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गुरु नानक जी के 10 छोटे-छोटे प्रेरक प्रसंग जिनमें छुपी है जीवन की अनमोल सीख

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1 . माता तृप्ता देवीजी और पिता कालू खत्रीजी के सुपुत्र श्री गुरुनानकदेवजी का अवतरण संवत्‌ 1469 में कार्तिक पूर्णिमा को ननकाना साहिब में हुआ। सतगुरुजी की महानता के दर्शन बचपन से ही दिखने लगे थे। नानकदेवजी ने रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत बचपन से हीकर दी थी, जब उन्हें 11 साल की उम्र में जनेऊ धारण करवाने की रीत का पालन किया जा रहा था। 

जब पंडितजी बालक नानकदेवजी के गले में जनेऊ धारण करवाने लगे तब उन्होंने उनका हाथ रोका और कहने लगे- 'पंडितजी, जनेऊ पहनने से हम लोगों का दूसरा जन्म होता है, जिसको आप आध्यात्मिक जन्म कहते हैं तो जनेऊ भी किसी और किस्म का होना चाहिए, जो आत्मा को बांध सके। आप जो जनेऊ मुझे दे रहे हो वह तो कपास के धागे का है जो कि मैला हो जाएगा, टूट जाएगा, मरते समय शरीर के साथ चिता में जल जाएगा। फिर यह जनेऊ आत्मिक जन्म के लिए कैसे हुआ? और उन्होंने जनेऊ धारण नहीं किया।' 
2. बड़े होने पर नानकदेवजी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए 20 रु. दिए और कहा- 'इन 20 रु. से सच्चा सौदा करके आओ। नानक देवजी सौदा करने निकले। रास्ते में उन्हें साधु-संतों की मंडली मिली। नानकदेवजी ने उस साधु मंडली को 20 रु. का भोजन करवादिया और लौट आए। पिताजी ने पूछा- क्या सौदा करके आए? उन्होंने कहा- 'साधुओं को भोजन करवाया। यही तो सच्चा सौदा है।' 
 
3. गुरुनानकदेवजी जनता को जगाने के लिए और धर्म प्रचारकों को उनकी खामियां बतलाने के लिए अनेक तीर्थस्थानों पर पहुँचे और लोगों से धर्मांधता से दूर रहने का आग्रह किया। उन्होंने पितरों को भोजन यानी मरने के बाद करवाए जाने वाले भोजन का विरोध किया और कहा कि मरने के बाद दिया जाने वाला भोजन पितरों को नहीं मिलता। हमें जीते जी ही माँ-बाप की सेवा करनी चाहिए। 
4. सतगुरुजी ने तीर्थ स्थानों पर स्नान के लिए इकट्ठे हुए श्रद्धालुओं को समझाते हुए कहा- मन मैले सभ किछ मैला, तन धोते मन अच्छा न होई। अर्थात अगर हमारा मन मैला है तो हम कितने भी सुंदर कपड़े पहन लें, अच्छे-से तन को साफ कर लें, बाहरी स्नान, सुंदर कपड़ों से हम संसार को तो अच्छे लग सकते हैं मगर परमात्मा को नहीं, क्योंकि परमात्मा हमारे मन की अवस्था को देखता है। 
 
अंतर मैल जे तीर्थ नावे तिसु बैंकुठ ना जाना/ लोग पतीणे कछु ना होई नाही राम अजाना, अर्थात सिर्फ जल से शरीर धोने से मन साफ नहीं हो सकता, तीर्थयात्रा की महानता चाहे कितनी भी क्यों न बताई जाए, तीर्थयात्रा सफल हुई है या नहीं, इसका निर्णय कहीं जाकर नहीं होगा। इसके लिए हरेक मनुष्य को अपने अंदर झांककर देखना होगा कि तीर्थ के जल से शरीर धोने के बाद भी मन में निंदा, ईर्ष्या, धन-लालसा, काम, क्रोध आदि कितने कम हुए हैं। 
 
5. एक बार कुछ लोगों ने नानकदेवजी से पूछा- आप हमें यह बताइए कि आपके मत अनुसार हिंदू बड़ा है या मुसलमान, सतगुरुजी ने उत्तर दिया- अवल अल्लाह नूर उपाइया कुदरत के सब बंदे/ एक नूर से सब जग उपजया को भले को मंदे, अर्थात सब बंदे ईश्वर के पैदा किए हुए हैं, नतो हिंदू कहलाने वाला रब की निगाह में कबूल है, न मुसलमान कहलाने वाला। रब की निगाह में वही बंदा ऊंचा है जिसका अमल नेक हो, जिसका आचरण सच्चा हो। 
 
6. इस तरह अलख जगाते सतगुरुजी अब्दाल नगर पहुंचे जहां वली कंधारी नाम का एक माना हुआ फकीर रहता था, जो कि उसके कुदरती चश्मे से सबको पानी पिलाता था। भाई मरदाना भी उसके पास पानी पीने पहुंचे पर फकीर, जो कि सतगुरुजी की प्रसिद्धि से जलता था, ने भाई मरदाने को पानी पिलाने से मना कर दिया। भाई मरदाने ने यह बात सतगुरुजी को बताई तो गुरुजी ने पास ही से एक पत्थर उठाया। निर्मल पावन जल वहीं से बह निकला और फकीर का चश्मा सूख गया। फकीर ने क्रोधित होकर पहाड़ी पर से एक पत्थर गुरुजी के सिर पर मारने के लिए लुढ़काया। पर आत्मिक शक्ति के बादशाह सतगुरुजी ने उसे हाथों पर ही रोक लिया। बताया जाता है कि उस पत्थर पर पंजे का निशान बन गया जो आज तक विद्यमान है। सतगुरुजी की शक्ति देखकर फकीर ने उनके चरण पकड़ लिए, तब गुरुजी ने उसे सत्य धर्म का उपदेश देकर यह वचन दिया कि तेरा भी दीवा सदा दहकता रहेगा।
7. गुरुनानकदेवजी का कहना था कि ईश्वर मनुष्य के हृदय में बसता है, अगर हृदय में निर्दयता है, नफरत है, पर-निंदा है, क्रोध आदि विकार हैं तो ऐसे मैले हृदय में परमात्मा बैठने के लिए तैयार नहीं हो सकता है। 
 
8. सतगुरुजी ने लोगों को सदा ही नेक राह पर चलने की समझाइश दी। उनका कहना था कि साधु-संगत और गुरबाणी का आसरा लेना ही जिंदगी का ठीक रास्ता है। सबसे बड़ी करामात यही है कि परमात्मा का नाम हृदय में बसाया जाए। 
 
9. सतगुरुजी का कहना था कि जिस तरह लाखों मन लकड़ी को आग की एक चिंगारी स्वाहा कर देती है, उसी प्रकार परमात्मा का सिमरन (स्मरण) जन्म-जन्मांतर के किए पापों के संस्कार सदा के लिए मिटा देता है। इस तरह अलख जगाते हुए गरुजी गुरु अंगद देवजी को गुरु गद्दी देकर ज्योति जोत में समा गए।
 
10. उन्होंने अपनी सुमधुर सरल वाणी से जनमानस के हृदय को जीत लिया। लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया सभी इंसान एक दूसरे के भाई है। ईश्वर सबके पिता है, फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंच-नीच कैसे हो सकते हैं? 


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