जायरा वसीम के रोल मॉडल बनने के बयान से मचे बवाल में कुछ लोग जायरा को रील लाइफ में अखाड़े की कुश्ती के साथ रियल लाइफ की नूरा कुश्ती में भी उलझा दिए हैं। जायरा को रियल लाइफ के इतने कटु अनुभव से जल्द नवाजना बताता है कि हम कितने संगदिल हो गए हैं कि कम उम्र भी हमारी निगाहों में कोई मायने नहीं रखती है।
और यह सब तोहमत लगाने वाले वे होते हैं, जो होश संभालने के पहले ही खुद के जीवन के लिए ऐशो-आराम के सपने बुनते हैं फिर यदि खुद का जीवन स्वर्णिम नहीं हो पाया तो औलादों का जीवन बदलने में लग जाते हैं। दिन-रात ऊंचाइयों के सपने देखने वाले जरा-से लालच में राह बदल सकते हैं, बशर्ते उसमें उन्हें उनका फायदा दिखाई दे। लेकिन बात जब दूसरों की हो तो तमाम फिरके एक जुबां बोलने लगते है।
वो तो शुक्र है खुदा का कि ग्रंथों में जुबान-भाषा का कोई बंधन नहीं डाला गया है वरना आधी से ज्यादा दुनिया तो जुबां होते हुए भी गूंगी बना दी जाती। फर्ज कीजिए कि कल को कोई नया ग्रंथ आ जाए जिसमें हुक्म हो कि फलां धर्म का बंदा तभी सच्चा बंदा है, जब वो सिर्फ और सिर्फ फलां जुबां ही बुदबुदाए! तब क्या तस्वीर होगी? कोई कल्पना की जाए तो सिरहन दौड़ जाती है।
फिलहाल ऐसी कोई सूरते-हाल नहीं दिखते तो माना जाए कि ग्रंथों में भाषा बंधन का न होना यह दर्शाता है कि कट्टरपन ग्रंथों में नहीं बल्कि हमारे दिमागों में है, जो हमें दूसरों से जुदा रखने की जमीन पर हरदम बनाए रखता है। नहीं तो दूसरों से जुदा होने की वजह यदि भाषा नहीं हो सकती तो दूसरी और कौन-सी चीज हो सकती है? यानी ईश्वर हमें जुदा जुबां देकर भी जुदा महसूस नहीं होने देता तो फिर हम क्योंकर जुदा होना चाहते हैं? इंसानी फितरत है कि वो आसानी से किसी को आगे नहीं बढ़ने देगा, न ही किसी को बढ़ते देख सकता है और इस फितरत को सही सिद्ध करने के लिए उसके पास हरहाल-वक्त में हमेशा सौ तर्क मौजूद रहते हैं।
जायरा वसीम के उभरने को रोकने के पीछे उनका महिला होना भी एक वजह बताई जाती है, जो एक आसान तर्क है हमेशा की तरह, क्योंकि जनमानस में स्त्रैण छाप को हाशिए पर रखने की छवि बरसोबरस से गढ़ी हुई है और यह मानस में कुछ इस तरह से रच-बस गया है कि उसमें स्त्री की छवि लीडर के रूप में ही नहीं।
इस कारण को सार्वजनिक रूप से चाहे अस्वीकारा जाए, पर यह मजबूती और गहराई से जमा हुआ है जिसमें कोई शक नहीं और इस बात को हमारा समाज आए दिन कई-कई उदाहरणों से सामने प्रस्तुत करता रहता है। इस रोकथाम के लिए कभी ग्रंथों की आड़ ली जाती है तो कभी सभ्यता-संस्कृति की, पर जायरा वसीम के मामले में ये सभी तर्क महज सतही हैं।
इस मसले में एक और महत्वपूर्ण कारण छुपा है, जो कश्मीरियत से जुड़ा है खासकर आज के कश्मीर से। इस वक्त कश्मीर में जो अलगाववादी तत्व हैं, वे नहीं चाहते कि कश्मीर के अवाम से कोई चेहरा-शख्सियत उभरे, जो एक पहचान की तरह कश्मीर और कश्मीरियत को देश की शेष अवाम से जोड़ दे। यह तो उनके किए-धरे पर पानी फेरने की तरह है कि वे अलगाव की आग जलाएं और कोई शख्स पानी बनकर लगाव-जुड़ाव फैला जाए। वे इसे कैसे सहन करेंगे?
उनके मंसूबों पर जायरा ने कयामत की कुश्ती मचा दी है और वे बेबस होकर सौ तर्क लेकर हाजिर हैं। यही वजह कुछ-कुछ क्रिकेटर शमी के साथ भी जुड़ी है, क्योंकि ये सभी आइकॉन अलगाववादियों के फैलाए जुदा बने रहने के शगूफे में सेंध की तरह हैं। अलगाववादी अपनी जीत के लिए एक मंत्र पर कार्य करते हैं जिसमें उनका मूल कार्य चेन-जंजीर को तोड़ना होता है, जो एक-दूसरे को जोड़ती है।
अब ये जितने भी आइकॉन हैं, वे एक तरह से इस जंजीर की कड़ी बनकर उनके लिए सितम की तरह सामने आते हैं, तब वे अलगाववादी इन्हें इसके एवज में तर्कों से खलनायक के रूप में खड़ा करने के प्रयास में लग जाते हैं। चूंकि एक आइकॉन को गिराना या चित्त करना इतना आसान नहीं होता जितना कि किसी दुश्मन को गिराना, कारण कि ब्लो दि बेल्ट या सीधे बुलेट का प्रहार चाहे आइकॉन को तत्काल धाराशायी कर दे, पर ये आइकॉन खड़े हुए हाथी की तरह होते हैं, जो जीते-जी लाख का होता है पर गिरते/मरते ही सवा लाख का हो जाता है।
मतलब आइकॉन की दिलों को जोड़ने की तासीर उसके दुनिया छोड़ने पर सवा गुना ज्यादा हो जाती है और यदि बच गए या निशाना सटीक न बैठा तो मलाला का उदाहरण सामने है ही जिसमें चूक का खामियाजा सवाये की जगह सहस्र गुना हो जाता है। इसी वजह से कुटिल अलगाववादी इस जगह बुलेट को भूलकर भ्रम फैलाने में यकीन करने लगते हैं।
लेकिन इन सब बातों को दरकिनार कर कहीं-न-कहीं हम बिला-वजह मुद्दों को तूल देकर खुद राह खोलते हैं जिससे कि अलगाववादियों को फायदा हो। वे हमें भ्रमित कर उलझाते हैं। अलगाववादी तत्व जब अपनी खिसकती जमीन को दुरस्त करने के प्रयास में हथियार की जगह ईश्वर, धर्म, जाति, संस्कृति को हथियार बनाने लगें तब समझ लीजिए कि वो हारती लड़ाई लड़ रहे हैं और ऐसे समय यदि उनके बहकावे में न उलझकर उनके छुपे हुए मंसूबों पर चोट की जाए तो यह उनके ताबूत की आखिरी न सही, पर आखिरी से कुछ पहले की कील जरूर हो सकती है, जो इन अलगाववादियों को सीधे ताबूत में ठुकने की तरह ही लगेगी।