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आतंक के खौफनाक हथियार 'फिदायीन'

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- संदीप सिसोदिया

किसी भी देश के लिए आतंक का सबसे भयानक चेहरा माने जाते हैं फिदायीन यानी आत्मघाती हमलावर। इन फिदायीन हमलावरों को एक लक्ष्य दिया जाता है, जिसे पूरा करने के लिए फिदायीन अपनी जान दे देते हैं। यह सबसे बड़ा सवाल है कि एक आम आदमी आखिर कैसे जिहाद के नाम पर इतनी आसानी से मरने को तैयार हो जाता है। फिदायीन कैसे अपनी जान की परवाह न करते हुए मासूमों का कत्लेआम करते हैं।

  इस्लामिक जिहादी गुट अपने कारनामों को अंजाम देने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। अपनी तथाकथित वेबसाइटों के माध्यम से युवाओं को आकर्षित किया जा रहा है और आत्मघाती हमलावरों को 'हीरो' के रूप में दिखाकर, उन्हें 'शहीद' का दर्जा दिया जा रहा रहा है      
संचार माध्यमों के प्रसार के साथ ही इंटरनेट जिहादियों की भर्ती के लिए एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। अमेरिका की संघीय एजेंसी द्वारा अफगानिस्तान, इराक, सऊदी अरब और मध्य पूर्व के जिहादी गुटों पर बनाई गई एक रिपोर्ट के अनुसार इस्लामिक जिहादी गुट अपने कारनामों को अंजाम देने के लिए अब इंटरनेट का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। अपनी तथाकथित वेबसाइटों के माध्यम से युवाओं को आकर्षित किया जा रहा है, साथ ही आत्मघाती हमलावरों को 'हीरो' के रूप में दिखाकर, उन्हें 'शहीद' का दर्जा दिया जा रहा है।

इन वेबसाइटों पर नवयुवकों से इस्लाम के रास्ते पर चलने, काफिरों से जिहाद करने तथा उन '19 नायकों' का अनुसरण करने की प्रेरणा दी जाती है, जिन्होंने 9/11 की घटना को अंजाम दिया था। कच्ची उम्र के लड़के जो शिक्षा तथा अन्य बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, आसानी से इस प्रकार के दुष्प्रचार से प्रभावित हो जाते हैं।

इन वेबसाइटों पर शहादत को आदर्श माना जाता है व शहीदों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है कि ये कम उम्र के लड़के बहकावे में आकर आत्मघाती हमलावर बनकर खुद 'शहीद' हो इन तथाकथित जिहादियों का मुख्य हथियार बन गए हैं।

यहाँ तक कि पढ़े-लिखे व अच्छे घरों के बच्चे भी इनके उकसावे में आकर अपनी जान गँवा बैठते हैं। इनकी शहीदी लिस्ट में इंजीनियर व अंग्रेजी स्नातकों से लेकर 13 वर्ष का वह सीरियाई बच्चा भी है, जो 2006 में इराक के फलुजा की लड़ाई में अमेरिकी फौज से लड़ते हुए मारा गया। उसके माँ-बाप को उस वक्त तक यही पता था कि वह किसी कुंग-फू प्रतियोगिता मे भाग लेने जॉर्डन गया है। इसी वेबसाइट पर इराक के 16 वर्षीय हादी बिन मुबारक को 11 अप्रैल 2006 को हुए आत्मघाती हमले का जिम्मेदार बताकर शहीद घोषित किया गया है।

इन वेबसाइट्स के अनुसार दुनियाभर के जिहादियों के लिए इराक और दक्षिण एशिया शहादत के आदर्श स्थल बन गए हैं, जहाँ सीरिया से लेकर लेबनान, सऊदी अरब से मिस्र, मोरक्को, अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान तक के जिहादीयों के नाम शहीदों की सूची में देखे जा सकते हैं। इंटरनेट के माध्यम से इन आतंकी संगठनों ने दुनियाभर में अपने भर्ती केन्द्र खोल रखे हैं व हजारों की तादाद में युवा इनकी ओर खिंचे चले आ रहे हैं।

   कच्ची उम्र के अपरिपक्व लड़कों को कुछ तथाकथित धार्मिक नेता झूठे सब्जबाग दिखाकर बरगलाते हैं। इन्हें बताया जाता है कि अगर कोई शहीद होता है तो उसे जन्नत में हूरों (सुंदर परियों) का साथ मिलता है और वह सब ऐशो-आराम भी, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता      
आखिर क्यों बनते हैं फिदायीन : फिदायीन बनाने वाले आतंकवादी बड़े शातिर दिमाग होते हैं। किसी की कमजोरी का फायदा उठाने में माहिर यह लोग ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकियों को अपना आदर्श मानते हैं। इन फिदायिनों को तैयार करने के लिए तकनीक के साथ-साथ धर्म का भी जमकर इस्तेमाल किया जाता है।

कच्ची उम्र के अपरिपक्व लड़कों को कुछ तथाकथित धार्मिक नेता लगातार झूठे सब्जबाग दिखाकर बरगलाते रहते हैं। इन्हें बताया जाता है कि अगर कोई शहीद होता है तो उसे जन्नत में हूरों (सुंदर परियों) का साथ मिलता है और वह सब ऐशो-आराम भी, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता।

  गरीब देशों या अशांत क्षेत्रों के कम आयु के युवक-युवतियों को फुसलाना आसान होता है। इसके लिए आतंकियों के स्थानीय सम्पर्क बाकायदा भर्ती अभियान चलाते हैं। बेरोजगारी और गरीबी से तंगहाल इन लोगों को मासिक वेतन भी दिया जाता है      
इसके आर्थिक पहलू की बात करें तो गरीब देशों या अशांत क्षेत्रों के कम आयु के युवक-युवतियों को फुसलाना आसान होता है। इसके लिए आतंकियों के स्थानीय सम्पर्क बकायदा भर्ती अभियान चलाते हैं। बेरोजगारी और गरीबी से तंगहाल इन लोगों को मासिक वेतन भी दिया जाता है। साथ ही इन्हें बताया जाता है कि शहीद होने पर इनके परिवार को एकमुश्त पैसा तथा अन्य सुविधाएँ भी दी जाएँगी। आतंकी संगठनों द्वारा भर्ती किए गए कश्मीर के कई आतंकियों ने पकड़े जाने पर कबूला है कि उन्होंने आतंकी बनना सिर्फ गरीबी से बचने और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए मंजूर किया।

आतंकवादी संगठनों द्वारा भर्ती किए गए लोगों को उनकी योग्यता के अनुरूप ट्रेनिंग कैम्प में भेजा जाता है। फिदायीन हमलावर बनने के लिए यह ट्रेनिंग आम आतंकवादियों को दी जाने वाली ट्रेनिंग से बहुत अलग होती है। सबसे पहले इसमें देखा जाता है कि व्यक्ति मानसिक रूप से कितना तैयार है। उसे बार-बार यह दिखाया और सुनाया जाता है कि कैसे उसकी कौम और उसके लोगों पर जुल्म हो रहा है।

उसके दिमाग में यह भर दिया जाता है कि सिर्फ खून के बदले खून से ही हालात सुधर सकते हैं। फौजी तर्ज पर हथियारों और गोला-बारूद की ट्रेनिंग देकर उसे इस लायक बनाया जाता है कि वक्त आने पर वह नियमित सेना के जवानों का भी मुकाबला कर सके। उसे हर तरह के वाहनों को चलाने से लेकर गुरिल्ला और शहरी युद्धकला की तकनीकें सिखाई जाती हैं।

कम से कम नींद, भोजन-पानी के बावजूद अगर फिदायीन लम्बे समय तक पुलिस और सेना का मुकाबला कर पाता है तो सिर्फ इसलिए कि उसके दिमाग में इतना जहर भरा जा चुका होता है कि वह सब कुछ भूलकर सिर्फ कत्लेआम और दहशत फैलाने में कामयाब रहे। इस प्रकार देखा जाए तो फिदायीन तो आतंक का सिर्फ एक हथियार होता है, जिसे चलाने वाले दिमाग और विचारधारा सबसे खतरनाक होते हैं।

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