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सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा

कंडोम प्रमोशन कार्यक्रम

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प्रभु जोशी

हम यदि गौर से देखें तो पिछले पाँच सौ साल के कालखंड में भारतीयों के बीच शायद ही किसी शब्द को इतना अधिक गौरवान्वित किए जाने का इतिहास बरामद हो सकेगा, जितना कि इस हमारे मौजूदा समय में 'भूमंडलीकरण' शब्द को किया जा रहा है।

आज, आप जीवन के न केवल सामाजिक-आर्थिक बल्कि यों कहें कि किसी भी क्षेत्र में जाएँ, वहाँ 'मूल्यों' और मान्यताओं के ध्वंस के बाद उठती चीख को चुप्पी में बदलने के लिए निर्विवाद रूप से सिर्फ एक ही शब्द, लगभग अमोघ अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है- और, वह है : 'भूमंडलीकरण'।

निःसंदेह यह शब्द ही नहीं, अलबत्ता कहा जाए कि एक किस्म का मारक मुँहतोड़ मुहावरा है, जो आपकी तमाम आपत्तियों को छीन लेता है। सामने वाले को तुरंत कह दिया जाता है, 'भैया, यह तो भूमंडलीकरण है। ऐसा तो होगा ही। लो, कर लो, क्या करते हो।'

अभी-अभी की बात है कि हमारे यहाँ पिता और पुत्र के बीच की असहमतियाँ, फिर चाहे वे उम्र और अहं की ही क्यों न हों- 'पीढ़ियों का द्वंद्व' कहलाती थीं। लेकिन, अब बाप के सामने बेटे द्वारा की गई बदसलूकी और बदअखलाकी भूमंडलीकरण की शिरोधार्यविवशता है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'भूमंडलीकृत मीडिया' ने भारतीय समाज में एक नया बाप गढ़ना शुरू कर दिया है। शुद्ध-सिंथेटिक बाप, जिसके व्यवहार की व्याख्या पिता की सर्वस्वीकृत छवि को ही संदिग्ध बनाती है।

मसलन, घर से निकलते वक्त जवान बेटा, जब जेब में पेन, चश्मा और मोबाइल रखता है, तो मीडिया का यह 'मैन्यूफैक्चर्ड-बाप' दौड़कर उसकी जेब में कंडोम रख देता है और अपनी इस अचूक तत्परता पर आत्ममुग्ध होकर 'क्लोज-शॉट' में मुस्कुराता है।

जी हाँ, यह बात मेरे दिमाग में जन्मी कोई स्वैर-कल्पना या फैंटेसी नहीं है, बल्कि यह दृश्य एक तल्ख हकीकत है, जिसे आप और हम छोटे पर्दे पर कंडोम-प्रमोशन के पवित्र संकल्प से भरे विज्ञापनों में लगभग रोज ही देखते हैं। मीडिया का यह दैनंदिन बाप है, क्योंकि भूमंडलीकरण की सूक्ष्म आँख ने देख लिया है कि अब स्त्री का कोई भरोसा नहीं रह गया है और वह कहीं भी, कभी भी ब्रह्मचर्य बिगाड़ सकती है। इसमें पुरुष में बदचलनी देखना मूर्खता है। नतीजतन, बापों की बिरादरी को सावधान और चिंतित किया जा रहा है कि आप अपने तमाम भुलक्कड़ बेटों के लिए कंडोम के प्रबंध में मुस्तैद रहें।

अफसोस तो यह कि इस स्तर पर फिलवक्त केवल बाप भर चिंतित हैं। माँएँ नहीं। वे शिथिल और नितांत असावधान हैं, क्योंकि उनमें अभी भी ढिठाई है और वे तथाकथित अपनी सांस्कृतिक शर्म से पिंड छुड़ाने में कामयाबी हासिल नहीं कर पा रही हैं। यही वह मुख्य वजह है कि वे अपनीभोली-भाली बेटियों के पर्स में 'सुरक्षा का यह हथियार' रखने से झिझकी हुई हैं।

लेकिन धीरज रखिए ऐसे चिंताग्रस्त-मातृत्व के अभाव की क्षतिपूर्ति के लिए शीघ्र ही शिक्षण-संस्थाएँ आगे आने वाली हैं। वे अपने परिसरों में माँ द्वारा अपनी लाड़लियों के प्रति छोड़ दिए गए जरूरी दायित्व को, संस्थागत-जिम्मेदारी की तरह ग्रहण करते हुए, कंडोम की आसान उपलब्धता के लिए वेंडिंग मशीन लगाएँगी, ताकि कुलशील दुकानों से कंडोम क्रय किए जाने की स्त्रियोचित शर्म या 'एम्ब्रेसमेण्ट' से बच सकें। वे लगे हाथ सिक्का डालकर बचा लेंगी सांस्कृतिक झिझक। यही है असली भूमंडलीकरण। साँप को मारा जा सके और लाठी के न टूटने का भ्रम जीवित बचा रहे।

कहने की जरूरत नहीं कि तीसरी दुनिया के देशों में भूमंडलीकरण का सबसे पहले फूँके जाने वाला शंख यही है। वे कहते हैं कि अब हम किसी देश को गुलाम बनाने के लिए युद्धपोतों के साथ नहीं, केवल कंडोम के साथ दाखिल होते हैं और हमारी विजय का डंका उस मुल्क लोग खुद अपने हाथों से बजा देते हैं। अब अस्त्रों और उनकी किस्में बदल गई हैं।

अब तमाम निपटारे संस्कृति के कुरुक्षेत्र में ही कर दिए जाते हैं इसलिए अब सत्ता का संकट हो या फिर आर्थिक संकट, इन्हें सांस्कृतिक संकट में बदल दिया जाता है। यह संकटों का कायान्तरण है। ठीक इसी क्षण में उन्हें बताया जाता है कि सांस्कृतिक संकटों के समाधान समाजशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से किए जाने चाहिए।

बहरहाल, वैज्ञानिक बघनखे तैयार किए जाते हैं- और, 'एड्स का भय' इस शताब्दी का सबसे पुख्ता बघनखा है, जिस पर वैज्ञानिकता की धार और चमक चढ़ा दी गई है।

आप थोड़ा ध्यान देकर देखें तो पाएँगे कि हम सबको 'एड्स' एक महारोग की तरह अपनी प्रचार-पुस्तिकाओं में जितना खतरनाक जान पड़ता है, जबकि 'मनाए जाने' में वह दोगुना उत्साह और आनंद देता है। यही वजह है कि अपनी आजादी के साठ साल का जश्न मनाने वाले महादेश में '15 अगस्त' या '26 जनवरी' से बड़ा उत्सव (मेगा-फेस्टिवल) अब एड्स दिवस हो गया है।

इसके 'स्वागत गान' बाकायदा 'बीट्स' के साथ तैयार होकर कोरस में गाते हुए आयोजक एनजीओ राष्ट्रीय एकता का मिथ्या भ्रम प्रकट कर रहे हैं। वे नए समाजवादी समाज का प्रारूप गढ़ते हुए कह रहे हैं कि एड्स के सामने अमीर-गरीब सब एक हैं। कंडोम-वितरण बनाम कंडोम-प्रमोशन कार्यक्रम सुनहरी पताकाओं और बैनरों पर लहराता हुआ आयोजित होता है।

इस प्रसंग को एक विशेष अभिप्राय के साथ देखें कि जब बिल गेट्स भारत आते हैं तो वे 'सूचना क्रांति' के संदेश से ज्यादा, 'कंडोम क्रांति' के प्रतीक बन जाते हैं। उनके स्वागत में बंगलोर में आठ-आठ फुट ऊँचे कंडोम के द्वार बनाए जाते हैं। यही सेक्स को पारदर्शी बनाने की सार्वजनिक पहल है, जिसमें शामिल है सांस्कृतिक संकोच का सामूहिक ध्वंस। बावजूद इसके चौतरफा चुप्पी।

दरअसल, यह बाजारवाद की भारत में मनने वाली नई और आयातित दिवाली है, जिसमें हम सबको मिलजुलकर अपनी संस्कृति और परंपरा के पैंदे में बारूद भरकर उसकी किरच-किरच उड़ानी है। वजह यह कि उनके लिए सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि सेक्स अभी भी भारत में आचरण की सांस्कृतिक संहिता बना हुआ है, 'फिजीकल-एक्ट' नहीं हो पाया है।

कण्डोम, ऐसे धूर्त सांस्कृतिक छद्म को वैज्ञानिक-आवरण देता है, जो सामूहिक और खामोश सहमति का आधार बनाता है। इसी के चलते साम्राज्यवादी विचार की जूठन पर पल रहे लोगों की एक पूरी रेवड़ 'सेक्समुक्ति' को दूसरी आजादी की तरह बता रही है, जिसमें 'कण्डोम', 'वंदेमातरम्‌' के समान पूरे देश में एक जनव्यापी उत्तेजना पैदा करेगा।

बहरहाल, विचारहीन विचार के श्री चट्टे और श्री बट्टे, मुन्नाभाई की तर्ज पर लगे हुए हैं- कण्डोम-क्रांति में। क्योंकि, किसी भी देश में जितने लोग, इस बहुप्रचारित महारोग से मरते हैं, उससे चौगुनी संस्थाएँ और लोग इस पर पल रहे हैं।

कई संस्थानों की तो अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा घटक ही एड्स है। उन लोगों और संस्थाओं का इसी से पेट पल रहा है। क्या करें, पापी पेट का सवाल है, इसलिए, 'विचार और तकनीक' मिलकर, भूख को बदलने में भिड़ गए हैं।

विडम्बना यह कि भूख को बदलने के धतकरम में 'सत्ता का सक्रिय साहचर्य' शुरू हो गया है। वह यौनक्षुधा के लिए अब पाँच रुपए के 'पैकेट में ही पिंजारवाड़ी/जी.बी. रोड, सोनाकाछी या कमाठीपुरा' उपलब्ध करा रही है। देश को ब्रेड बनाने के कारखाने की अब उतनी जरूरत नहीं रह गई है, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया ने जनता की भूख की किस्म बदल दी है।

नतीजतन, इस महाद्वीप की गरीब जनता को रोटी से ज्यादा कण्डोम की जरूरत है। यह एक नया आनंद-बाजार है, जिसमें देश की आबादी नई और बदल दी गई भूख के बंदोबस्त में जुटी हुई हैं।

कहना न होगा कि अब समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र कौ मिलाकर एक ऐसी कुंजी तैयार की जा रही है, जिससे वे इस बूढ़े और बंद समाज के सांस्कृतिक-तलघर का ताला खोल सकें, यौनिकर्ता (सेक्चुअल्टी) का आलम्बन बनाकर चौतरफा बढ़ने वाले बाजार को, उसे अधिगृहीत करने में आसातियाँ हो जाएँ। उनकी मार तमाम कोशिशें जारी हैं और वे सफल भी हो रही हैं कि घर के शयनकक्षों में सोया वर्जनायुक्त एकांत, बाजार के अनेकांत में बदल जाए।

इसी के चलते विपणन की विज्ञापन बुद्धि यौनिकता को बाजार से नाथकर पूँजी का एक अबाध प्रवाह बनाती है, जिसमें युवा पीढ़ी की अधीरता का भरपूर दोहन किया जाता है। यही वजह है कि बाजार और सेक्स को परस्पर घुला-मिलाकर एकमेक किया जा रहा है। ठीक ऐसे क्षण में एड्स नामक महारोग ईज़ाद हो गया। इसने 'बाजार' और 'सेक्स' को एक-दूसरे का अविभाज्य अंग बना दिया।

बहरहाल, मुक्त-व्यापार और 'मुक्त-सेक्स एक-दूसरे के पूरक हैं। वे एक दूजे के लिए हैं। 'बाजार का सेक्स' और 'सेक्स का बाजार'। बाजार का डर और डर का बाजार- ये सिर्फ रोचक पदावलियाँ नहीं हैं, बल्कि गरेबान पकड़कर दुरुस्त कर देने वाली सचाइयाँ हैं। आज 'बाजार' से सरकारें डरती हैं।

साल के तीन सौ पैंसठ दिन समाज और समय की खाल खींचने वाला मीडिया डरता है। मीडिया अपनी निर्भीकता में संसद की बखिया उधेड़ सकता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के खिलाफ बोल सकता है। यहाँ तक कि वह दाऊद के खिलाफ भी खड़ा हो जाता है, लेकिन एड्स के खिलाफ बोलने में उसके प्राण काँपते हैं, क्योंकि एड्स के बहाने जो मुखर यौनिकता आ रही है, वह 'बाजार' की भी प्राणशक्ति है और स्वयं मीडिया की भी।

फैशन, फिल्म, खानपान, वस्त्र-व्यवसाय और सौंदर्य-प्रसाधन सामग्री- ये सभी मिलकर जो बाज़ार खड़ा करते हैं, उस सबके केंद्र में यौनिकता है। सेक्सुअल्टी इज द लिंचपिन ऑफ आल दीज ट्रेड्स। क्योंकि, यौनिकता की वर्जनाओं को तोड़ती हैं।

दरअसल, वर्जनाओं के रहते समाज का जो ढाँचा बनता है, उसमें बाजार की घुसपैठ एक सीमारेखा तक ही हो पाती है जबकि वर्जनाएँ, लक्ष्मण रेखाएँ खींचती हैं। यौन वर्जनाओं ने ही परम्परागत भारतीय समाज का एक सुगठित प्रारूप बनाया है। इसलिए, लक्ष्मण रेखाएँ सीमाओं का वैध और सर्वमान्य प्रतिमान बनती रही हैं। लेकिन, अब भूमंडलीकृत बाजार कहता है- 'लक्ष्मण', रेखाओं को खींचने के लिए अधिकृत नहीं है।

सीमाएँ क्या हों? कहाँ तक हों? और कौन-सी हों? यह सब अब केवल सीता का आउटलुक है। और आज की सीता अपनी ज़रूरतों से ऊपर उठकर आकांक्षा के नीचे रहना नहीं चाहती। उसे वह सब चाहिए जो महानगरीय उच्च-मध्य वर्ग की जीवनशैली जीने के लिए जरूरी है।

यह स्त्री-विमर्श की भूमंडलीकृत संहिता है, जो वनवासी राम की भटकन के बजाय सत्ता की सुनिश्चितता को चुनने के लिए कृत संकल्प है। बाज़ारदृष्टि उसे बार-बार बता रही है कि उसके लिए अब रावण धोखा नहीं एक संभावना है। एक विकल्प है। इसलिए उसे लक्ष्मण रेखाओं को एक सिरे से लांघ जाना चाहिए।

बहरहाल, यह आधुनिक नहीं, उत्तर आधुनिक तर्क है, जबकि यथार्थ में न तो यह उत्तर आधुनिक स्थिति है और ना ही आधुनिक- बल्कि मात्र 'विपरम्पराकरण' है। पश्चिम में आधुनिकता पूँजी के अपार आधिक्य से पैदा हुई थी तो हमारे यहाँ आधुनिक पूँजी के अपार अभाव में कैसे पैदा की जा सकेगी? इसलिए हम आधुनिक नहीं, सिर्फ परम्पराच्युत हुए हैं। मात्र डि-ट्रेडिशनलाइज्ड।

वास्तव में हमारे समाज और समय को सम्पट ही नहीं बैठ रही है कि वह क्या करे? वह गुड़ी-पड़वाँ मनाता हुआ कण्डोम बेचने निकल आया है। उसके जिस हाथ में राखी बँधी है, उसी हाथ से वह कण्डोम वितरण का काम भी निपटा रहा है। वह जनेऊ चढ़ाकर 'यूरिन कल्चर' का सेम्पल दे रहा है।

अतः इसी सम्पट न बैठ पाने के अभाव में समूचा भारतीय समाज एक खास किस्म के 'सांस्कृतिक-अवसाद' में डूबा हुआ है। मीडिया और माफिया के रक्त संबंध ने उसे सांस्कृतिक-अनाथ बनाकर छोड़ दिया- और बाजार जानता है कि समाज को विखण्डित करने के लिए हमेशा से ही यही 'अवसादकाल' एक वाजिब वक्त रहा है।

इसी सर्वथा उपयुक्त समय में परम्परागत भारतीय समाज को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े किया जा सकता है। यही विखण्डन की अकाट्य सैद्धांतिकी है और 'यौनिकता' विखण्डन का सबसे बड़ा और कारगर हथियार है। बहरहाल, यौनिकता की आक्रामकता के लिए मार्ग को प्रशस्तीकरण का काम करता है- एड्स के बहान सर्वव्यापी बनने वाला सर्व-सुलभ कण्डोम। इसलिए 'एड्स' जैसी विश्वव्यापी महामिथक के उपचार पर पूँजी खर्च करने के बजाय, कण्डोम-प्रमोशन को एकमात्र अभीष्ट बना दिया जाए।

आपने देखा होगा कि 'एड्स' का उपचार के सवाल और समस्या को तो हाशिए पर कर दिया गया है, जबकि कण्डोम की प्रतिष्ठा केंद्रीय बना दी गई है। इस कर्मकाण्ड में सरकारी और गैर सरकारी संगठन दोनों ही प्राणपण से लगे हुए हैं। कारण कि नैकों से लेकर पैकाड, मैक-आर्थर और फोर्ड फाउंडेशन जैसी पूँजी का अबाध प्रवाह पैदा करने वाली संस्थाएँ थैलियाँ लेकर कतार में डटी हुई हैं।

उनसे पूँजी हथियाकर तमाम गैर सरकारी संगठन, एड्स के विराट भय की व्याख्या करते हुए यौनशिक्षा (सेक्स एजुकेशन) की अनिवार्यता के लिए भूमि-समतल करने का काम करते हैं। क्योंकि, सेक्स-एजुकेशन का पाठ्यक्रम किशोर-किशोरियों को ज्ञानग्रस्त करने वाला है कि हस्तमैथुन, समलैंगिकता मुख तथा गुदा-मैथुन अप्राकृतिक नहीं है।

केवल भारतीय पीनलकोड ने उपर्युक्त सभी सेक्स-क्रियाओं को अप्राकृतिक बताकर पूरे भारतीय समाज और देश में सेक्स के कारोबार में पिछड़ा बना रखा है। वारसायन के देश में जन्म लेकर भी हमें यौन वर्जनाओं के कारण घोर बदनामी झेलना पड़ रही है।

देखिए, हमारे यहाँ तो सूर्य पुत्री यमी ने अपने भाई यम को अपना 'सेक्समेट' बनाने के लिए प्रस्ताव किया था, देखिए, ऐसी मिथकीय परम्परा वाला समाज हमारी विश्व में कैसी थू-थू करवा रहा है। हालाँकि आगे के प्रसंग को इरादतन उल्लेख से बाहर रख दिया जाता है, जिसमें यम रक्त संबंधी से शारीरिक संसर्ग (इनसेस्ट) को नीति विरुद्ध बताता है।

इसी जग जाहिर की बौद्धिक चिंता करते हुए देश को बचाने के लिए कुछ प्रथम श्रेणी के बुद्धिजीवियों के रेवड़ ने भारत सरकार से लिखित में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था कि समलैंगिकों को भारत में सम्मानजनक दर्जा कब और कैसे मिलेगा? उन्हें इस विकट समस्या ने संगठित होने में विलंब नहीं करने दिया।

लेकिन, भूख, गरीबी, साम्रपदायिकता, समान वितरण प्रणाली, समान शालेय शिक्षा जैसे इससे बड़े और कहीं अधिक विकराल प्रश्नों पर अभी तक एकत्र नहीं होने दिया है। वे लैंगिक-अल्प संख्यकों (सेक्सुअल मॉइनॉर्टी) के हित में अविलम्ब कूद पड़े। यहाँ तक कि संभोग रहित सेक्स की लत विकसित करने के लिए 'सेक्स टॉय' के लिए वे उपयुक्त जगह बनाना चाहते हैं, इसमें हमारे कल्याणकारी राज्य की भूमिका साझेदारी की है। यों भी सरकार भाषा को भूगोल से भूगोल को भूख से और भूख को भूख बदलने के खेल में काफी दक्षता हासिल किए हुए है।

दोस्तों, यह राज्य द्वारा परिवार के सुनियोजित विखण्डन की प्रायोजित मुहिम है, जिसके बाद 'स्वयंसेवा' के जरिए से सेक्स की परनिर्भरता से मुक्ति तो मिलेगी ही साथ ही साथ अमेरिकन सिंगल्स की तर्ज पर लोग बिना सहवास किए इच्छित यौनरंजन हासिल कर सकेंगे।

उनका वैज्ञानिक तर्क यह भी है कि इससे भारत में बढ़ती आबादी पर रोक लगाने में कारगर कामयाबी मिल सकेगी। उन्हें छातीकूट अफसोस इस बात पर भी है कि भारत में माता-पिताओं के साथ लड़कियाँ भी मूर्ख हैं, जो शादी करके गृहस्थी बसाने का सपना देखने से बाज नहीं आ रही हैं। ऐसा चलता रहा तो उन्हें यहाँ सेक्स-टॉय के धंधे में बरकत बनाना मुश्किल होगी।

दूसरे शब्दों में कहें कि यह विकसित राष्ट्रों के समाजों की मेट्रो सेक्सुअल्टी है, जिसे देसी-आदत का रूप देना है। जी हाँ, मूलतः कार्पोरेटी इथिक्स का प्रतिमानीकरण करना है, जो 'सामुदायिक-नैतिक ध्वंस' में ही अपना अस्तित्व बनाता है।

हिन्दी में महानगरीय बुद्धिजीवियों की ऊँची नस्ल में सेक्समुक्ति की प्रफुल्लता बरामद हो रही है- वह स्त्री स्वातंत्र्य की बाजार-निर्मित अवधारणा है, जिसे ये माथे पर उठाए ठुमका लगा रहे हैं। देहमुक्ति में स्त्रीमुक्ति का मुगालता बाँटने वाले ये मुगालता प्रसाद हकीकत में ये उन्हीं आकाओं की ऑफिशियल आवाज है, जिसको वे लम्पटई की सैद्धांतिकी के शिल्प में...।

ये उसी वैचारिक जूठन की जुगाली कर रहे हैं। ये नए ज्ञानग्रस्त रोगी है, जिनका अब कोई उपचार नहीं है। उन्हें अनट्रीटेड ही रहना पड़ेगा। खुद को आवश्यकता से अधिक प्रतिभाग्रस्त मानने के मर्ज के पीछे प्रायोजित प्रदूषण है। इसीलिए टेलीविजन चैनलों में स्टूडियो की नकली रोशनी में रंगे हुए होठों वाली लड़कियाँ दाँत निपोरते हुए किशोर-किशोरियों से पूछती हैं- आप सेक्स शिक्षा के पक्ष में है कि नहीं? आपने विवाह पूर्व 'सेक्समेट' बनाने में आपको कोई हिचक तो नहीं? फिर 'काम' तो दैहिक चरितार्थ है।

कुल मिलाकर, बहुत जल्दी सर्वेक्षण आने वाला है, जो बताएगा कि हमारे यहाँ टीन एज़ प्रेगनेंसी का ग्राफ अब की तरह काफी ऊँचा उठ गया है। सेन्सेक्स और सेक्स दोनों की दर की ऊँचाई प्रगति का प्रतिमान बनाने वाली है। क्योंकि भारत में कण्डोम क्रांति की सफलता के लिए यह जरूरी है। इस क्रांति में मीडिया, फिल्म, मनोरंजन व्यवसाय, खानपान, वस्त्र व्यवसाय आदि शीतयुद्ध के दौर में समाजवादी समाज की अवधारणा को नष्ट करने के लिए एक शब्द चलाया गया था- लाइफ स्टाइल।

जी हाँ, वह शब्द अब अखबारों के परिशिष्ट में बदल गया है। महेश भट्टीय शैली की फिल्में धड़ल्ले से इसीलिए कारोबार कर रही है, क्योंकि अब फिल्म के दृश्य में आँखें नहीं, कच्छे गीले होने चाहिए। आखिर अंग्रेजी में इसे ही तो कहते हैं, बड़ी आँत से ब्रेन का काम लेना।

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