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भागवत के वक्तव्य का इतना विरोध क्यों ?

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अवधेश कुमार

, शुक्रवार, 3 जनवरी 2025 (15:31 IST)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत द्वारा वर्तमान मंदिर-मस्जिद उभरते विवादों पर दिए वक्तव्य को लेकर अनेक धर्माचार्यों और हिंदू संगठनों के नेताओं की विरोधी प्रतिक्रियाएं लगातार आ रहीं हैं। इस संदर्भ में सबसे कड़ा बयान जगतगुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी का आया। उन्होंने कहा कि मैं भागवत के बयान से पूरी तरह असहमत हूं। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि भागवत हमारे अनुशासक नहीं है, बल्कि हम हैं। बाद में उन्होंने एक टेलीविजन पर बात करते हुए ऐसा कुछ बोला जो उनके अंदर व्याप्त नाराजगी को साफ दर्शा रहा था।

वैसे रामभद्राचार्य जी ने कहा कि संभल में अभी जो कुछ हो रहा है वह बहुत बुरा है। हालांकि सकारात्मक पहलू यह है कि चीज हिंदुओं के पक्ष में सामने आ रही हैं। हम न्यायालय में मतदान और जनता के समर्थन से इसे सुरक्षित करेंगे। वैसे अनेक संगठनों, बुद्धिजीवियों, नेताओं आदि ने डॉक्टर भागवत के बयान का समर्थन भी किया है।

विडंबना यह है कि पहले जब सरसंघचालक ने ऐसे वक्तव्य दिए तब उसे झूठ, पाखंड और आंखों में धूल झोंकने वाला तक कहा गया। इसलिए विरोधियों की प्रतिक्रियाएं इन संदर्भों में न नैतिक है, न विश्वसनीय और न इनका कोई अर्थ है। हमें पूरे विषय को सही संदर्भों में देखना और निष्कर्ष निकालना होगा।  
 
पिछले वर्षों में यह पहली बार नहीं है जब भागवत के वक्तव्य पर विरोधी तीखी प्रतिक्रियाएं हिंदू संगठनों, नेताओं और कुछ धर्माचार्यों की ओर से आया है। 2 जून, 2022 को नागपुर में जब उन्होंने कहा था कि अयोध्या, काशी और मथुरा की मान्यता रही है लेकिन हर मस्जिद में मंदिर क्यों तलाशें, तब भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं थी और उसके पूर्व धर्म संसदों में दिए गए आक्रामक वक्तव्यों के संदर्भ में भी उनके विचारों का कुछ पक्षों ने विरोध किया था।  
 
ऐसा नहीं है कि संघ प्रमुख या संघ के शीर्ष नेतृत्व को इसका आभास पहले से नहीं होगा। बावजूद उन्होंने ऐसा वक्तव्य दिया और पहले भी देते रहे हैं तो निश्चित रूप से इसके पीछे गहरी सोच, अतीत और वर्तमान का विश्लेषण तथा भविष्य की दृष्टि होगी। हम संघ के विचारों या कुछ कार्यों से सहमत असहमत हो सकते हैं लेकिन निष्पक्ष होकर विश्लेषण और विचार करने वाले मानते हैं कि शीर्ष स्तर से दिया गया हर वक्तव्य और भाषण काफी सोच-समझकर ही सामने आता है। वैसे भी सरसंघचालक का वक्तव्य संगठन परिवार के लिए अंतिम शब्द माना जाता है। स्वाभाविक ही जब ऐसा बोल रहे थे तो देश में बने वातावरण और आम हिंदू समाज की उस पर हो रही प्रतिक्रियाएं सब उनके सामने थे और हैं। तो फिर ऐसा उन्होंने क्यों कहा होगा?
 
पहले उनके भाषण की उन पंक्तियों को देखें। 19 दिसंबर को पुणे के सहजीवन व्याख्यानमाला में ‘इंडिया द विश्व गुरु’ विषय पर उनका भाषण था और उन्होंने मराठी में बोला। बोलते हुए डॉक्टर भागवत ने कहा 'हम लंबे समय से सद्भावना से रह रहे हैं। अगर देश में सौहार्द्र चाहिए तो इसकी मिसाल हमारे देश में होनी चाहिए, हमारे देश में आस्था का सम्मान होना चाहिए। हिंदुओं का मानना है कि राम मंदिर बनना चाहिए, क्योंकि यह आस्था का स्थान है। लेकिन ऐसा करने से आप हिंदुओं के नेता बन जाएंगे ऐसा नहीं है या किसी हिंसक अतीत के फलस्वरुप अत्यधिक नफरत, द्वेष, शत्रुता, संशय से हर दिन एक नया मामला उठाना यह कैसे काम कर सकता है।’ 
 
स्वाभाविक है कि संभल से लेकर बदायूं, दिल्ली का जामा मस्जिद, कानपुर, वाराणसी आदि में नए मंदिरों का मिलना, पहले से चल रहे वाराणसी के ज्ञानवापी और मथुरा श्री कृष्ण जन्मभूमि न्यायिक विवादों के बीच बने हुए वातावरण में सहसा इन पंक्तियों को पचा पाना आसान नहीं हो सकता। विचार करने वाली बात यह है कि क्या संघ जैसा संगठन, जिसने अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए अपनी पूरी शक्ति लगाई तथा मथुरा और काशी को लेकर भी उसके मत उन दिनों से स्पष्ट रहे हैं जब दूसरे संगठनों का प्रभाव नहीं था, या वे थे नहीं तो वह ऐसा कैसे बोल सकते हैं? वह भी उन स्थितियों में जब संभल से लेकर बदायूं वाराणसी दिल्ली भोजशाला आदि सभी जगह ऐतिहासिक रूप से घटनाएं और वर्तमान स्थिति हिंदुओं के पक्ष में जातीं है। 
 
मुस्लिम काल में इन मंदिरों को ध्वस्त किया गया और उनमें निहित प्रतिमाओं को अपमानित करने के लिए अनेक उपक्रम हुए स्वतंत्रता के बाद भी अपने ही मूल शहर से हिंदुओं को दूसरी जगह पलायन करना पड़ा, उनके मंदिरों में पूजा पाठ करना, लोगों का जाना कठिन हुआ, बंद हुए और कई जगहों पर बेदर्दी से स्थलों को कब्जा करने के उपक्रम भी हुए। स्थानीय स्तरों पर इनमें से ज्यादातर स्थानों को प्राप्त करने की भावनाएं या उन मुद्दों को उठाने और कहीं-कहीं संघर्ष करने का भी लंबा अतीत है। 
 
इसमें अगर व्यक्तिगत रूप से किसी हिंदू समूह या पूरे समाज को लगता है कि हमें वह स्थल वापस मिलने चाहिएं और जहां प्रतिमाओं का अपमान हुआ उनका निराकरण भी हो और इसके लिए वे सामने आते हैं, न्यायालय में जाते हैं तो यह स्वाभाविक है। भागवत जिस विषय पर बोल रहे थे वह भारत के विश्व गुरु बनने पर था और उनका पूरा भाषण 1 घंटे से ज्यादा का है। इसमें वह प्राचीन भारत से लेकर मुस्लिम काल, अंग्रेजों की गुलामी आदि के प्रभाव, वर्तमान में भारत किस तरह विश्व दृष्टि से कम कर रहा है आदि सभी बातें शामिल हैं जिनकी लोग अपेक्षा रखते हैं। फिर भविष्य की दृष्टि है और उसी में लगभग अंत में केवल एक कुछ पंक्तियां हैं। 
 
किसी देश को पूरा संसार अपना आदर्श तभी मानेगा और उसका अनुसरण भी करेगा, जब वह देश अपने अंदर विवादों को सही तरीके से सुलझाने, सभी पंथों, मजहबों के बीच के तनावों को तरीके से समाप्त करने और सहजीवन के साथ रहते हुए आदर्श देश की मिसाल रखेगा। यानि उठाए जा रहे मुद्दों के अन्य पहलुओं पर गहराई से नहीं विचार होगा तो समस्याएं सुलझने के बजाय उलझेंगी और फिर इनका समाधान भी संभव नहीं होगा। कोई भी विवेकशील व्यक्ति कह नहीं सकता कि जो अतीत में अन्याय, अत्याचार, ध्वंस और कब्जे हुए वो वैसे ही रहे और लोगों की भावनाएं दमित हों। इनसे भविष्य में हिंसा व तनाव बढ़ाने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं। 
 
समस्या यह है कि संपूर्ण देश में ऐसे हजारों स्थान है। कल्पना करिए धीरे-धीरे पूरे देश में ऐसे विषय उठ जाएं और स्थिति संभल जैसी पैदा हों तो क्या होगा? क्या देश की इन विवादों के अंतिम समाधान की अभी तक तैयारी है? क्या हिंदू समाज इनके विरुद्ध होने वाली अनेक तरह की विपरीत प्रतिक्रियाओं का सफलतापूर्वक सामना करने की अवस्था में पहुंच गया है? क्या जो लोग इन विषयों को न्यायालय में ले जा रहे हैं उनकी ऐसी क्षमता है कि वो इनका सामना भी कर सकें? क्या उन सब की विश्वसनीयता भी है? क्या धर्माचार्य और अन्य हिंदू संगठनों ने उन स्थितियों के लिए अपनी तैयारी कर रखी है? अभी तक ज्यादातर धर्माचार्यों ने संगठित होकर किसी ऐसे विषय के समाधान की न पहल की, न वे लोगों के बीच गए। 
 
संभल में ही समस्या पैदा होने पर कितने समाधान या संघर्ष के लिए आगे आए इन पर अवश्य दृष्टि रखिए। सारे प्रश्नों का उत्तर भारत के व्यापक राष्ट्रीय वैश्विक लक्ष्यों का ध्यान रखते हुए शांतिपूर्वक तलाश से जाने की आवश्यकता है। सच यह है कि लगभग 1000 वर्षों की हिंदू मुस्लिम विवादों के समाधान पर देश के राजनीतिक, धार्मिक और बौद्धिक नेतृत्व ने कभी लंबा विचार ही नहीं किया और जब विचार नहीं होगा तो फिर रास्ता निकालेगा कौन? इसके विपरीत राजनीतिक दलों ने वोट के लिए अपने बयानों और नीतियों से अतीत या वर्तमान के अन्यायों का ही समर्थन किया और जो इन विषयों को उठा रहे हैं उन्हें आज भी उन्हें ही निंदा आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ता है। 
 
इस सच को स्वीकार करना होगा कि ऐसी नीतियों और आचरणों से सनातनी समाज के अंदर व्यापक असंतोष और क्षोभ पैदा हुआ, जिसकी परिणति इन छिटपुट विवादों के रूप में सामने आ रहीं हैं। दूसरी ओर जब इन विवादों से समस्याएं बढ़तीं हैं या प्रतिक्रियाएं विकराल रूप में सामने आतीं हैं तो न कोई संगठन दिखता है और न ही हमारे धर्माचार्य। संभल में सर्वे के सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के विरुद्ध जितनी सुनियोजित तरीके से हिंसा हुई और उसकी आलोचना की जगह जिस दिशा में पूरे मुद्दे को व्याप्त इकोसिस्टम ले गया उनका सामना कौन करेगा? विरोधी इन सारे विवादों के लिए किस संगठन को जिम्मेदार ठहराते हैं? संघ और भाजपा। 
 
संघ की प्रकृति कभी ऐसी नहीं दिखी कि वह आरोपों का खंडन करने या विवादों पर स्पष्टीकरण देने आए। जिस संगठन को दीर्घकालिक दृष्टि से काम करना है वह त्वरित और तात्कालिकता का समर्थन नहीं कर सकता। जिस तरह संभल से कानपुर और अन्य शहरों में स्वतंत्रता के बाद भी सक्रिय मंदिरों पर कब्जे हुए, बंद किए गए, पवित्र कुएं तक पाटे गए और ऐसे स्थान काफी संख्या में सामने आ रहे हैं, उनकी आवाज उठाने और प्रशासन की मदद से उनके समाधान की कोशिशें हो रहीं हैं, सतर्कतापूर्वक होनी चाहिए। संघ प्रमुख ने उन पर बात नहीं की है। 
 
संघ का रुख यही रहा है कि हम हिंदू समाज के संगठन है लेकिन सभी हिंदू हमारे साथ है ऐसा नहीं है। गहराई से देखें तो डॉक्टर भागवत का वक्तव्य भविष्य दृष्टि से सभी के लिए सुझाव और सलाह की तरह है और इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। संघ या कोई संगठन धर्माचार्यों का अनुशासक या उनका मार्गदर्शक न हो सकता है और न उनके अंदर ऐसा भाव होगा। लेकिन सभी को समस्याओं के स्थायी समाधान, भारत के वर्तमान और भविष्य की दूरगामी दृष्टि से विचार कर आगे बढ़ना चाहिए।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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