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वर्ष 2017 में कैसे होंगे विश्व राजनीति के रंग...

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शरद सिंगी

वर्ष 2017 ने अपने आगमन का बिगुल बजा दिया है। आगे यह आवाज़ शहनाई में बदलेगी या शंखनाद में यह तो हमें समय बीतने के साथ ही मालूम पड़ेगा, किन्तु इतना तो अवश्य है कि धरती के राजनीतिक चरित्र में इस वर्ष काफी परिवर्तन होंगे। इस लेख में हम उन महत्वपूर्ण घटनाओं की चर्चा करेंगे जो वर्ष 2017 की शक्‍ल को परिवर्तित करने की क्षमता रखती हैं। आगे भी उन पर हमारी निगाहें सतत बनी रहेंगी। 
जनवरी 21 को ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे। इस दिन का इंतज़ार कई देश कर रहे हैं। अमेरिकी कूटनीति में भारी बदलाव की संभावना व्यक्त की जा रही है। ट्रंप ने ताइवान की राष्ट्रपति से सीधे बात करके चीन की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। ध्यान रहे अभी तक चीन के दबाव में अमेरिका, ताइवान को चीन का अंग मानता रहा है किन्तु अब ताइवान के राष्ट्रपति से सीधे बात करने का अर्थ है ताइवान के प्रशासन को अलग से मान्यता देना। चीन को यह नागवार गुज़रा। उसी तरह से रूस और इसराइल के प्रति भी ट्रंप अपना झुकाव सार्वजानिक रूप से प्रकट कर चुके हैं जो अमेरिका की अब तक की नीतियों के विरुद्ध है। आश्चर्य की बात यह रही कि हाल ही में ओबामा ने कंप्यूटर से सूचनाएं चोरी करने का आरोप लगाकर अमेरिका में स्थित रूसी दूतावासों से पैंतीस राजनयिकों को वापस रूस भेज दिया। सामान्य स्थिति में तुरन्त इसकी प्रतिकिया होती है किन्तु पुतिन ने न तो कोई प्रतिक्रिया दी और न ही अमेरिकी राजनयिकों को निकाला। मतलब साफ है वे ट्रंप का इंतज़ार कर रहे हैं और उनके स्वागत में कोई गलत कदम नहीं उठाएंगे।   
 
इस वर्ष मार्च में इंग्लैंड अपनी यूरोपीय संघ से निकलने की प्रक्रिया का आरम्भ करेगा। इसके साथ ही यूरोपीय देशों के आपसी सहयोग में एक रुकावट का दौर आरम्भ होगा। इस निर्णय से जुड़े आर्थिक भार को इंग्लैंड, यूरोप और विश्व कैसे सोखेगा इसका आज आकलन करना मुश्किल है किन्तु यह तो निश्चित है कि यह प्रक्रिया विश्व की आर्थिक व्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव तो नहीं डालेगी। 
 
अप्रैल/ मई में फ्रांस में चुनाव होने हैं। फ्रांस यूरोपीय संघ का दूसरा शक्तिशाली देश है। यूरोप में यह देश आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है, अतः यहां दक्षिणपंथी दलों की नागरिकों में पैठ बढ़ रही है । फ्रांस्वा फिलां का नाम तेजी से उठ रहा है जो अनुदारपंथी दल से तो आते हैं किन्तु यह दल अब दक्षिण पंथ की ओर भी झुकता दिखाई दे रहा है।  
 
अप्रैल में ही ईरान में भी प्रधानमंत्री के चुनाव हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री हसन रोहानी जो नरमपंथी एवं सुधारवादी  नेता माने जाते हैं, अपना कार्यकाल समाप्त करेंगे। उन्होंने ईरान को कट्टरपंथ के मार्ग से हटाने के बहुत प्रयास किए फलतः महाशक्तियों के साथ परमाणु संधि के रूप में उन्हें सफलता भी मिली किन्तु देश में कट्टरपंथियों का सहयोग नहीं होने से वे ईरान को विश्व की मुख्यधारा से  जोड़ने में कामयाब नहीं हो सके। अब देखना यह है कि इन चुनावों में हसन रोहानी पुनः जीत पाते हैं या नहीं? यदि नहीं तो मध्यपूर्व के हालात और अधिक बिगड़ने की संभावना होगी। 
 
सितंबर के आसपास ही चीन की  कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं  कांग्रेस की बैठक होगी  जिसमें शी जिनपिंग का फिर से चुना जाना लगभग तय है।  शी जिनपिंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में बहुत मज़बूत हो चुके हैं। कुछ का मानना है कि चीन में माओ के बाद शी जिनपिंग ही इतने शक्तिशाली नेता हुए हैं। चीन के सामने चुनौती होगी ट्रंप के अमेरिका के साथ रिश्तों को सामान्य बनाए रखने की और ऐसे समय चीन को आवश्यकता होगी एक शक्तिशाली नेता की, जो शी जिनपिंग पूरी करते हैं। 
 
सितंबर में जर्मनी के चुनाव हैं। यह यूरोपीय संघ का सबसे शक्तिशाली एवं प्रभावशाली सदस्य है। अभी तक यह आतंकवाद से अछूता था। वर्तमान चांसलर एंजेला मर्किल के द्वारा सीरिया के विस्थापितों को यूरोप में बसाने की पैरवी करने के बाद विश्व में उनका कद ऊंचा हुआ था किन्तु अब तक आतंकवाद से अछूते जर्मनी में विगत वर्ष में कुछ आतंकवादी हमले हुए तो विरोधी दलों ने इसका दोष एंजेला की विस्थापितों पर नरम रुख अपनाने की नीतियों पर मढ़ दिया और इससे एंजेला मर्केल की लोकप्रियता में भारी कमी आई है। इस तरह यदि फ्रांस और जर्मनी दोनों देशों में दक्षिणपंथी दलों का कब्ज़ा हो गया तो यूरोप का चेहरा बदल जाएगा। 
 
भारत में प्रदेशों के चुनाव यद्यपि विश्व की राजनीति में कोई विशेष प्रभाव नहीं रखते, किन्तु यदि इन चुनावों में भाजपा जीतती है तो मोदीजी का कद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ेगा। भारत निरंतर आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ रहा है और अब उसे आर्थिक शक्ति तो माना जाने लगा है किन्तु अभी सामरिक शक्ति बनने में समय लगेगा। जब तक भारत सामरिक शक्ति नहीं बनेगा, तब तक उसे  अमेरिका और रूस का समर्थन चाहिए, चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध। यदि भारत अमेरिका के अधिक नज़दीक होता है तो रूस के फिसलने का भय बना रहेगा। इस वर्ष उम्मीद तो यही करें कि ट्रंप और पुतिन के रिश्ते अच्छे हों, ताकि भारत पर किसी तरह का दबाव न रहे और भारत इस वर्ष आर्थिक के साथ सामरिक शक्ति बनने के प्रयासों में सफलता प्राप्त करे। 

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