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एक कर्मठ योद्धा को नमन...

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हमें फॉलो करें अर्जुनसिंह
अभय छजलानी

कहना और सुनना कई के लिए भले ही आसान हो जाए, किंतु सहसा किसी दुःखद संयोग से साक्षात होना कितना पीड़ादायी होता है...यह तो जिस पर बीती हो, वही जान सकता है। शुक्रवार की शाम अचानक मेरी भावनाओं को ऐसे दृश्य से सामना करने के लिए लाचार करेगी, इसकी कल्पना मात्र से ही आँखें नम हो जाती हैं।

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अस्पताल की आठवीं मंजिल के लंबे गलियारे से होकर उनका कुशलक्षेम जानने की इच्छा से पहला कदम गलियारे के मोड़ पर रखा। अचानक लगा साँस थम गई है, पाँव जहाँ के वहाँ रुक गए हैं, आवाज में स्वर गड़बड़ा रहे हैं। सदमे का ऐसा प्रहार होता भी क्यों नहीं। जिनकी तबीयत पूछने आए थे, पता चला वे किसी दूसरे 'लोक' की यात्रा पर चले गए हैं, कुछ ही मिनट पहले।

हमें अचानक वहाँ देख रूँआसा चेहरा लिए उनके पुत्र राहुल ने पूछा आप यहाँ... कैसे... हम बस इतना ही कह पाए - आज शाम को तबीयत का हाल जानने, मैं और मेरे साथी सुरेश बाफना ने अस्पताल आने का विचार किया था। उन्होंने सुना और कुछ क्षण एकटक सा हमें देखते रहे...।

धीरे-धीरे आघात की परतें उजागर हुईं। समय के सन्नाटे में चिकित्सकों व कर्मचारियों की हलचल से कुछ ही मिनटों में जानकारी की परतें पसर गईं। सब कुछ स्पष्ट हो गया- भारत की राजनीति का एक विद्वान, साहसी, कर्म और अपने उद्देश्यों को कटिबद्धता के साथ साधने की कोशिशें करने वाला कांग्रेसी दल के योद्धा अर्जुनसिंहजी ने अपनी उम्र यात्रा को पूरी कर पैर से सर तक सफेद चादर ओढ़ ली है।

कुछ मिनट में उस योद्धा के अंतिम साँस लेने की सारी कहानी सिमट गई। समय के उन क्षणों में हम बाहर से वहाँ पहुँचने वाले पहले लोगों में रहे, वे सब कुछ जानकर, देखकर स्वयं को ठगा हुआ-सा महसूस कर,अपना दुःख और पीड़ा लिए खड़े रहे... और उलटे पाँव लौट आए।

पूरे रास्तेभर कई भूली-बिसरी यादें सूने मन पर बिखरने लगीं। याद आए वर्ष 1957 के वे दिन, जब मैं मध्यप्रदेश की विधानसभा की बैठकों की रिपोर्टिंग करता था। सबसे पहले मैंने उन्हें उस विधानसभा के सदस्य के रूप में देखा। वे स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित हुए थे। बाद में वे अगले चुनाव के समय कांग्रेस में आ गए। 1957 से 1985 तक वे लगातार विधानसभा सदस्य रहे।

अर्जुनसिंहजी से मिलने-जुलने और बातचीत करने का मेरा संबंध करीब तीस-पैंतीस वर्ष का रहा। मिलते-जुलते चर्चा करने का विश्वसनीय खुलापन, वैचारिक भिन्नताओं में भी अपनत्व की प्रगाढ़ता, सुख-दुःख की चर्चाएँ आदि के अनेक मौके और अवसर आए।

विशेषता यह थी, उनकी, कि सत्ता की शक्ति मुट्ठी में होने के बाद भी कभी भी न तो ऐसा महसूस हुआ और न कभी ऐसी घटना घटी कि उन्होंने नाखुश होकर कभी शासकीय शक्ति से धमकाने का अहसास कराया हो। बल्कि मौके-बे-मौके अगर किसी सहयोग की आकांक्षा मैंने की तो अक्सर सकारात्मक और उत्साहजनक उत्तर उनकी विशेषता थी।

इस मौके पर जब उनके साथ व्यतीत किए मौकों को याद करता हूँ तो लिखने को बहुत बातें कलम से उछलने को उतावली हो जाती हैं। सब कुछ को एक किनारे कर कुछ विशेष उल्लेखनीय वास्तविकताओं को, जो दीर्घकालीन याद के रूप में, इंदौर में मौजूद हैं, उनके सद्कर्मों की लड़ी बन जाती हैं।

1956 में मध्यप्रदेश के निर्माण के बाद से अब तक मप्र में 29 मुख्यमंत्रियों ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसमें कुछ ने एक बार, कुछ ने दो बार और कुछ ने तीन बार मुख्यमंत्री का पद संभाला। अर्जुनसिंहजी ने कुल मिलाकर करीब 6 साल मुख्यमंत्री का पद संभाला। इन 6 वर्षों में और केंद्रीय शासन में मंत्री रहने के कुछ वर्षों में उन्होंने इंदौर के विकास के लिए जो संस्थाएँ स्थापित कीं, गिनती और महत्ता में उतनी संस्थाएँ इंदौर में स्थापित करने का दावा कोई अन्य मुख्यमंत्री नहीं कर सकता।

याद कीजिए- (1) पीथमपुर औद्योगिक संस्थान (कहने को वह धार जिले में है, पर उसका भार और लाभ तो इंदौर को ही मिल रहा है।) (2) उच्च शोध और तकनीकी वैज्ञानिक संस्थान- 'केट', (3) आईआईएम, (4) आईआईटी, (5) लता मंगेशकर की इंदौर यात्रा को स्मृति के रूप में हमेशा जीवंत रखने के लिए सुगम संगीत का वार्षिक लता मंगेशकर अलंकरण 1 लाख रुपए का, (6) लालबाग के महल में जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में सांस्कृतिक केंद्र बनाने की घोषणा। (शहर के दुर्भाग्य से वर्तमान में उस मैदान को प्रदर्शनी और मीना बाजार का मैदान बना दिया गया है।)

कितना कहूँ और कहाँ रुकूँ, समय भी हाथ रोक रहा है और ज्यों-ज्यों याद में कुछ नया जुड़ता है, मन भारी होता जाता है। अपना आदर और श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए उन्हें अपना 'नमन' अर्पित करता हूँ।

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