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संगीतकारों-साहित्यकारों के बीच छिड़ी बहस

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नई दिल्ली (वार्ता) , शनिवार, 8 नवंबर 2008 (21:01 IST)
कलाओं के आपसी संबंधों को लेकर राजधानी में चल रही दो दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी में गायकों, संगीतकारों और साहित्यकारों के बीच एक नई बहस छिड़ गई है।

ललित कला अकादमी केन्द्रीय हिन्दी संस्थान साहित्य अकादमी तथा एशियन फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान द्वारा आयोजित संगोष्ठी में साहित्यकारों का कहना था कि देश के शास्त्रीय गायकों तथा संगीतकारों का संबंध खड़ी बोली के सहित्य से नहीं है और वे अपनी परम्परा से इतने बँधे हैं कि वे अपना आधुनिक विकास नहीं कर पा रहे हैं, जबकि गायकों, संगीतकारों का कहना था कि खड़ी बोली के साहित्य में वह माधुर्य और लोच नहीं है, जो ब्रज भाषा और अवधी में है यही कारण है कि आज भी गायक ब्रज और अवधी भाषा में लिखी गई बंदिशों का इस्तेमाल करते हैं।

वयोवृद्ध संगीतकार एलके पंडित ने कहा कि ब्रज भाषा और अवधी में मधुरता है उसमें रस है और उसमें लिखे गए पद भी काफी छोटे हैं तथा उनमें संगीत का तत्व है इस लिए आज भी गायक इन्हीं भाषाओं की बंदिशें गाते हैं।

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि विष्‍णु खरे का कहना था कि भारत के शास्त्रीय गायक आधुनिक हिन्दी साहित्य से बिलकुल कटे हैं और उन्हें खड़ी बोली के साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। वे परम्परा से इतने बँधे हैं कि आगे नहीं बढ़ रहे हैं, जबकि पश्चिमी देशों के संगीतकार आधुनिक साहित्य में रचे बसे हैं और उन्होंने उसे संगीत में उतारा है।

खरे ने यह स्वीकार किया कि हिन्दी के लेखक भी संगीत की दुनिया से कटे हैं। प्रसिद्ध संस्कृति कर्मी अशोक वाजपेयी का कहना था कि जिस तरह से रवीन्द्र संगीत बना उस तरह से हिन्दी में निराला संगीत नहीं बना और हिन्दी की रचनाओं का संगीत तथा गायन में इस्तेमाल नहीं हुआ।

हिन्दी के लेखकों के उस कथन का प्रतिवाद पद्मश्री से सम्मानित मशहूर शस्त्रीय गायिका एवं बेगम अख्तरी की शिष्या रीता गांगुली ने किया। प्रसिद्ध संगीत विशेषज्ञ मुकंद लाठ और जाने माने चित्रकार कृष्ण खन्ना ने खरे की बातों का प्रतिवाद करने की कोशिश की।

अंत में संगोष्ठी में यह तय हुआ कि इस विषय पर विस्तारपूर्वक बातचीत होनी चाहिए तथा कलाकारों, लेखकों और चित्रकारों के बीच आपसी संवाद बढ़ना चाहिए। संगोष्ठी में यह भी आम राय उभरी कि संगीत नाटक अकादमी ललित कला अकादमी तथा साहित्य अकादमी को आपस में तालमेल बढ़ाकर इस संवाद को दिशा देनी चाहिए।

संगोष्ठी में सर्वश्री कुँवर नारायण, मधुप मुद्गल, मुकेश गर्ग, राजेन्द्र नाथ, शन्नो खुराना, के. विक्रमसिंह, लीला वेंकटरामन, गंगाप्रसाद विमल, कीर्ति जैन और असगर वजाहत जैसे अनेक जाने माने लेखक रंगकर्मी शास्त्रीय गायक तथा चित्रकारों ने भाग लिया।

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