विशेषज्ञों की किसी टीम को ‘बायतु’ के नतीजों का विश्लेषण करने के लिए रवाना किया जाना चाहिए। वह टीम वहां पहुंचकर न सिर्फ़ इतने अधिक मतदान (83.44 प्रतिशत) के कारणों का पता लगाए, इस बात का विश्लेषण भी करे कि प्रधानमंत्री की ‘फांसी वाली’ अपील का क्षेत्र के मतदाताओं के दिलो-दिमाग़ पर क्या प्रभाव पड़ा? टीम द्वारा जुटाई जाने वाली जानकारी लोकसभा चुनावों की दृष्टि से देश के राजनीतिक दलों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है!
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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