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इस देश में चुपचाप सुबकते- टूटते हुए मर्दों की पड़ताल कौन करेगा?

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नवीन रांगियाल

Atul Subhash Suicide Case: अपने गम को दबा-दबा कर जिसकी आंखों के आंसू सूख चुके हैं। अपनी देह का दर्द छुपा छुपाकर जिसका दिल सिकुड़ने लगा है। जिसे रोने के लिए कहीं कोई जगह— कोई कोना नहीं मिला।  जिसको सहारे के लिए एक कांधा तक नसीब न हुआ। जो किश्‍तों के सहारे जिंदगी गुजारकर अपनों से ब्‍याज तक की ख्‍वाहिश नहीं रखता। जिसे मर्द घोषित कर कह दिया कि ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’

अपने झुके हुए कांधों और थकी हुईं उनींदी आंखों में चमक लेकर घर लौटता है तो इस आस में हो कि उसके बच्‍चे उसे एक मोहक मुस्‍कान देंगे, कोई एक ग्‍लास पानी उसके हाथ में लाकर दे देगा। इस देश की अर्थव्‍यवस्‍था के ग्राफ को साल दर साल कुछ थोडा और ऊपर उठाने वाले समाज के ऐसे मजबूत, कभी नहीं रोने वाले, दर्द को बयां नहीं करने वाले ‘मर्द’ को अगर घर में एक सुखद शाम और आरामतलब नींद भी न मिले तो वो अपना दर्द कहां लेकर जाए?

क्‍या करें ये मर्द जो फांसी न लगाए? क्‍या करे अगर वो जहर खाकर न मरे? कहां जाए अगर वो रेल की पटरियों पर सो न जाए?

भीतर से टूट चुके— दर्द से कराहता हुआ ये मर्द दफ्तर से अवकाश वाले दिन किसी शाम में जब अकेला बैठकर सोचता होगा अपने होने के मायनों के बारे में तो शायद उसे मिर्जा गालिब का यही शेर याद हो आता हो...

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता?

जिंदगी के इसी अग्‍निपथ पर झुलसकर भी जो पुरुष अपनों के लिए जिंदा रहा, पल पल अपनों के लिए मरता रहा वही पुरुष एक बेटे, एक बाप और एआई इंजीनियर अतुल सुभाष के रूप में अपनों की ही नफरतों में जलकर खाक हो गया।

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पत्‍नी और उसके परिवार से पीड़ित ऐसा मर्द अतुल सुभाष जब न्‍याय के लिए दरवाजा खटखाए और न्‍याय देने वाला जज ही उसकी जिंदगी के इस संघर्ष को रफा-दफा करने के बदले उससे 5 लाख रुपए मांग ले, नहीं तो आत्‍महत्‍या कर के भाड़ में जाने की सलाह दे डाले तो देश का ऐसा पुरूष अपना दुख-दर्द कहां लेकर जाए। बकौल निदा फ़ाज़ली यह याद आता है...

अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए, घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए। ख़ुद-कुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में, और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए।

बेंगलुरु में 34 साल के AI सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष अपनी आत्‍महत्‍या से न सिर्फ घर से लेकर दफ्तर तक की बंद दीवारों के पीछे सुबकते अकेले पड़ चुके पुरुषों की व्‍यथा बयां कर गए हैं, बल्‍कि पीड़ित के लिए नर्क में तब्‍दील हो चुकी इस देश की न्‍याय व्‍यवस्‍था पर भी थूक कर चले गए हैं। जब तक ऐसे मर्दों की जिंदगियां नहीं बचाई जाएगी, तब तक इस देश की आत्‍मा पर लिखा हुआ रह जाएगा कि Justice Is Due... 

AI सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष तो इस देश में पुरुषों के खिलाफ होने वाली मानसिक हिंसा, घरेलू हिंसा और सामाजिक हिंसा की एक बेहद धुधंली सी तस्‍वीर भर है। इस तस्‍वीर के पीछे कितने ही पुरुषों की जिंदगियां ऐसी कहानियों और संघर्षों से भरी पड़ी हैं उनकी पड़ताल आखिर कौन करेगा?


कभी झूठे दहेज के केस में तो कभी दुष्‍कर्म का आरोप में। कभी भरण-पोषण के नाम पर तो कभी परिवार और मां-बाप से अलग करने के नाम पर। कभी बच्‍चों की कस्‍टडी के नाम पर तो कभी घरेलू हिंसा के आरोप के नाम पर। नारीवादी का नारा बुलंद करते इस समाज में। फैमिनिज्‍म का आलापते इस देश में। औरतों को मर्दों के बराबरी का दर्जा देने लाने वाले अभियानों, शोर और आवाजों के बीच क्‍या कभी दिन ब दिन अकेले पड़ते जा रहे, अपनों से ही थके जा रहे मर्दों की सुबकती हुई— घुटती हुई आवाज को— उस मर्द की कराह को कोई सज्‍जन सुनना चाहेगा...?

डिस्‍क्‍लैमर : इंजीनियर अतुल सुभाष की डेडबॉडी का फोटो हम नहीं लगाना चाहते थे, लेकिन इस मामले की गंभीरता को देखते हुए और आपकी आत्‍मा को झकझोरने के लिए हम यह फोटो इस्‍तेमाल करने के लिए बाध्‍य हैं कि किस तरह से एक जीता जागता आदमी शव में तब्‍दील हो जाता है।

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