लंगर के कई अर्थ है। जहाज, नाव आदि में सफर करने वाले लोग अक्सर लंगर डालकर भोजन आदि कर विश्राम करते थे। दरअसल, लंगर लोहे का वह बहुत बड़ा कांटा जिसे नदी या समुद्र में गिरा देने पर नाव या जहाज एक ही स्थान पर ठहरा रहता है। संभवत: यही से यह शब्द प्रेरित हो, लेकिन गुरुद्वारे से संबंधित वह स्थान जहां लोगों को खाने के लिए भोजन बांटा जाता है। इस गुरु का प्रसाद भी कहते हैं।
सिख धर्म में लंगर को दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो इसका अर्थ रसोई है। ऐसी रसोई जिसमें बिना जाति-धर्म के भेदभाव के हर व्यक्ति बैठकर अपनी भूख मिटा सके। दूसरा इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि बिना किसी जाति, धर्म और वर्ग के भेदभाव के हर व्यक्ति अपनी आत्मा की परमात्मा को पाने के लिए स्वभाविक चाह और भूख या ज्ञान पाने की इच्छा को मिटा सके।
कहते हैं कि लंगर प्रथा की शुरुआत सिख धर्म के प्रथम गुरु गुरुनानक देवजी ने अपने घर से की थी। एक किस्सा भी है कि एक बार नानकजी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए कुछ पैसे दिए, जिसे देकर उन्होंने कहा कि वो बाजार से सौदा करके कुछ कमा कर लाए। नानक जी इन पैसों को लेकर जा रहे थे कि उन्होंने कुछ भिखारियों को देखा, उन्होंने वो पैसे भूखों को खिलाने में खर्च कर दिए और खाली हाथ घर लौट आए। इससे उनके पिता गुस्सा हुए, तो नानक देव जी ने कहा कि सच्चा लाभ तो सेवा करने में है।
गुरुजी ने ''किरत करो और वंड छको'' का नारा दिया, जिसका अर्थ था खुद अपने हाथ से मेहनत करो, और सब में बांट कर खाओ।
नानकजी कहते हैं कि चाहे अमीर हो या गरीब, ऊंची जाति का हो या नीची जाति, अगर वह भूखा है तो उसे खाना जरूर खिलाओ। इसलिए स्वर्ण मंदिर में चार दरवाजे हैं। जो यही संदेश देते हैं कि व्यक्ति कोई भी हो, उनके लिए चारों दरवाजे खुले हैं।
गुरु नानक जहां भी गए, जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। ऊंच-नीच, जात-पात और अंधविश्वास को समाप्त करने के लिए सभी लोगों के एक साथ बैठकर वे भोजन करते थे। दूसरे गुरु गुरु अंगद देव जी ने लंगर की इस परंपरा को आगे बढ़ाया। तीसरी पातशाही श्री गुरु अमरदास जी ने बड़े स्तर पर इस लंगर परंपरा को आगे बढ़ाया और प्रचारित किया।
पूरी दुनिया में जहां भी सिख बसे हुए हैं, उन्होंने इस लंगर प्रथा को कायम रखा है। सिख समुदाय में खुशी के मौकों के अलावा त्योहार, गुरु पर्व, मेले व शुभ अवसरों पर लंगर आयोजित किया जाता है। इसके अलावा गुरुद्वारों में भी नियमित लंगर होता है। दुनिया का सबसे बड़ा लंगर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में आयोजित होता है।
लंगर प्रथा हर समुदाय, हर जाति, हर धर्म, हर वर्ग के लोगों को एक साथ बिठाकर खाना खिला कर भेदभाव को कम करने की बहुत बड़ी कोशिश थी।
लंगर में स्त्री और पुरुष दोनों ही मिलकर सेवा देते हैं। गुरुद्वारे के अलावा तीर्थ यात्रा के दौरान या पर्व के दौरान जहां पर भी लंगर लगाया जाता है वहां पर अस्थायी चूल्हा बनाकर उसके इर्द-गिर्द मिट्टी का लेप कर दिया जाता है। इस कार्य में महिलाओं की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। महिलाएं मिलजुल कर बहुत ही श्रद्धा से शब्द गाती हुई लंगर पकाती हैं। सभी लोग मिलजुल कर सामूहिक रूप से आटा गूंथना, सब्जी काटना, रोटी-दाल पकाना जैसे काम करते हैं।