हिंदू मुस्लिम समुदायों के बीच आपसी मेल-मिलाप तथा दोस्ती की प्रतीक फूल वालों की सैर उत्सव को अंग्रेजों ने 1942 में दोनों समुदायों के बीच फूट डालने की नीति के तहत बंद करा दिया था, जिसे लंबे अरसे बाद 1961 में फिर से शुरू किया गया।
मुगल काल से लेकर अब तक पौने दो सौ साल से चला आ रहा फूल वालों की सैर का सफर इस बार 25 अक्तूबर से 27 फरवरी तक चलेगा।
अंजुमन सैरे गुलफरोशाँ की प्रवक्ता उषा कुमार ने बताया कि दिल्ली के पिछले पौने दो सौ साल के इतिहास को समेटने वाले इस उत्सव में दक्षिण दिल्ली के महरौली में स्थित महान सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर सभी संप्रदायों के लोग परंपरा के मुताबिक फूलों की चादर चढ़ाएँगे।
उन्होंने बताया कि 26 अक्तूबर को इसी जगह पर पांडव कालीन योगमाया मंदिर में फूलों का छत्र चढ़ाया जाएगा। फूल वालों की सैर का इतिहास बेहद अनोखा है, जिसे जानने के लिए मुगलकाल के पन्नों को पलटना होगा।
बताया जाता है कि वर्ष 1812 में मुगल बादशाह अकबर शाह द्वितीय की बेगम मुमताज महल ने अपने बड़े बेटे बहादुरशाह जफर की बजाय छोटे बेटे मिर्जा जहाँगीर को वली अहद बनवाए जाने की योजना बनाई। मिर्जा जहाँगीर दरबार और जनता के बीच अपनी आवारगी और बदमिजाजी के लिए बदनाम थे।
उस दौरान दिल्ली पर ब्रिटिश रेजीडेंसी की हुकुमत थी। इसी योजना के बीच एक दिन मिर्जा जहाँगीर ने दरबार में ब्रिटिश रेजीडेंट सिटोन की बेइज्जती कर दी। बात गोलीबारी तक पहुँच गई और सिटोन का गार्ड उसमें मारा गया।
इस घटना से गुस्साए सिटोन ने मिर्जा जहाँगीर को शहर बदर करने का फरमान जारी कर दिया। इस पर बेगम मुमताज महल ने मन्नत माँगी कि यदि उनका बेटा मिर्जा जहाँगीर वापस लौट आया, तो वह ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढाएँगी।
बेगम मुमताज की मन्नत पूरी हुई और मिर्जा जहाँगीर को दिल्ली लौटने की इजाजत मिल गई और वह भी इस शर्त के साथ कि बहादुरशाह जफर को ही वली अहद बनाया जाएगा तथा मिर्जा जहाँगीर इस पर कोई एतराज नहीं करेंगे।
इतिहास बताता है कि मिर्जा जहाँगीर के लौटने की खुशी में बेगम मुमताज ने अपना वादा पूरा करने का फैसला किया और वह सारे दिल्ली वासियों को इस खुशी में शरीक करते हुए दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाने चल पड़ीं।
बादशाह को भी फूल वालों की यह सैर इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे हर साल मनाने का ऐलान कर दिया। 1857 के गदर के बाद मुगल बादशाहत तो खत्म हो गई, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इस परंपरा को जारी रखने का फैसला किया और हिंदू मुस्लिम एकता का यह उत्सव बदस्तूर मनाया जाता रहा।
उषा कुमार बताती हैं कि 1942 में महात्मा गाँधी के भारत छोड़ों आंदोलन के जवाब में ब्रिटिश सरकार ने अपनी फूट डालो राज करो की नीति के तहत फूल वालों की सैर पर पाबंदी लगा दी और दो समुदायों के बीच मेल-मिलाप का यह कारवाँ थम गया।
लेकिन आजादी के बाद 1961 में जब समाज में सांप्रदायिक विद्वेष चरम पर था, तो प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने के मकसद से इस उत्सव को फिर से मनाए जाने की घोषणा की। तब से लेकर आज तक अमन और भाईचारे का यह कारवाँ यूँ ही चला आ रहा है।
फूल वालों की सैर उत्सव का समापन समारोह 27 अक्तूबर को महरौली के ऐतिहासिक जहाज महल प्रांगण में होगा। इस दौरान वहाँ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किया जाएगा, जिसमें कव्वाली मुकाबला, सूफी संगीत, तैराकी, दंगल, कठपुतली, नाच और पतंगबाजी भी होगी।
बच्चों के मनोरंजन के लिए झूले, चरखियाँ तथा आम लोगों के लिए मनोरंजन के कई साधन उपलब्ध होंगे। इस वर्ष सांस्कृतिक समारोह में तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और गोवा के भी कलाकार भाग लेंगे।