नाग देवता है भगवान शिव के गले का श्रृंगार...
श्रावण शिव की उपासना का महीना है और नाग भगवान शिव के गले का श्रृंगार। इसीलिए इस महीने की उपासना में भगवान शिव की उपासना के साथ-साथ उनके अलंकारों, आभूषणों एवं परिवार के सभी सदस्यों की पूजा-उपासना का विधान है।
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि नागपंचमी नागों को समर्पित है। इस त्योहार पर व्रतपूर्वक नागों का अर्जन, पूजन होता है। वेद और पुराणों में नागों का उद्गम महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से माना गया है। नागों का मूलस्थान पाताल लोक प्रसिद्ध है। गरुड़पुराण, भविष्यपुराण, चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में नाग संबंधी विविध विषयों का उल्लेख मिलता है।
पुराणों में यक्ष, किन्नर और गन्धर्वों के वर्णन के साथ नागों का भी वर्णन मिलता है। भगवान विष्णु की शय्या शोभा नागराज शेष हैं। भगवान शिव और गणेश जी के अलंकरण में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस प्रकार अन्य देवताओं ने भी नागों को धारण किया है। नाग देवता भारतीय संस्कृति में देवरूप में स्वीकार किए गए हैं।
कश्मीर के संस्कृत कवि कल्हण ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में कश्मीर की संपूर्ण भूमि को नागों का अवदान माना है। देश के पर्वतीय प्रदेशों में नाग पूजा बहुतायत से होती है। हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल, असम और अरूणाचल तथा दक्षिण भारत के पर्वतीय अंचलों में नाग पूजा का विशेष विधान है, जहां नाग देवता अत्यंत पूज्य माने जाते हैं।
हमारे देश के प्रत्येक ग्राम नगर में ग्राम देवता और लोक देवता के रूप में नागदेवता के पूजा स्थल हैं। भारतीय संस्कृति में सायं-प्रातः भगवान के स्मरण के साथ अनंत तथा वासुकि आदि नागों का स्मरण भी किया जाता है जिनसे भवविष और भय से रक्षा होती है तथा सर्वत्र विजय होती है -
'अनन्तं वासुकिं शेषं पद्यनाभं च कम्बलम्।
शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।'
देवी भागवत में प्रमुख नागों का नित्य स्मरण किया गया है। हमारे ऋषि मुनियों ने नागोंपासना में अनेक व्रत पूजन का विधान किया है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी नागों को अत्यंत आनन्द देनेवाली है- 'नागानामानन्दकरी' पचंमी तिथि को नाग पूजा में उनको गो-दुग्ध से स्नान कराने का विधान है।
एक बार मातृ शाप से नागलोक जलने लगा। इस दाह पीड़ा की निवृत्ति के लिए (नागपंचमी को) गो-दुग्ध स्नान जहां नागों को शीतलता प्रदान करता है, वहां भक्तों को सर्पभय से मुक्ति भी देता है। नागपंचमी की कथा के श्रवण का बड़ा महत्व है। इस कथा के प्रवक्ता सुमन्त मुनि थे तथा श्रोता पाण्डववंश के राजा शतानीक थे।
हमारे धर्मग्रंथों में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पूजा का विधान है। व्रत के साथ एक बार भोजन करने का नियम है। पूजा में पृथ्वी पर नागों का चित्राकंन किया जाता है। स्वर्ण, रजत, लकड़ी या मिट्टी से नाग बनाकर पुष्प, गंध, धूप-दीप एवं विविध नैवेद्यों से नागों का पूजन होता है।
नाग पूजा में मंत्रों का उच्चारण कर नागों को प्रणाम किया जाता है-
'सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथ्वीतले'
जो नाग, पृथ्वी, आकाश, स्वर्ण, सूर्य की किरणों, सरोवरों, कूप तथा तालाब आदि में निवास करते हैं। वे सब हम पर प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं। नागों की अनेक जातियां और प्रजातियां हैं। भविष्यपुराण में नागों के लक्षण, नाम, स्वरूप एवं जातियों का विस्तार से वर्णन मिलता है। यह दृष्टि ही जीवमात्र मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग सभी में ईश्वर के दर्शन कराती है। जीवों के प्रति आत्मीयता और दयाभाव को विकसित करती है।
अतः नाग हमारे लिए पूज्य और संरक्षणीय हैं, जिनमें विष भरे नागों की संख्या बहुत कम है। पर्यावरण रक्षा तथा वन संपदा में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ये नाग हमारी कृषि संपदा की कृषिनाशक जीवों से रक्षा करते हैं।