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महिलाओं को मिलें राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समानता का अधिकार

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देवेंद्रराज सुथार

महिलाओं की शक्ति और संघर्ष को सलाम करने और उनके उत्कृष्ट कामों को सराहने के उद्देश्य से प्रत्येक साल 8 मार्च को 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाया जाता है। इस दिन विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा व प्यार प्रकट करते हुए महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक उपलब्धियों को लेकर खुशी मनाई जाती है।

 
दरअसल, 1908 में 15,000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क सिटी में वोटिंग अधिकारों की मांग, काम के घंटे कम करने और बेहतर वेतन मिलने के लिए मार्च निकाला था। 1 साल बाद अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी की घोषणा के अनुसार 1909 में यूनाइटेड स्टेट्स में पहला 'राष्ट्रीय महिला दिवस' 28 फरवरी को मनाया गया था। 1910 में क्लारा जेटकिन (जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की महिला ऑफिस की लीडर) नामक महिला ने 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाने का विचार रखा। उन्होंने सुझाव दिया कि महिलाओं को अपनी मांगों को आगे बढ़ाने के लिए हर देश में 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाना चाहिए।

 
एक कॉन्फ्रेंस में 17 देशों की 100 से ज्यादा महिलाओं ने इस सुझाव पर सहमति जताई और 'अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस' की स्थापना हुई। 19 मार्च 1911 को पहली बार ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाया गया था। 1913 में इसे ट्रांसफर कर 8 मार्च कर दिया गया और तब से इसे हर साल इसी दिन मनाया जाता है।
 
आज भी भारत में आबादी के हिसाब से महिलाओं की राजनीति में भागीदारी उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों में कुल मिलाकर 94 (65 लोकसभा व 29 राज्यसभा) महिला सांसद हैं, जो कि कुल सदस्यता का लगभग 12 प्रतिशत है, जबकि वैश्विक औसत 23 प्रतिशत है। राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो और भी चिंताजनक है।

 
गौरतलब है कि भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार की समाप्ति एवं उनकी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए 12 सितंबर 1996 को पहली बार महिला आरक्षण का विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था, जो तब से लेकर आज तक राजनीतिक दलों की राजनीति का शिकार है। लगभग 22 वर्षों से भारत की प्रत्येक सरकार ने संसद एवं विधानसभाओं में महिला आरक्षण लागू करने का लंबा प्रयास किया, जो अभी तक सफल नहीं हो पाया है। दुनिया के कई देशों में महिला आरक्षण की व्यवस्था संविधान में दी गई है या विधेयक के द्वारा यह प्रावधान किया गया है, जबकि कई देशों में राजनीतिक दलों के स्तर पर ही इसे लागू किया गया है।

 
अर्जेंटीना में 30 प्रतिशत, अफगानिस्तान में 27 प्रतिशत, पाकिस्तान में 30 प्रतिशत एवं बांग्लादेश में 10 प्रतिशत आरक्षण कानून बनाकर महिलाओं को प्रदान किया गया है, जबकि राजनीतिक दलों के द्वारा महिलाओं को आरक्षण देने वाले देशों में डेनमार्क (34 प्रतिशत), नॉर्वे (38 प्रतिशत), स्वीडन (40 प्रतिशत), फिनलैंड (34 प्रतिशत) तथा आइसलैंड (25 प्रतिशत) आदि उल्लेखनीय हैं। भारत की 74 प्रतिशत साक्षरता दर की तुलना में महिला साक्षरता दर 64 प्रतिशत है। महिलाओं की आर्थिक भागीदारी 42 प्रतिशत है जबकि विकसित देशों में यह 100 प्रतिशत पहुंच रही है। कामकाज में भारतीय महिलाओं की भागीदारी मात्र 28 प्रतिशत है जबकि हमारे पड़ोसी बांग्लादेश में भी यह 45 प्रतिशत है।

 
भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे सबसे बड़ा कारण अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का मौजूद होना है। यह न सिर्फ महिलाओं को राजनीति में आने से हतोत्साहित करता है बल्कि राजनीति के प्रवेश द्वार की बाधाओं की तरह काम करता है। पितृसत्तात्मक परिवारों की वजह से केवल परिवार में महिलाओं की स्वतंत्र सोच को विकसित नहीं होने दिया जाता अपितु समाज में भी महिलाओं को स्वतंत्र रूप से बात रखने का मौका नहीं मिलता।

 
एक तरफ जहां संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, वहीं घर की महिलाओं को परिवार के ही पुरुषों के हिसाब से अपनी सोच बनानी पड़ती है और मतदान भी अपने पिता, भाई या पति की इच्छानुसार करना पड़ता है। अगर कोई महिला अपनी मर्जी से अपनी राजनीतिक सोच विकसित करती है तो उसको अपने ही लोगों द्वारा ये कहकर डराया जाता है कि समाज क्या कहेगा, दुश्मन बन जाएंगे लोग, तुम अबला नारी हो, कैसे मुकाबला करोगी आदि। सभ्यता के आरंभ से ही मानव समाज के विकास में आधी आबादी की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है और हमेशा रहेगी।

 
ऐसी स्थिति में किसी भी समाज का पूर्ण विकास समाज के आदर्श सदस्य को अलग-थलग करके नहीं किया जा सकता। इसके लिए महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है और इसके लिए उनका कामकाजी होना जरूरी है। जो भारत कभी 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:' की विचारधारा पर चलायमान था, आज हालात यह है कि वो भारत महिलाओं पर अत्याचार के लिहाज से दुनिया का सबसे खतरनाक देश बन गया है।
 
थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने महिलाओं के मुद्दे पर 550 एक्सपर्ट्स का सर्वे जारी किया है। इसमें घरेलू काम के लिए मानव तस्करी, जबरन शादी और बंधक बनाकर यौन शोषण के लिहाज से भी भारत को खतरनाक करार दिया है। सर्वे में ये भी कहा गया है कि देश की सांस्कृतिक परंपराएं भी महिलाओं पर असर डालती हैं। इसके चलते उन्हें एसिड अटैक, गर्भ में बच्ची की हत्या, बाल विवाह और शारीरिक शोषण का सामना करना पड़ता है। भारत में महिलाओं को तस्करी से सबसे ज्यादा खतरा है। भारत में 2016 में मानव तस्करी के 15 हजार मामले दर्ज किए गए जिनमें से दो-तिहाई महिलाओं से जुड़े थे।

 
देश के हर कोने से महिलाओं के साथ बलात्कार, यौन प्रताड़ना, दहेज के लिए जलाए जाने, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना और स्त्रियों की खरीद-फरोख्त के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। ऐसे में महिला सुरक्षा कानून का क्या मतलब रह जाता है, इसे हम बेहतर तरीके से सोच और जान सकते हैं। इसलिए अगर महिलाओं की सुरक्षा के लिहाज से देखा जाए तो जिस तरह की घटनाएं आए दिन भारत में घट रही हैं, उसमें महिलाओं की सुरक्षा को लेकर अगर कोई रिपोर्ट आती है तो वह कहीं-न-कहीं इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों पर अंगुली उठाती हैं।

 
समय-समय पर महिला सुरक्षा को लेकर कानून बनाए जाते हैं और कानूनों में परिवर्तन भी किए जाते रहे हैं फिर भी देश में महिलाएं असुरक्षित हैं। जिन लोगों को लगता है कि सिर्फ कठोर कानून से महिलाएं सुरक्षित हो सकती हैं, तो वे जान लें शरिया कानून और कठोरतम सजा वाले देश अफगानिस्तान, सऊदी अरब भी इस टॉप 10 सूची में हैं। शासन और प्रशासन चाहे जितना कठोर कानून तैयार कर ले, लेकिन जब तक व्यक्ति की मानसिकता और उसे बचपन में नारी-मर्यादा के संस्कार नहीं सिखाए जाएंगे, तब तक ऐसे कानून मजाक बनते ही रहेंगे।

 
आज हमें आधी आबादी के प्रति निर्मित की गई दकियानूसी मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है। देश के हर नागरिक को अपने-अपने हिसाब से राजनीतिक मत व्यक्त करने का पूर्ण अधिकार है। इसके लिए हमें देश की महिलाओं को ऐसा माहौल देना होगा जिससे कि उनकी एक स्वतंत्र सोच विकसित हो और वे अपनी बात खुलकर बिना किसी संकोच के समाज के सामने रखें।

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