5 reasons for Congress defeat in Madhya Pradesh: मध्य प्रदेश में पहली बार ऐसा मौका है, जब कांग्रेस सभी 29 सीटों पर लोकसभा चुनाव हार गई। इससे पहले यह करिश्मा 1984 में कांग्रेस ने किया था, जब सभी 40 (अविभाजित मध्य प्रदेश) सीटें कांग्रेस ने अपनी झोली में डाल ली थीं। 2024 के चुनाव में भाजपा को 59.27 फीसदी वोट मिले, जबकि कांग्रेस 32.44 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई। बसपा तीसरे नंबर पर रही, जबकि 1.41 फीसदी वोट नोटा को मिले।
हालांकि इस बार राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा अनुमान लगाए जा रहे थे कि कांग्रेस 3 से 4 सीट जीत सकती है, लेकिन कांग्रेस के हाथ से एकमात्र छिंदवाड़ा सीट भी निकल गई। इंदौर और विदिशा सीट पर तो भाजपा उम्मीदवार रिकॉर्ड मतों से विजयी हुए हैं। आखिर कांग्रेस की इतनी बुरी हार के कौनसे प्रमुख कारण रहे। आईए, जानते हैं....
1. कमजोर संगठन : कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा कारण रहा कमजोर संगठन। प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी भले ही युवा थे, लेकिन वे न तो पार्टी कार्यकर्ताओं में ऊर्जा भर पाए न ही मतदाताओं को प्रभावित कर पाए। हालांकि जब बुजुर्ग कमलनाथ से कांग्रेस की कमान लेकर पटवारी को दी गई थी, तब पार्टी को उम्मीद थी कि वे पार्टी में जान फूंक देंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मतदान के दिन प्रदेश भर में कई बूथों पर कांग्रेस की टेबल तक नहीं लग पाई। इतना ही नहीं कांग्रेस के दिग्गज भी अपनी सीटें नहीं बचा पाए। नेताओं में आपसी समन्वय भी देखने को नहीं मिला। कई बार प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी और नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार के बीच मतभेद की खबरें भी आईं।
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2. जनता में अविश्वास : कांग्रेस जनता का विश्वास नहीं जीत पाई। 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़ने से सरकार गिरी और एक बार फिर भाजपा की सरकार बन गई। जबकि, जनादेश कांग्रेस के पक्ष में था। लोकसभा चुनाव के समय भी ऐसा ही नजारा देखने को मिला, जब सुरेश पचौरी, पूर्व विधायक संजय शुक्ला, विशाल पटेल, निलेश अवस्थी, अजय यादव, कमलनाथ समर्थक विधायक दीपक सक्सेना समेत कई अन्य बड़े नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। इंदौर में तो लोकसभा उम्मीदवार अक्षय बम ने नाम ही वापस ले लिया। इसका मतदाताओं पर नकारात्मक असर पड़ा। लोगों को लगा कि कांग्रेस उम्मीदवार जीतने के बाद भी पार्टी में रहें, इसकी क्या गारंटी है। इसलिए मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट देना जरूरी नहीं समझा। कमलनाथ और उनके बेटे के भाजपा में जाने की खबरों ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया।
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3. भाजपा की कुशल रणनीति : कांग्रेस की बुरी हार का श्रेय भाजपा की कुशल रणनीति को दिया जा सकता है। जिस तरह से कांग्रेस नेताओं की भाजपा में एंट्री हुई, उससे कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं का मनोबल बुरी तरह टूट गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव समेत अन्य बड़े नेताओं ने लगातार भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में रैलियां और रोड शो किए। इसका लाभ भाजपा नेताओं को मिला। भाजपा के 7 नेताओं की जीत का अंतर 5 लाख से ऊपर है। इनमें इंदौर से शंकर लालवानी और विदिशा से शिवराज सिंह चौहान तो देश की टॉप 10 जीत में शामिल थे। शंकर ने तो देश में सबसे बड़ी जीर्त दर्ज की।
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4. उम्मीदवारों के चयन में देरी : मध्य प्रदेश में जब भाजपा अपने सभी उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी थी, तब कांग्रेस उम्मीदवारों के चयन में उलझी हुई थी। यदि समय रहते उम्मीदवारों की घोषणा कर दी जाती तो उन्हें प्रचार का मौका मिल जाता और संभव है कुछ उम्मीदवार जीत भी जाते। कुछ सीटों पर पार्टी ने ऐन मौके पर प्रत्याशियों की घोषणा की। इसके साथ ही कांग्रेस के नेता चुनाव लड़ने से कतराते भी दिखे।
5. बड़े नेताओं की चुनाव से दूरी : इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बड़े नेताओं की चुनाव प्रचार से दूरी रही। पूर्व मुख्यमंत्रीद्वय कमलनाथ और दिग्विजय सिंह अपने क्षेत्रों में उलझकर रह गए। बावजूद इसके दिग्विजय राजगढ़ से चुनाव हार गए और कमलनाथ पिछली बार जीती हुई छिंदवाड़ा सीट पर अपने बेटे नकुल नाथ को नहीं जिता पाए। केन्द्रीय स्तर के नेता भी मध्य प्रदेश में प्रचार के लिए ज्यादा वक्त नहीं निकाल पाए।
हालांकि कांग्रेस के लिए राहत की बात यह हो सकती है कि उसने पूरे देश में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 99 हो गई है। मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य- राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में भी पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है। यदि भविष्य में कांग्रेस को मध्य प्रदेश में कुछ हासिल करना है तो उसे अभी से अपने संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। केन्द्रीय नेतृत्व को भी मध्य प्रदेश की हार पर गंभीरता से मंथन करना होगा। हार के कारणों को धरातल पर उतरकर तलाश करना होगा। अन्यथा इस तरह का प्रदर्शन आगे भी दोहराया जाता रहेगा।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala