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आमरण अनशन विरोध का शक्तिशाली हथियार

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नई दिल्ली , सोमवार, 14 दिसंबर 2009 (16:25 IST)
आमरण अनशन लंबे समय से विरोध का एक शक्तिशाली हथियार रहा है, लेकिन ऐसे कुछ मामलों में अनशन करने वालों की मौत भी हो गई है। यह आमरण अनशन की ताकत का ही कमाल है कि अलग तेलंगाना के मुद्दे पर टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव ने केंद्र को झुकने को मजबूर कर दिया।

इतिहास में ऐसे कई नेता हुए हैं, जिन्होंने अपनी माँगें मनवाने के लिए अनशन रूपी अस्त्र का प्रयोग किया, जिनमें सर्वाधिक जाना-पहचाना नाम महात्मा गाँधी का है। हालाँकि अनशन के दौरान मरने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है।

स्वतंत्रता सेनानी जतिन दास का आमरण अनशन तो पूरे दो महीने तक चला था। इस महान क्रांतिकारी ने भारतीय और ब्रिटिश राजनीतिक कैदियों के लिए समान अधिकारों की माँग को लेकर लाहौर सेंट्रल जेल में 13 जुलाई 1929 को अनशन शुरू किया था। इस क्रम में 13 सितंबर 1929 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत से अंग्रजों के खिलाफ देश में एक नई ज्वाला भड़क उठी थी।

स्वतंत्रता के बाद पोट्टी श्रीरामुलू ऐसे पहले राजनेता थे, जिनकी भूख हड़ताल से मौत हो गई। अलग आंध्रप्रदेश की मांग को लेकर उन्होंने मद्रास में 19 अक्टूबर 1952 को अपना आमरण अनशन शुरू किया था। इसके 52 दिन बाद 15 दिसंबर 1952 को उनकी मौत हो गई। उनकी इस मौत से हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए और अंतत: सरकार को पृथक आंध्रप्रदेश की स्थापना करना पड़ी।

स्वतंत्रता के बाद दर्शनसिंह फेरुमन भी एक ऐसी हस्ती थे, जो भूख हड़ताल के चलते मौत के शिकार हो गए। उनका आमरण अनशन 74 दिन तक चला था। सिख नेता ने चंडीगढ़ को पंजाब में मिलाने व अन्य माँगों के साथ 15 अगस्त 1969 को आमरण अनशन शुरू किया था।

आखिरकार 27 अक्टूबर को उनका निधन हो गया। महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में कम से कम 17 बार अनशन किया। 1932 में उनकी भूख हड़ताल का नतीजा ‘पूना पैक्ट’ के रूप में निकला, जिसके तहत दलित नेताओं ने ब्रिटिश शासन के तहत अलग प्रतिनिधित्व की माँग छोड़ दी।

सन 1943 में वायसराय और भारतीय नेताओं के बीच चर्चाओं पर गतिरोध को खत्म करने की माँग के साथ उन्होंने आगा खान पैलेस में 21 दिन की भूख हड़ताल की। स्वतंत्रता संग्राम में यह एक निर्णायक मोड़ था। राष्ट्रपिता ने अंतिम अनशन हिंसा रोकने की माँग के साथ 1948 में किया। उनका यह उपवास पाँच दिन तक चला।

स्वतंत्रता सेनानी भगतसिंह ने अपने साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ 1929 में लाहौर सेंट्रल जेल में 63 दिन तक भूख हड़ताल की। भूख हड़ताल करने वाली अन्य जानी-पहचानी हस्तियों में सुंदरलाल बहुगुणा का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने टिहरी बाँध परियोजना के विरोध में 1995 में 45 दिन का अनशन किया।

उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री दिवंगत पीवी नरसिंह राव के इस आश्वासन के बाद भूख हड़ताल समाप्त की कि बाँध के पारिस्थितिकीय प्रभावों को जानने के लिए एक समीक्षा समिति बनाई जाएगी।

दो साल बाद बहुगणा ने फिर से अनशन का सहारा लिया। वे गाँधी समाधि राजघाट पर 74 दिन तक अनशन करते रहे। उनकी यह भूख हड़ताल तब टूटी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगोड़ा ने यह आश्वासन दिया कि परियोजना की समीक्षा की जाएगी।

साल 2006 में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में जबरन भूमि अधिग्रहण के विरोध में अनशन के हथियार को आजमाया।

उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की अपील के बाद 28 दिसंबर 2006 को अपनी 25 दिन पुरानी भूख हड़ताल खत्म की। उनकी इस हड़ताल से राज्य का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया और सत्तारूढ़ वाम मोर्चा हाशिए पर दिखा।

इस साल अप्रैल में द्रमुक प्रमुख तथा तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि इस माँग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गए कि भारत सरकार लिट्टे के खिलाफ संघर्ष विराम के लिए भारत सरकार श्रीलंका पर दबाव बनाए। (भाषा)

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